गुरु द्रोणाचार्य के विषय में कुछ ऐसी बातें, जो शायद ही आपको पता हो: दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

गुरु द्रोणाचार्य के विषय में कुछ ऐसी बातें, जो शायद ही आपको पता हो: किसी भी पिता को अपने पुत्र से प्रेम बहुत स्वाभाविक बात है. यह हर युग.....

गुरु द्रोणाचार्य के विषय में कुछ ऐसी बातें, जो शायद ही आपको पता हो दिनेश मालवीय किसी भी पिता को अपने पुत्र से प्रेम बहुत स्वाभाविक बात है. यह हर युग में और हर समय रहा है. भविष्य में ही रहेगा. हर पिता अपने पुत्र के सुख के लिए बहुत कुछ करता है. लेकिन पुत्र प्रेम जब पुत्रमोह का रूप ले ले. उसके लिए व्यक्ति अपने समाज और राष्ट्र के हित की बलि चढ़ाने में भी नहीं झिझके, तो यह विनाशकारी रूप ले लेता है. भारत में “पुत्रमोह” की बात चलते ही द्वापर युग में हस्तिनापुर के सम्राट धृतराष्ट्र को हर कोई इसका सबसे बड़ा उदाहरण बताया जाता है. देखा जाए तो यह सही भी है, क्योंकि इस नैत्रहीन राजा ने अपने नालायक बेटे दुर्योधन को राजा बनाने के फेर में धर्म और सत्य की सारी मर्यादाओं का की धज्जियाँ उड़ा दीं. उसका यह पुत्रमोह महाविनाशकारी महाभारत युद्ध का सबसे बड़ा कारण रहा. अगर ऐसा न होता तो शायद यह महायुद्ध नहीं होता. लेकिन पुत्रमोह की बीमारी से वह अकेला ग्रस्त नहीं था. उस समय के महान गुरु और बेजोड़ धनुर्धर द्रोणाचार्य भी पुत्रमोह से कोई कम ग्रस्त नहीं थे. द्रोणाचार्य जैसे शस्त्र और शास्त्र के महान व्यक्ति का इस तरह अविवेक से से ग्रस्त हो जाना विधि के विधान के सिवा और क्या जा सकता है! आइये, द्रोणाचार्य के व्यक्तिव के इस कमज़ोर पक्ष को कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं. महाभारत की कथा के अनुसार महान धनुर्धर होने के बावजूद द्रोणाचार्य महान ऋषि भारद्वाज के पुत्र थे. वह बहुत न्यायनिष्ठ ब्राहमण थे. छल-प्रपंच न जानने के कारण वह बहुत गरीबी से  पीड़ित रहे. उनकी पत्नी कृपी कौरवों के कुलगुरु कृपाचार्य की बहन थीं.. जब द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वात्थामा का जन्म हुआ, तो उसकी ठीक से परवरिश के लिये उनके पास पर्याप्त साधन नहीं थे. यहाँ तक कि उसके लिए दूध जुटाने के लिए उनके पास एक गाय तक नहीं थी. एक बार बालक अश्वत्त्थामा को बहुत भूख लगने पर द्रोणाचार्य की पत्नी कृपि ने उसे दूध की जगह आटे का घोल पिलाया था. इससे द्रोणाचार्य बहुत दुखी हुए. पत्नी के कहने पर वह अपने मित्र राजा द्रुपद से सहायता मांगने गये. जो बचपन में उनका सहपाठी था. बचपन में उसने द्रोणाचार्य से कहा था कि जब वह राजा बनेगा तो उनकी सहायता करेगा. लेकिन जब द्रोणाचार्य उससे सहायता की याचना करने पहुँचे तो द्रुपद ने कोई सहायता नहीं की. इतना ही उनकी दरिद्र का मज़ाक भी उड़ाया. इससे द्रोणाचार्य के मन को बहुत गहरी पीड़ा हुयी. ब्राह्मण होते होते भी उनके मन में द्रुपद से प्रतिशोध लेने की भावना बहुत प्रबल हो गयी. एक बार संयोग से पितामह भीष्म को जब उनके शस्त्र कौशल के बारे में परिचय प्राप्त हुआ तो उन्होंने उन्हें कुरुवंश के राजकुमारों का गुरु नियुक्त कर दिया. अपनी दरिद्रता के वशीभूत द्रोणाचार्य ने अपने स्वतंत्र स्वभाव के विपरीत राज्य की सेवा में नियुक्त होने की सहमति दे दी. इस प्रकार वह हस्तिनापुर राज्य के वेतनभोगी कर्मचारी बन गए. ऐसा उन्होंने “पुत्रप्रेम” के चलते किया, जो कहीं से गलत नहीं था. उनकी जगह कोई अन्य व्यक्ति भी शायद ऐसा ही करता. लेकिन द्रोणाचार्य धीरे-धीरे राजकीय सुख-सुविधाओं के आदि होते चले गए. उनके पुत्र और परिवार को तमाम सुख-सुविधाओं के साथ ही बहुत मान-सम्मान और महत्त्व भी प्राप्त हो गया............ इसके कारण उनका पुत्रप्रेम, पुत्रमोह में कब बदल गया, इसका उन्हें पता ही नहीं चला. ऐसी स्थिति में कोई बड़े से बड़ा व्यक्ति भी इन सुविधाओं को त्यागने या इनमें कटौती के लिए राजी नहीं होता. उनके पुत्र को राजकुमारों जैसा राजसी जीवन जीने को मिल गया. इसलिए द्रोणाचार्य कभी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे उनके बेटे के सुख में कोई कमी या बाधा आये. दुर्योधन के अंध समर्थन के चलते ही उन्होंने अभिमन्यु के अनीतिपूर्वक वध में उसका साथ दिया. वह जानते थे कि किसी योद्धा का इस तरह वध करना युद्ध नीति और क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध है. वह इसे रोक सकते थे. द्रोणाचार्य कुरु राजकुमारों को उत्तम शिक्षा देने लगे. लेकिन महाभारत में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वह अपने पुत्र के मोह में पक्षपाती हो गये थे. महाभारत  में एक जगह उल्लेख आता है कि द्रोणाचार्य शिष्यों को जब पानी लाने के लिए भेजते थे, तो अपने पुत्र अश्वत्थामा को चौड़े मुंह का बर्तन देते थे, जबकी बाकी शिष्यों को छोटे मुंह का बर्तन देते थे. इस कारण उनका बेटा पानी भरकर जल्दी आ जाता था. दूसरे शिष्यों को आने में होने वाली देरी के दौरान वह अपने बेटे को गोपनीय रूप से कुछ अलग से सिखा देते थे. द्रोणाचार्य का सबसे प्रिय शिष्य अर्जुन था, लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि गुरु ने “नारायणास्त्र” की शिक्षा अर्जुन को नहीं दी, जबकि अपने पुत्र अश्वत्थामा को इस शस्त्र का चालन सिखा दिया. इसी कारण जब महाभारत युद्ध में अश्वत्थामा ने इस महाविनाशक अचूक अस्त्र का प्रयोग किया, तब अर्जुन के पास इसका कोई तोड़ नहीं था. पांडव युद्ध हारने की कगार पर पहुँच गये. यदि भगवान श्रीकृष्ण युक्ति से काम न लेते, तो यह अस्त्र पूरी पांडव सेना के साथ ही पांडवों को भी समाप्त कर देता. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस अस्त्र को व्यक्ति का स्वभाव और उसकी पात्रता देखकर प्रदान किया जाता था. द्रोणाचार्य को अपने बेटे का उग्र और कम विवेकपूर्ण स्वभाव मालूम होने के बाबजूद उन्होंने यह अस्त्र उसे “पुत्रमोह” के चलते ही प्रदान किया. कौरव सभा में जब दुर्योधन और दु:शासन ने द्रोपदी का वस्त्र हरण करने का प्रयास किया, तब द्रोणाचार्य का चुप्पी साधनी का कारण भी पुत्रमोह से ही जाकर जुड़ता है. यह सही है कि उन्हें राज्य से वेतन मिलता था, लेकिन इसके बदले उन्होंने राजकुमारों को शिक्षा दी थी. इस दृष्टि से हस्तिनापुर राज के प्रति इस प्रकार की निष्ठा रखने की उन्हें कोई बाध्यता नहीं थी. वह सभा में खड़े होकर इसका विरोध कर सकते थे. उनके विरोध को नकारने का साहस कोई भी नहीं कर सकता था. जब विदुर और विकर्ण इसका विरोध कर सकते थे, तो द्रोणाचार्य क्यों नहीं? इसके पीछे भी उनके मन में पुत्र के राजकीय सुख-सुविधाओं से वंचित होने का भय ही प्रतीत होता है. इसके बाद जब महाभारत युद्ध शुरू होने को था, तब सभी योद्धाओं को यह स्वतंत्रता थी कि वे जिस पक्ष से लड़ना चाहें, उसमें शामिल हो सकते हैं. कोई न लड़ना चाहे,तो  तटस्थ भी हो सकता था. द्रोणाचार्य पूरे घटनाक्रम से वाकिफ थे और यह अच्छी तरह जानते थे कि दुर्योधन अधर्म करता चला आ रहा है. उन्हें बहुत अच्छी तरह पता था कि पांडवों का पक्ष सत्य और धर्म का पक्ष है. वैसे तो उन्हें इस लड़ाई में भाग ही नहीं लेना चाहिए था, क्योंकि वह राजकुमारों के गुरु थे, हस्तिनापुर की सेना का हिस्सा नहीं. वे चाहते तो धर्म के लिए पांडवों के पक्ष में युद्ध कर सकते थे. यदि ऐसा नहीं भी करते तो तटस्थ रह सकते थे. लेकिन द्रोणाचार्य ने अजीब स्टैंड लिया. उन्होंने कौरव सेना का सेनापति बनना स्वीकार किया. हालाकि यह भी कहा कि वह किसी पांडव का वध नहीं करेंगे. अब यह क्या बात हुयी! यदि आप सेनापति हैं, तो शत्रुपक्ष में जो भी है, उसका वध करना आपका धर्म है. इसके पीछे द्रोणाचार्य की यह सोच लगती है, कि यदि कौरव जीते तो, उनको और उनके बेटे को राजकीय सुख यथावत मिलता रहेगा. यदि पांडव जीते तो भी उन्हें अपने इस स्टैंड का लाभ तो मिलेगा ही कि मैंने पांडवों का वध नहीं किया. इसके अलावा, वह पांडवों की धर्म और गुरुनिष्ठा को भलीभाँति जानते थे. पांडव युद्ध जीतने के बाद उनके साथ पूरा सम्मानजनक व्यवहार करेंगे और उनके पुत्र को कोई कष्ट नहीं होने देंगे, इसका उन्हें पूरा विश्वास था. इस तरह दोनों हाथों में लड्डू जैसी स्थिति थी. इस प्रकार देखा जाए तो द्रोणाचार्य का सबकुछ जानकार भी असत्य के साथ खड़े होना विधि का विधान ही कहा जा सकता है.