79 वर्षीया माया शर्मा हर रोज़ 4-5 घंटे बैठ बनाती हैं ज़रूरतमंदों के लिए मास्क


स्टोरी हाइलाइट्स

“देखो बेटा, यहाँ बात सिर्फ अपनी सुरक्षा की नहीं है, पूरे देश की सुरक्षा की है। बच्चों से न मिलने का दुःख तो होता है, पर इस बात की भी तसल्ली होती है

79 वर्षीया माया शर्मा हर रोज़ 4-5 घंटे बैठ बनाती हैं ज़रूरतमंदों के लिए मास्क   राजस्थान के जयपुर शहर की रहने वाली माया शर्मा उम्र के इस पड़ाव में भले ही ज़्यादा समय तक खड़ी नहीं हो पाती, मगर अब तक बैठे-बैठे ही उन्होंने 700-800 मास्क तैयार कर दिए हैं। ये मास्क उनके बेटे मनीष सोरल अस्पतालों, सब्जी वालों, पुलिसकर्मियों और ज़रूरतमंदों में मुफ्त बांटते हैं।   “हमने अपनी माँ को हमेशा से ही दूसरों की मदद करते देखा है। उनका स्वभाव ऐसा है कि अगर उनके पास 10 रुपये हो और कोई जरुरतमंद आकर आठ रुपये मांग ले, तो वह उसे तुरंत दे देंगी और 2 रुपये में ही अपना काम चला लेंगी,” मनीष कहते हैं। माया शर्मा का जीवन संघर्षों से भरा रहा। पति, श्री. बल्लभ शर्मा रेलवे में गार्ड थे। आमदनी बहुत नहीं थी, पर संतुष्टि पूरी थी। माया अकेले ही सर्दियों में 15-20 स्वेटर बना लेतीं। अपने चारों बच्चों के लिए कपड़े भी सिलाई मशीन से खुद तैयार करतीं और परिवार में जितना हो सके सहयोग देतीं। “बहुत आराम तो नहीं बेटा, पर ईश्वर ने हमेशा सुख शांति से रखा। धन से तो नहीं कर सकते थे, पर तन से जितना हो सका, उतना सहयोग दिया। 10-15 साल के होने तक हमारे बच्चों ने कभी कपड़ा या स्वेटर खरीदकर नहीं पहना,” ये कहते हुए माया जी की आवाज़ में अलग ही संतोष महसूस होता है। चौंका देनेवाली बात यह है कि माया जी ने सिलाई-बुनाई कहीं से सीखी नहीं है, न कोई कोर्स किया। उन्होंने तो बस अपनी लगन से यह सब देख-देखकर ही सीख लिया।   1962 में मेरी शादी हुई थी। इंटर की परीक्षा दी ही थी कि शादी तय हो गयी। पिताजी शादी में देने के लिए एक सिलाई मशीन ले आये। बस, उन 6 महिनों में मैंने अपने भाई-बहनों के लिए खूब कपड़े सिलें। वहीं से ये सिलसिला शुरु हुआ था, अब तो मेरी मशीन भी 60 बरस की हो गयी है,” वह हँसते हुए कहती हैं। हाल ही में जब कोरोना का कहर बढ़ने लगा, तो मास्क की भी मांग बढ़ने लगी। ऐसे में, माया जी ने एक दिन अखबार में पढ़ा कि एक डॉक्टर दिनभर ड्यूटी करने के बाद अपने घर जाकर ज़रूरतमंदों के लिए मास्क भी सीलते हैं। बस, यही खबर उनके लिए प्रेरणा बन गयी। इस संदर्भ में माया जी कहती हैं,”मुझे लगा बेटा, कि अगर दिनभर ड्यूटी करने के बाद डॉक्टर ऐसा कर सकते हैं, तो मैं घर बैठे-बैठे लोगों की मदद क्यों नहीं कर सकती?” 25 मार्च को लॉकडाउन शुरु होने से कुछ समय पहले ही माया जी ने मास्क बनाना शुरु कर दिया था। शुरु में तो उनके पास 5 मीटर कपड़ा था, जिनसे उन्होंने जितने हो सकते थे, उतने मास्क बना दिए। लेकिन फिर जब उनके बेटे मनीष इन्हें बाँटने निकले तो उन्हें पता चला कि अभी कई ऐसे लोग हैं जिन्हें इसकी ज़रुरत है। “माँ ने लगभग 100 मास्क बना दिए थे, जिन्हें मैं बाँट चुका था। पर फिर कपड़ा खत्म हो चुका था और मार्किट बंद थी। ऐसे में, समस्या थी कि और कपड़ा कहाँ से लाये? पर हमारे पड़ोसी ऐसे समय में आगे आये। सभी ने, जितना हो सका उतना कपड़ा दिया,” मनीष सोरल ने बताया। माया जी तब तक आराम नहीं करती, जब तक कपड़ा बचा हो। सुबह-सुबह 5 बजे नहाकर वह पहले पूजा करती हैं, फिर आठ बजे अखबार पढ़ने बैठती हैं। उनके छोटे बेटे पंकज के मुताबिक उन्हें अखबार में छपी वर्ग पहेली को सुलझाए बगैर चैन नहीं आता, इसलिए ये उनके रोज़ के सबसे ज़रुरी कामों में शुमार है। इसके बाद नाश्ता करके वह सिलाई के काम में लग जाती हैं और तब तक नहीं रुकतीं, जब तक कपड़ा खत्म नहीं होता। एक मीटर कपड़ें से करीब 18 से 20 मास्क बन जाते हैं। जब कपड़ा नहीं होता तो माँ आराम कर लेती हैं। पर रोज़ कोई न कोई कपड़ा दे जाता है, जिन्हें हम अच्छी तरह धोकर, सुखाकर माताजी को दे देते हैं। फिर वह लगातार मशीन पर लगी रहतीं हैं,” मनीष कहते हैं। माया जी के इस नेक काम में उनके पड़ोसी ही नहीं बल्कि घर का हर सदस्य अपना योगदान दे रहा है। उम्र हो जाने की वजह से अब उनसे सुई में धागा नहीं पिरोया जाता, तो यह काम उनकी 8 साल की पोती काव्या बड़े शौक से उनके लिए करती है। वही, उनकी बहुएं उन्हें पानी का गिलास तक उठाने नहीं देती, ताकि सिलाई के बाद जितना हो सके उन्हें आराम मिले। बेटे उनके बनाए हुए मास्क अस्पतालों, सब्ज़िवालों, पुलिसवालों और ज़रूरतमंदों में लगातार बाँट रहे हैं। केवल मास्क बनाने और बाँटने के लिए ही नहीं, बल्कि यह परिवार एक और बात के लिए हम सभी के लिए एक मिसाल है। दरअसल, कोरोना का कहर शुरु होने से पहले ही माया जी अपने परिवार के साथ अपने बड़े बेटे संजीव सोरल के पास आबू जानेवाली थीं। पर जैसे ही उन्होंने इस महामारी के बारे में सुना, उन्होंने टिकट कैंसिल करवा दी। “देखो बेटा, यहाँ बात सिर्फ अपनी सुरक्षा की नहीं है, पूरे देश की सुरक्षा की है। बच्चों से न मिलने का दुःख तो होता है, पर इस बात की भी तसल्ली होती है कि हमने सबको सुरक्षित रखा। समाज के लिए जितना हो सके उतना करें, इससे बहुत संतुष्टि आती है,” वह मुस्कुराते हुए कहती हैं।