श्री की उपाधि से विभूषित...............श्रीकृष्णार्पणमस्तु-2


स्टोरी हाइलाइट्स

श्री की उपाधि से विभूषित...............श्रीकृष्णार्पणमस्तु-2 awarded-with-the-title-of-shri-sri-krishnanarpanamastu-2

श्री की उपाधि से विभूषित                                                                     श्रीकृष्णार्पणमस्तु-2 रमेश  तिवारी  कँस के वध से मथुरा स्तब्ध और आर्यावर्त अचंभित है। खासकर मथुरा के उस तनाव पूर्ण दृश्य की कल्पना कीजिये! जहां कोहराम के बीच, धनुर्यज्ञ मंडप में कंस की गर्दन कटी पड़ी है। अन्य भाइयों, सुनामा और कंक के क्षत, विक्षत शवों पर मक्खियां भिनभिना रहीं हैं। और भविष्य से भयभीत कंस के अन्य भाई, न्यग्रोथ, शंकु, सुहु, राष्ट्पाल, सृष्टि, और तुष्टिमान, बहिनें- कंसावती कंका, शूरभू, राष्ट्रपालिका, सहित मथुरा में तैनात मगध के सैनिक और गुप्तचर धुज रहे थे। अमात्य विपृथु और सेनापति अनाधृष्टि की मानसिक चिंतायें भी बढ़ गई थीं। उसी समय श्रीकृष्ण ने अमात्य और सेनापति को बुलवा कर स्थिति पर नियंत्रण करने और कंस के शव का चंदन काष्ठ में राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करने का आदेश दिया। हाथी कुबलयापीढ़ को भी अग्नि में समर्पित किया गया चांड़ूर, मुष्टिक, शल, कौसल और अन्य मल्ल मृतकों का भी अंतिम संस्कार किया गया। कृष्ण ने मथुरा को व्यवस्थित किया। और फिर, यादवों के पुरोहित गर्ग मुनि ने यादवों की प्रथम सभा में कृष्ण को "श्री" की उपाधि से विभूषित किया। अब कृष्ण, कृष्ण से "श्रीकृष्ण" हो गये। श्रीकृष्ण का यज्ञोपवीत करके क्षत्रिय की संज्ञा प्रदान की गयी। दूसरी ओर अपनी विधवा पुत्रियों के सुहाग का प्रतिशोध लेने के लिये सन्नद्ध जरासंध ने कृष्ण और मथुरा को नष्ट करने की सौगंध ली। उसने अपने मित्र राजाओं, चंद्रावती (चंदेरी) के राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल, बक्सर के राजा शुद्धवर्मन के पुत्र दंतवक्र, सौवीर (करांची) के राजा शैव्य और कुंडनपुर (नागपुर) के राजा भीष्मक के साथ बैठक में अपनी, अपनी कुल देवियोँ की शपथ ली। और.! मथुरा! अभी व्यवस्थित भी नहीं हुयी थी कि जरासंध के विशाल सैन्य दल ने जोरदार आक्रमण बोल दिया। आक्रमण की सूचना मिलते ही श्रीकृष्ण और बलराम ने मथुरा के बाहर की खाइयों को जल से भरवा दिया। मुख्य द्वार बंद कर दिये गये। शत्रु की शक्ति के समक्ष यद्यपि मथुरा बहुत सक्षम नहीं थी। परन्तु एक बहुत बडा़ अंतर जो था, वह यह कि श्रीकृष्ण में त्वरित निर्णय लेने की अपार क्षमता जो थी। हुआ भी कुछ ऐसा ही। मथुरा की छाती पर चढ़ा जरासंध 27 दिनों तक युद्ध करता रहा। युद्ध में दोनों पक्ष डटे रहे। किंतु यह क्या! संधि प्रस्ताव आ गया है। वह भी जरासँध की ओर से! संधि प्रस्ताव भी विचित्र था- कहा गया कि क्यों न मल्ल युद्ध के माध्यम से, जय पराजय का निर्णय कर लें। श्रीकृष्ण ने तत्काल ही प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया। यहां जरासंध की कुटिल और कृष्ण की बौद्धिक युद्ध नीति का प्रथम और प्रत्यक्ष संघर्ष भी था। कंस मल्ल युद्ध के लिये मथुरा में अपने कुछ सैनिक उतार कर मथुरा की शक्ति का निरीक्षण करना चाहता था। जबकि चतुर श्री कृष्ण ने तत्काल मल्ल श्रेष्ठ बलदाऊ के नेतृत्व में मल्लों का एक दल तत्काल ही द्वार के बाहर भेज दिया। वे शत्रु की चाल को भलीभांति जान चुके थे। हम महाभारतकालीन मल्ल विद्या को भी जान लेते हैं। उस काल में मल्ल विद्या का प्रचलन था। जरासंध सहित बलराम, श्रीकृष्ण और भीम और दुर्योधन आदि भी तो निपुण मल्ल थे। जरासंध के राज्य में तो मल्लों को विशेष सम्मान प्राप्त था। जरासंध के सेनापति, जुड़वां भाई डिंभक और हंस, तो मल्ल युद्ध में निष्णात थे। उन दोनों भाइयों में अद्भुत स्नेह था। वे दो शरीर एक प्राण थे। सो अखाडे़ में प्रथम जोडी़ डली बलराम और हंस के मध्य। विश्व के सर्वश्रेष्ठ मल्ल बलराम ने हंस की गर्दन में बाहुकंटक दांव लगाया। हंस छटपटाने लगा। उसके प्राणों पर बन आई। हंस मैदान छोड़कर भागने लगा। किंतु.! श्रीकृष्ण! का चातुर्य देखें। युद्ध को अपने पक्ष में करने में जरा भी देर न करने वाले श्रीकृष्ण ने मथुरा के अमात्य विपृथु से भ्राँति फैलवा दी कि हंस तो मर गया। और जानलें कि इस भ्रम का जुड़वाँ भाई डिम्भक पर इतना घातक प्रभाव हुआ कि वह व्याकुल हो गया। इतना निराश कि बिना प्रिय भाई के जीवन को निर्थक मान यमुना मेँ डूब कर मर गया। बाद में जब हंस को ज्ञात हुआ कि डिम्भक ने प्राण त्याग दिये तो अपने शेष जीवन को निरर्थक मान वह भी यमुना के जल में समा गया। इस प्रकार श्रीकृष्ण का यादव पक्ष विजयी हो गया। 4 वर्षो में जरासंध ने 4 बार आक्रमण किये। अब अचानक ही किशोर वय श्रीकृष्ण के जीवन में एक और ऐसा आयाम आया कि, जिसने उन्हें भविष्य में ब्रह्मज्ञान की ओर प्रेरित करने की भूमिका तैयार कर दी। श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव मूलतः सूर्यनगर (सूरत) के थे। कंस उनका मित्र था। कंस उनको विशेष आग्रह करके मथुरा लाया था। एक दिन वासुदेव की अपने बालापन से परिचित मित्र पांचाल नरेश द्रुपद से भेंट हो गई। और फिर द्रुपद के परामर्श से श्रीकृष्ण, उद्वव और बलराम, को अवंती (अंकपाद आश्रम), उज्जैन में अध्ययन के लिये भेज दिया गया। जहां तब के आर्यावर्त के सर्वपूज्य ऋषि सांदीपनि ने, उन्हें धनुर्विद्या सहित शस्त्रों, चारों वेद, चौदह विद्याओं शास्त्र, योग, सांख्य दर्शन आदि की सर्व श्रेष्ठ शिक्षा दी। आज की कथा बस यहीं तक। धन्यवाद |