भक्तियोग विशेष:- भक्ति भाव द्वारा ब्रहृम सत्ता से जुड़े रहने की जीवन पद्धति


स्टोरी हाइलाइट्स

भक्तियोग विशेष:- भक्ति  भाव  द्वारा  ब्रहृम  सत्ता  से जुड़े रहने की जीवन पद्धति न्यूज़ पुराण पर  ज्ञानयोग एवं कर्मयोग का अध्ययन आपने किया। उस ईश्वर तक पहुऊंचने के मार्गो  में  एक  मार्ग  भक्तियोग  का  मार्ग  भी  है।  भक्तियोग  भक्ति  भाव  द्वारा  ब्रहृम  सत्ता  से जुड़े रहने की जीवन पद्धति है। भक्तियोग  की  साधना,  साधना  जगत  में  एक  अन्यतम  साधना  है।  भाव  प्रधान साधको  के  लिए  भक्तियोग  की  साधना  सबसे  सरल  साधना  है।  यह  मार्ग  ईश्वर  प्राप्ति  का सबसे  सरल  साधना  है।  भक्तियोग  का  अधिकारी  किसी  भी  आयु  वर्ग  के  व्यक्ति  बन  सकते है। बालक, वृद्ध, स्त्री व पुरूष इसमें किसी प्रकार का संदेह नही किया जा सकता है। भक्तियोग पे्रम की उच्च पराकाष्टा है। ईश्वर के अनन्य प्रेम ही भक्ति है। --      भक्ति का अर्थ - भक्ति शब्द ‘भज सेवायाम्’ धातु में तिन् प्रत्यय लगकर बनता  है। जिसका अर्थ है - पूजा, सेवा, उपासना आदि। इस प्रकार भक्ति सेवा द्वारा उपासना द्वारा ईष्वर से तादात्म्य भाव स्थापित करना है। या इसे इस तरह से समझा जा सकता है, कि भक्ति उस भावना का नाम है, जिसमे भक्त (उपासक) ईश्वर के भाव में भावित होकर सर्वतोभवेन तद्रूपता का अनुभव करता है। --      भक्तियोग की परिभाषा - भक्तियोग की परिभाषा देते हुए नारद भक्तिसूत्र - 16 में कहा गया है - ‘पूजा दिष्टनुराग इति पराशर्यः।’ अर्थात् भगवान की पूजा अर्चना व उपासना में अनुराग होना ही भक्ति है। नारद भक्तिसूत्र - 18 में महर्षि शा ण्डल्य के अनुसार - ‘आत्मप्रेम के अविरोध साधनों में अनुराग का होना ही भक्ति है।’ स्वामी विवेकानन्द के अनुसार - ‘सच्चे और निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज करना भक्ति है।’ आचार्य  गर्ग  के  अनुसार - ‘ईश्वर  के  दिव्य  गु ण  व  कथा  आदि  के  श्रव ण  में  अनुराग  का होना ही भक्ति है।’ सामान्य  रूप  से  देखा  जाए  तो  ईश्वर  के  प्रति  अनन्य  पे्रम  ही  भक्ति  है।  ईश्वर  के  प्रति  पूर्ण सर्मप ण का भाव ही भक्ति है। शा डिल्य  सूत्र  में  भक्ति  की  परिभाषा  देते  हुए  कहा  है  -  ‘सा  प्रानुरक्ति  ईश्वरे।’  अर्थात् ईश्वर के प्रति परम् अनुरक्ति रखना ही भक्ति है। भक्त प्रहलाद भक्ति योग की परिभाषा देते हुए कहते है - कि हे ईश्वर जैसी प्रीति इन्द्रियो के नाशवान, क्षण भंगुर, भोग्य पदार्थो के प्रति अज्ञानी जनो की रहती है। वैसी ही प्रीति मेरी तुममे हो, और हे भगवान् तेरी सतत् कामना करते हुए मेरे हृदय से वह कभी कम ना हो। भक्त  प्रहलाद  की  इस  परिभाषा  में  ईश्वर  के  प्रति  उत्कट  प्रेम  उन्हे  प्राप्त  करने  की  उत्कट इच्छा दिखाई देती है। यह भक्तियोग की सर्वोच्च परिभाषा है। भक्तियोग  का  उद्धेश्य  -  भक्तियोग  का  उद्धेश्य  अनन्य  भक्ति  भाव  से  ईश्वर  के प्रति  समर्प ण  व  मोक्ष  की  प्राप्ति।  