अथवर्वेद क्या है?


स्टोरी हाइलाइट्स

जैसा कि भारतीय संस्कृति में इस विश्वास को माना जाता है कि वर्तमान जीवन को सुखमय बनाने के के लिए जिन उपकरणों की आवश्यकता होती है, उन सभी की सिद्धि.......

जैसा कि भारतीय संस्कृति में इस विश्वास को माना जाता है कि वर्तमान जीवन को सुखमय बनाने के के लिए जिन उपकरणों की आवश्यकता होती है, उन सभी की सिद्धि के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों का विधान अथर्वेद में हैं। इसका स्थान वेदत्रयी से अतिरिक्त माना जाता है।प्रधानतया यज्ञों में उपयोग की दृष्टि से ऋग्वेद , यजुर्वेद, और सामवेद ही महत्वपूर्ण है।अग्निष्टोम आदि सोमयाग सम्पन्न करते समय ऋग्वेद, यजुर्वेद और  सामवेद के मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है, अथर्वेद के मन्त्रों का नहीं।अथर्वेद को वेदों में परिगणित न करना उपयुक्त नहीं।यज्ञानुष्ठान में चारो वेदों के ऋत्विजों की आवश्यकता होती है,उनमें से एक ऋत्विज ब्रह्मा अथर्वेद से सम्बन्धित है।वेदत्रयी का अभिप्राय ऋक, यजुष और साम इन तीन प्रकार के मन्त्रों से है।, जिसका  प्राधान्य क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद से है।'चत्वारो वेदाः' इस वाक्य से चार वेदों का ही ग्रहण कारना चाहिए।अथर्वेद ब्रह्मा का मूल वेद है और ब्रह्मा यज्ञों का प्रधान ऋत्विज् है।इससे स्पष्ट है कि यज्ञ के पूर्ण संस्कार के लिए अथर्वर्वेद की नितान्त आवश्यकता होती है।पोरोहित के लिए अथर्वेद का ज्ञान इसलिए आवश्यक है कि वह राजा के शान्तिक और पौष्टिक कार्यों का सम्मपादन अथर्ववेद के द्वारा ही करता है।
  Atharvaveda अथर्ववेद का अर्थ-
अथर्वेद का अर्थ है अथर्वों का वेद अथवा अभिचारक मन्त्रों का ज्ञान। प्राचीन समय में अथर्वन का अर्थ  था पुरोहित।
अथर्ववेद का प्रतिपाद्य विषय
अथर्ववेद के प्रतिपाद्य विषय को मुख्यतया निम्न शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है।
१ अथर्ववेद
आयुर्वेदअथर्वेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।विभिन्न रोगों से का उपचार करनें की विधि तथा रोग निवारण के लिए औषध को प्रभावी बनाने वाले मन्त्रों की उपलब्धि अथवर्वेद  में होती है।अथर्वेवेद में तक्मन ज्वर, गण्डमाला, क्षय, यक्ष्मा,खाँसी, और दन्तपीड़़ा आदि रोगो के निवारण के लिए अनेक उपाय है।अथर्वेद में सर्पदशं के प्रभाव को निवारित करने का उपाय भी प्रतिपादित किया गया है।आलिगी,उरूगुला,तैमात और बिलीगी जैसे सर्पों के नाम भी इस वेद मेम मिलते हैं।
अथर्ववेद में अनेक रोगों का निवारण अनेक प्रकार के वैज्ञानिक ढ़गों से उपचार करने का उल्लेख मिलता है।कहीं कहीं आधुनिक शल्य चिकित्सा का भी उल्लेख स्थान स्थान पर मिलता है।
२ आयुष्य
अथर्ववेद में कुछ एसे मन्त्र भी मिलते है जो आयुष्य की वृद्धि के लिए हैं तता इनका प्रयोग परिवार में विशेष उत्सवों पर किया जाता था।पूर्ण स्वास्थय तथा दीर्घायु की प्राप्ति के लिए रक्षासूत्र धारन करने का भी विधान है।
३ पौष्टिक कर्म
इस वेद में अन्नोत्पादन के लिए , विदेशों में कारोबारर करने के लिए , भवन निर्माण के लि और कृषि कर्मों के लिए अनेक प्रकार के उपायों की प्रार्थनाएं मिलती हैं।वृष्टि के विषय में साहित्यिक वर्णन इस वेद मैं मिलता है।
४ राजकर्म
इस वेद में राजाओं से सम्बन्धित अनेक मन्त्र उपलब्ध होते हैं।रथ, दुदुम्भि,और शंख आदि का वर्णन युद्ध आदि की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।प्रजा द्वारा राजा का संवरण तथा राजकर्म से सम्बन्धित अनेक कार्योम का वर्णन इस वेद में है।
५ ब्रह्मण्य
अथर्ववेद में ब्रह्मा के स्वरुप और कार्य प्रतिपादित किए गए हैं।इसमें दार्शनिक तत्व स्थान -स्थान पर निरुपित है।ब्रह्मा को ही द्युलोक और ब्रह्मालोक का नियन्ता कहा गया है।उसे काल शब्द से अभिहित किया है।ब्रह्मा को स्कम्भ भी कहा जाता है, क्योकि उसमें आकाश पृथ्वी तथा अंतरिक्ष निहित हैं(अथर्ववेद-१०.७.२३)। सकम्भ का अर्थ है - आधार।
६ पृथिवी सूक्त
अथर्ववेद में पृथिवी की महिमा का प्रतिपादन करनेवाला पृथिवीसूक्त भी उपलब्ध होता है।अथर्ववेद के ६२ मन्त्रों  में पृथिवी को सभी पदार्थों की उत्पादिका माना जाता है। मातृभूमि से सम्बन्धित मन्त्र मातृभूमि से ओत- प्रोत हैं।इसमें भूमि को माता और भूमि को पुत्र कहा गया है। (मात भूमिः पुत्रोऽमं पृथिव्याः- १२.१.१२ ) तथा यह सूक्त राष्टीयता का संदेश देता है। (१२.१.४५)
७ व्रात्यकाण्ड
  अथर्ववेद की शौनक संहिता का १५वां काण्ड व्रात्यकाण्ड है।व्रात्य शब्द का अर्थ होता है- आचार- विचार से रहित तथा नियम की जंजीर से न बंधा हुआ व्यक्ति , किन्तु अथर्ववेद में व्रात्य का अर्थ है ब्रह्मा ,जो जगत के नियमों से तथा नियम की जंजीर से न बंधा हुआ।'जगत' के प्रारम्भ में केवल व्रात्य ही विद्यमान था'। (व्रात्यो वा इदमग्र आसीत)।
८ विज्ञान
विज्ञान की दृष्टि से अथर्ववेद बहुत ही महत्वपूर्ण है।लाक्षा किसी वृक्ष का रस न होकर कीट विशेष के द्वारा उत्पन्न किया जाता है।इस कीट को 'शिलाची' नाम से अथर्ववेद में अभिहित किया है।यह कीट पीपल, खादिर, और बरगध आदि वृक्षों पर रहकर लक्षा उत्पन्न करता है।इस कीट को सुवर्णवर्मा और हिरण्यवर्मा कहा जाता है।यह वेद विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।भारतीय स्थापत्य कला, आयुर्वेद,राज्य कार्य,सैन्य विज्ञान आदि इस के मुख्य विषय है।