ईश्वर  के  प्रति  पूर्ण  समर्प ण  भाव  के  साथ  ईश्वरमय  ही  हो जाना  भक्तियोग  का  उद्धेश्य  है।  भक्तियोग  सबसे  सरल  व  सहज  मार्ग  है।  जिसमें  साधक ईश्वर  के  गु णानुवाद  के  द्वारा  ही  आत्मसाक्षात्कार  को  प्राप्त  कर  सकता  है।  भक्तियोग  का उद्धेश्य अपने पराये का भेद मिट कर सर्वतोभावेन उस ईश्वर को ही देखना है। एक  उत्तम  भक्त  की  भी  यही  पहचान  है।  भक्तियोग  का  साधक  सभी  पदार्थो  में, मनुष्यों  में  ईश्वर  का  साक्षात्कार  करता  है।  वह  मन,  वचन  कर्म  से  ईश्वर  के  प्रति  समर्पित होता  है,  और  वह  समस्त  प्रा णियो  को  ईश्वर  की  सत्ता  मानकर  उनसे  निच्छल  प्रेम  करता है।  ईश्वर  के  प्रति  पूर्ण  सम्र्प ण  भाव  ही  उसे  निन्दा  -  स्तुति  में  भी  सम  बनाये  रखते  है। ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास ही उसे अदम्य साहस, पराक्रम और विपरित परिस्थितियो में भी धीरता के साथ आगे बढ़ने की सामथ्र्य देता है। ईश्वर विश्वासी कभी भी अवसादग्रस्त नहीं होता, उसे कोई दुःख नही सताते। इन सभी संकटो का समाधान वह अन्तः प्रेर णा कर लेता है। अतः भक्तियोग का उद्धेश्य एक प्रकार से सम्र्पू ण जगत के प्रा णियो के प्रति निच्छल प्रेम  भाव  है।  सभी  के  प्रति  समता  का  भाव  है।  इन्ही  उत्तम  भावो  को  धारण  कर  ईश्वरमय हो जाना ही भक्तियोग है। - भक्ति के विविध रूप - (भक्ति के भेद) - भक्ति के विविध रूप होते हुए भी मुख्य रूप से दो प्रकार है / दो भेद है - (1) हैतुकी या गौ णी भक्ति       (2) अहैतुकी या पराभक्ति (1)  हैतुकी या गौणी भक्ति - सकाम भक्ति को ही हैतुकी भक्ति कहते है। हैतुकी भक्ति सप्रयोजन भक्ति है। इसलिए इसे  हैतुकी भक्ति कहा गया हैं। सासारिक विषयो को प्राप्त करने के लिए यह भक्ति की जाती है। यह भक्ति अहैतुकी भक्ति की प्रथम सीढ़ी कही जा सकती हैं। गौणी भक्ति, हैतुकी भक्ति या इसे  अपरा भक्ति भी कहते है। गौणी भक्ति से भक्ति के वास्तविक स्वरूप प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त होता है। इस  प्रकार  की  भक्ति  में  भक्त  सांसारिक  वस्तुओ  की  प्राप्ति  के  लिए  प्रार्थना  करता है।  वही  संकट  में  घिरने  पर  भी  ईश्वर  को  पुकारने  वाले  भक्त  भी  इसी  प्रकार  की  श्रेणी  में आते है। हैतुकी भक्ति दो प्रकार की है -   (क). वैधी भक्ति        (ख). रागत्मिक भक्ति (क). वैधी भक्ति - वैधी भक्ति के शास्त्रो में नौ भेद बताये गये है। जिसे नवधा भक्ति कहा जाता  है।  शास्त्रों  में  नवधा  भक्ति  का  विस्तृत  वर्णन  किया  गया  है।  श्रीमद्  भगवत्  में  नवधा भक्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया हैं - ‘‘श्रव ण कीर्तनं विश् णोः स्मर णं पादसेवनम्। अर्चन वन्दनं दास्य सख्यमात्मनिवेदनम्।।’’ - भागवत 7/5/23 अर्थात्  श्रवण,  कीर्तन,  स्मरण,  पादसेवन,  अर्चन,  वन्दन,  दास्य,  साख्य  व  आत्मनिवेदन  ये भक्ति के नौ भेद है। श्रवण भक्ति - चित्त को एकाग्र कर ईश्वर के प्रति श्रद्धा व  विश्वास कर, उनके दिव्य गुण, चरित्र लीला आदि का श्रवण करना श्रवण भक्ति है। कीर्तन भक्ति - कीर्तन  भक्ति,  ईश्वर  के  दिव्य गुणो, चरित्र,  लीला,  कथा  आदि  का  गीतो के माध्यम से करना  कीर्तन  भक्ति  है।  इसे  इस  प्रकार समझ  सकते  है।  भगवान  की भक्ति के भजन करना, गीत गाना कीर्तन भक्ति है। उदाहणार्थ - चैतन्य महाप्रभु। स्मरण भक्ति  -  भगवन  नाम  का  श्रव ण,  उनके  दिव्य  गु णो  का  बार  -  बार  चिन्तन  करना स्मरण भक्ति है। व ध्यान करना स्मरण भक्ति है। उदाहणार्थ - भक्त प्रहलाद। पादसेवन - ईश्वर  के दिव्य  चरण कमलो का सेवा करना पादसेवन  भक्ति है। यह भक्ति दो प्रकार से होती है। प्रथम  -  अपने  अराध्य,  ईष्ट  या  गुरूदेव  के  पादयुगल  का  हृदय  में  श्रद्धा  भक्ति  पूर्वक  ध्यान करना ही पादसेवन भक्ति है। द्वितीय - अपने इ्र्रष्ट आराध्य देव की प्रतिमा के चर णो को धोकर नित्य श्रद्धाभाव से साधना करना  पादसेवन  भक्ति  है।  उदाहणार्थ  -  लक्ष्मी  जी  या  गुरू  चरणों  की  वन्दना  करने  वाले शिष्य। अर्चन भक्ति  -  अर्चन  का तात्पर्य  है,  पूजन  अतः  भगवान  का  विधि  विधान  पूर्वक  व  नैवेद्य आदि द्वारा पूजन करना अर्चन भक्ति है। इसमें बाह्नय सामाग्री द्वारा भक्त भगवान का पूजन करता  है।  अथवा  मन  ही  मन  कल्पित  सामाग्री  द्वारा  भी  भगवान  का  श्रद्धा  पूर्वक  पूजन करता है। उदाहणार्थ - राजा पृथु। वन्दन भक्ति - वैदिक रीति व वैदिक मन्त्रो के द्वारा उत्तम स्त्रोतो द्वारा भगवान की पूजा अर्चना करना वन्दन भक्ति है। उदाहणार्थ - अक्रुर। दास्य भक्ति - ईश्वर की उपासना करते हुए सेवा करते हुए अपने प्रति उपासक का भाव व सेवक का भाव बनाये रखना ही दास्य  भक्ति है।  उदाह णार्थ  -  जैसा हनुमान जी श्रीराम जी के प्रति रखते थे। साख्य भक्ति  -  भगवान  के  प्रति  मित्रता  का  भाव  रखना  तथा  उन्हे  अपना  आराध्य  मान कर भक्ति करना सख्य भक्ति है। उदाहणार्थ - अर्जुन, उद्धव और सुदामा आदि। आत्मनिवेदन भक्ति - आत्मनिवेदन वह भक्ति है, जिससे भक्त भगवान के स्वरूप में स्वयं को सर्वतोभावेन  समर्प ण  कर  देता  है।  उदाहणार्थ  -  प्रहलाद  पौत्र  राजा  बलि  ने  वामन भगवान को अपना सर्वस्य अर्प ण कर दिया था। (ख).  रागात्मिक  भक्ति  -  रागात्मिक  भक्ति  नवधा  भक्ति  की  चरम  अवस्था  कही  जा  सकती है।  जब  नवधा  भक्ति  अपनी  चरम  अवस्था  को  पार  कर  जाती  है।  उस  स्थिति  में  हृदय  में आलौकिक भगवत् प्रेम प्रवाहित होने लगता है। शास्त्रो में इसका वर्णन इस प्रकार है - ‘रसानुभाविका आनन्दशक्तिदा रागात्मिका।’ अर्थात्  दिव्य  भगवत्  प्रेम  रस  यानी  आनन्द  रस  का  अनुभव  कराने  वाली  भक्ति विशेष को रागात्मिक  भक्ति  कहते है। रागात्मिक  भक्ति  नवधा भक्ति की साधना के पश्चात् प्राप्त दिव्य अलौकिक आनन्द की आनुभूतिक अवस्था है। इस अनुभव गम्य अवस्था में भक्त को ईश्वर की झलक यत्र - तत्र (जहाँ - तहाँ) ही  मिल  जाती  है।  भगवान  की  झलक  उसे  कभी  जल  में,  कभी  थल  में,  कभी  आकाश  में, कभी  मेघों  में,  कभी  पेड़ों  में,  कभी  पत्तो  में,  कभी  बाहर,  कभी  अपने  अन्तःस्थल  (हृदय)  में उनकी  झलक  देखेने  को  मिलती  है।  भक्त  का  चित्त  उन्ही  रूपों  में  रमने  लगता  है।  इसी आनुभूति की अवस्था का नाम रागात्मिक भक्ति है। (2)  अहैतुकी या   पराभक्ति  -  साधक  की  उत्कृष्ट  और  अन्तिम  पराकाष्टा  ही  पराभक्ति  हैं। पराभक्ति  के  उपासक  और  उपास्य  एक  हो  जाता  हैं।  द्वैतभाव  समाप्त  हो  जाता  हैं।  अतः कहा  जा  सकता  है  कि  पराभक्ति  में  अराध्य  व  अराधक  एक  हो  जाते  है  तथा  द्वैत  का  भाव मिट  जाता  है।  केवल  ध्येय  मात्र  की  प्रतीति  रहती  है।  साधक  को  ब्रह्नम  का  साक्षात्कार  हो जाता है। अभी  तक  आपने  भक्ति  का  अर्थ,  परिभाषा,  भक्ति  की  विविध  रूप का अध्ययन  किया। क्या  भक्त  के भी विविध रूप है?  यह प्रश्न  आपके मन  में  आ  रहे होगे आइये अब भक्त कितने प्रकार के होते है, और वह किस प्रकार की भक्ति करते है। इसका अध्ययन करें - - भक्त के प्रकार - जैसा  कि  पूर्व  विदित  है  कि  ईश्वर  में  परम्  अनुरक्ति  ही  भक्ति है।  इस  प्रकार  प्रभु  के  प्रति  अनन्य  प्रम  में  डूब  जाना  भक्ति  है।  भगवान  के  भजन  करना भक्ति है। और जो भगवान का भजन, पूजा, अराधना, जप, ध्यान आदि करता है। वह भक्त कहलाता है। भक्त  ईश्वर  की  भक्ति  किसी  प्रयोजन  से  करता  है।  और  सभी  भक्तो  का  प्रयोजन भिन्न  -  भिन्न  होता  है।  तथा  भिन्न  प्रयोजन  होने  से  भक्त  भी  भिन्न  प्रकार  के  है।  इन भगवत् भक्तो को श्रीमद् भगवत् गीता में इस प्रकार वर्णन किया गया है - ‘‘चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनो--र्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्शभ।।’’ - गीता 7/16 हे  अर्जुन  चार  प्रकार  के  पु यशाली  मनुष्य  मेरा  भजन  करते  है।  उपासना  करते  है। वे है आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथी और ज्ञानी। आर्त भक्त - प्रथम  श्रेणी  के  भक्त  है  आर्त  भक्त।  ये  वे  भक्त  है,  जब  संसारिक  विपदाओं और  कष्टो  में  घिर  जाते  है।  तब  उस  समय  ईश्वर  को  पुकारते  है।  उसकी  भक्ति  करते  है तथा उसको आर्त भाव से पुकारते हैं। जैसे - गजराज, द्रौपदी। जिज्ञासु भक्त  -  जिज्ञासु  भक्त  वह  है।  जो  आत्म  तत्व  को  जानने  की  जिज्ञासा  रखता हो। जिज्ञासु भक्त ब्रहम तत्व के यर्थाथ रूप से जानने की ईच्छा रखने वाला होता है। वह इसी ईच्छा से ईश्वर को भजता है। जैसे उद्धव, राजा जनक। अर्थाथी भक्त  -  अर्थाथी  भक्त  वे  भक्त  होते  है।  जो  संसारिक  वस्तु,  धन,  वैभव,  मान  एवं प्रतिष्ठा  एवं  स्त्री  व  पुरूष  आदि  प्राप्ति  की  ईच्छा  से  ईश्वर  की  उपासना  करते  हैं।  समस्त मानव व दानव इसी श्रेणी में आते है। ज्ञानी भक्त  -  ज्ञानी  भक्त  ऐसे  भक्तो  को  कहा  जाता  हैं।  जो  ब्रहम  ज्ञान  की  प्राप्ति  के लिए  आत्म  कल्याण  की  प्राप्ति  के  लिए  ईश्वर  की  उपासना  करते  है।  ऐसे  भक्त  ब्रहम  में चित्त  को लगाये रखने के  लिए ध्यान  - समाधि का अभ्यास आवश्यक  समझ कर ब्रहम के ध्यान  -  समाधि  में  चित्त  को  लगाये  रहते  है।  श्रीकृष् ण  ने  श्रीमद्  भगवद्  गीता  में  कहा  है कि ज्ञानी भक्त मेरा ही स्वरूप है। ऐसा मेरा मत है। इस प्रकार सभी भक्तो में   ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ हैं। श्रीमद् भगवत पुराण में भक्तो को तीन श्रे णियो में विभाजित किया गया है - (1).साधारण भक्त - साधारण भक्त केे भक्त है जो ईश्वर की  की अराधना केवल मूर्ति के रूप में करते है। (2).मध्यम भक्त - जो भक्त ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट प्रेम, अनुराग रखने वाला तथा ईश्वर के भक्तो  के  प्रति  मि़त्रता  का  भाव  रखने  वाला  तथा  अज्ञानीजनो  के  प्रति  दया  का  भाव  तथा शत्रुओ के प्रति उदासीनता का भाव रखने वाला होता है। वह मध्यम श्रेणी का भक्त है। (3).उत्तम  भक्त - उत्तम  भक्त  वह  है।  जिनके  अन्दर  समत्व  का  भाव  हो।  जिसके  लिए अपने  पराये  में  कोई  भेद  ना  हो।  अपनी  तथा  दूसरो  की  सम्पत्ति  में  अन्तर  नही  रहता  हो। अहंकार व अभिमान से दूर रहकर समत्व बुद्धि वाला ही उत्तम भक्त है। उत्तम भक्त मन, वचन, कर्म से ईश्वर के प्रति समर्पित होता है। तथा सभी प्रा णियो मे  ईश्वर  का  स्वरूप  देखता  है।  त्णणि  उनसे  निश्चल  प्रेम  करता  है।  उसे  सर्वत्र  ईश्वर  के  ही दर्शन होते है। जो ईश्वर का एक निष्ट ध्यान करते हुए निंदा तथा स्तुति में सम रहता है। वही उत्तम भक्त है। इस  प्रकार  भक्तियोग  के  साधक  की  एक  स्थिति  यह  आ  जाती  है।  जिसमें  अपने  पराये  का भी  ज्ञान  नही  रहता  हैं।  उपासक  और  उपास्य  एक  ही  हो  जाते  है।  यही  पराभक्ति  है। श्रीमद्भगवत् गीता में श्रीकृष् ण नं स्वयं कहा है - ‘‘सन्तुष्टः सततः योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मथ्यर्पितमनो बुद्धिर्यो मभ्दक्तः समे प्रियः।।’’ - 12/14 अर्थात् जो सदा सन्तुष्ट चित्त कां अपने वश में रखने वाला अपने में ब्रहम मात्र का दृढ़निश्चय  करने  वाला,  मुझ  (परमात्मा)  मन  तथा  बुद्धि  को  समर्पित  करने  वाला  योगी  मेरा भक्त  मुझे  सबसे    है।  इस  प्रकार  आनन्द  स्वरूप  ब्रहम  को  प्राप्त  कर  साधक  स्वयं  भी आनन्दी बन जाता है। श्रुति का  है - ‘आत्मैवेद् सर्वमिति। स वा एष एवं पश्यन्नेव मन्वान एवं विजानन्ना ..... ................ भवति।’’ - छान्दोग्य उपनिषद 7/25/2 अर्थात्  यह  सब  कुछ  परमात्मा  ही  है,  जो  ऐसा  देखता  है,  मानता  है,  ऐसा  समझता  है,  वह परमात्मा  में  ही  अनुराग  तथा  उसके  स्वरूप  में  सुख  तथा  आनन्द  का  अनुभव  करता  हुआ परमात्मा स्वरूप हो जाता है। योग  विद्या  हमारे  प्राचीन  ऋषियो  द्वारा  अपनायी  गयी  ऐसी  साधना  पद्धति  है,  जिन  साधना पद्धति  को  अपनाकर  जीवन  के  लक्ष्य  मोक्ष  की  प्राप्ति  सम्भव  है।  योग  के  किसी  भी  मार्ग ज्ञान,  कर्म,  भक्ति  को  अपनाकर  लक्ष्य  तक  पहुचा  जा  सकता  है।  ज्ञानमार्ग  को  अपनाकर सर्वोच्च  अवस्था  की  प्राप्ति  को  ज्ञानयोग  कहते  है।  अपने  कत्र्तव्य  कर्म  करते  हुए  कुशलता पूर्वक  कर्मो  को  करना  कर्मयोग  है,  तथा  भक्ति  मार्ग  द्वारा  ईश्वरीय  सत्ता  की  दिव्य  अनुभूति ही  भक्ति  योग  है।    इन  तीनो  को  हमारे  जीवन  में  अत्यन्त  महत्व  है।  भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए ज्ञान की प्राप्ति होती है, और विवेक ज्ञान द्वारा मनुष्य के कर्म स्वयं  ही  कुशल  होने  लगते  है।  इस  प्रकार  इन  तीनो  का  हमारे  जीवन  में  अत्यधिक  महत्व है।  भक्तियोग, कर्मयोग  व ज्ञानयोग  का समन्वय  जीवन  को  उच्च  व  दिव्य  बनाता है।  दिव्य व उत्कृष्ट जीवन द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। शब्दावली --      अन्तःकरण - अन्तरात्मा --      अविरत - अनवरत --      लघुता - हल्कापन --      सांख्य योग - महर्षि कपिल कृत दर्शन --      विवेक ज्ञान - सही - गलत का ज्ञान --      विशिष्टता - विलक्षण, अद्भूत, अधिक शिष्ट, यशस्वी --      अन्र्तज्ञान - अन्तःकर ण, अन्तबोध, भीतरी ज्ञान --      मुमुक्षुत्व - मोक्ष प्राप्ति की ईच्छा --      आत्मानुसन्धान - आत्मा की खोज, आत्म तत्व का अन्वेषण --      उत्कंठा - तीव्र इच्छा