जाति, सनातन धर्म का अंग नहीं, सनातन धर्म के मूल ग्रंथों में “जाति” का नाम तक नहीं.. दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

जाति को लेकर हमारे देश में बहुत तीखी बहस छिड़ी हुयी है. इसे ख़त्म करने की बात भी जोरशोर से कही जा रही है. यह बहस जाति..

जाति, सनातन धर्म का अंग नहीं, सनातन धर्म के मूल ग्रंथों में “जाति” का नाम तक नहीं.. दिनेश मालवीय जाति को लेकर हमारे देश में बहुत तीखी बहस छिड़ी हुयी है. इसे ख़त्म करने की बात भी जोरशोर से कही जा रही है. यह बहस जाति व्यवस्था और जातिवाद को में फ़र्क नहीं कर पाने की वजह से रही है. हकीकत यह है कि ये दोनों बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं. यह बात बहुत कम लोग जानते हैं, हालाकि सभी को जानना चाहिए, कि सनातन धर्म के मूल ग्रंथों में “जाति” शब्द का उल्लेख तक नहीं है. सनातन धर्म के तीन मूल ग्रन्थ हैं, जिन्हें “प्रस्थान त्रयी” कहा जाता है. इन त्रयी में तीन ग्रन्थ हैं- ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और श्रीमदभगवतगीता. इन तीनों ग्रंथों में “जाति” शब्द का कोई उल्लेख नहीं है. जिन पुस्तकों में इस शब्द का प्रयोग है, वे सनातन धर्म के मूल ग्रन्थ नहीं हैं. सनातन धर्म में वर्ण व्यवस्था है. इसके सही स्वरूप को नहीं जानने के कारण इसे भी बहुत गलत रूप से लिया जाने लगा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य के स्वभाव पर आधारित इस नैसर्गिक वर्गीकरण में उत्तर वैदिक काल से कुछ विकृतियाँ आने लगीं. मध्यकाल तक आते-आते इसकी व्याख्या गलत ढंग से होने लगी. व्यक्ति का वर्ण उसके जन्म से निर्धारित होने लगा. यहीं से इस व्यवस्था में ऐसे विकार आने लगे, जो आधुनिक समय में इसकी प्रासंगिकता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं. मूल रूप से वर्ण व्यवस्था कभी जन्म आधारित नहीं रही. इसका निर्धारण व्यक्ति के स्वभाव, मूल प्रवृत्ति और रुझान के आधार पर होता था. किसी एक वर्ण के परिवार में जन्मे हुए व्यक्ति को दूसरे वर्ण में जाने की पूरी स्वतंत्रता थी. किसी का शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय हो जाना और किसीका ब्राह्मण से इन वर्णों में चला जाना एक बहुत सामान्य सी प्रक्रिया थी. भगवान् श्रीकृष्ण ने “श्रीमदभगवतगीता” में कहा कि वर्ण व्यवस्था मेरे द्वारा निर्धारित की गयी है, जो स्वभाव पर आधारित है. श्रीकृष्ण के वर्ण का आशय स्वभाव से है. वर्णों का निर्धारण भी स्वभाव के आधार पर है. वह कहते हैं कि चारों वर्णों का निर्धारण मेरे द्वारा किया गया है. सभी को व्यक्ति को अपने-अपने वर्ण के अनुसार जीवन जीना चाहिए. उदाहरण के तौर पर, यदि किसी व्यक्ति का सहज स्वभाव अध्ययन-अध्यापन करने, धर्म-आध्यात्म की खोज करना है, तो उसका वर्ण ब्राह्मण हुआ. यानी उसके जीवन में सत्वगुण की प्रधानता है.  इसी तरह रजोगुण प्रधान व्यक्ति क्षत्रिय, वणिक बुद्धि वाला व्यक्ति वैश्य और सेवा करने की सहज प्रवृत्ति वाला व्यक्ति शूद्र है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन वर्णों में विभाजन सिर्फ स्वभावगत है, इसमें कोई ऊँच-नीच की बात नहीं है. जाति और वर्ण में भेद नहीं कर पाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण : मध्यकाल में अनेक कारणों से जाति व्यवस्था का विकास हुआ. इसका मकसद भी अच्छा था और सामाजिक एकता की दिशा में इसके बहुत अच्छे परिणाम भी मिले. लेकिन जब जाति व्यवस्था ने जातिवाद का रूप ले लिया तब इसने समाज और राष्ट्र का बहुत अहित किया है. जाति व्यवस्था के कारण हर एक जाति के व्यक्ति को एक ऐसा वातावरण मिलता था, जहाँ वह स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस करता था. उसकी जाति के लोग उसके सुख-दुःख में सहभागी होते थे. लोगों को इसके रूप में एक ऐसी व्यवस्था प्राप्त थी, जो उसके आचार-व्यवहार को काफी हद तक नियंत्रित करती थी. हर व्यक्ति इस बात का बहुत ध्यान रखता था कि उसके आचरण में कोई ऐसी बात न हो या उससे ऐसा कोई कम न हो जाए जिससे जाति में उसका अपमान हो. इससे अपराध और दुराचार कम होते थे. बच्चों की शादी के लिए वर और बधु के चयन में उसकी जाति के लोग एक-दूसरे की मदद करते थे. अधिकतर व्यवसाय जाति-आधारित होते थे, लिहाजा किसी व्यवसाय या उसमें लगे किसी व्यक्ति पर कोई संकट आ जाने पर जाति के सभी लोग एकजुट होकर उसका विरोध कर न्याय प्राप्त करने की जी-जान से कोशिश करते थे. यह एक प्रकार से आज की ट्रेड यूनियन जैसा था. जातिवाद को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान राजनैतिक दलों का है. वोट बैंक की राजनीति के चलते हर एक दल ने इसे खूब बढ़ावा दिया और आज भी दे रहे हैं. इससे कोई भी दल अछूता नहीं है.जातिगत भावनाओं को हवा देकर उनका अपने राजनैतिक हितों के लिए भरपूर दोहन किया जा रहा है. विकृति : कालांतर में जाति व्यवस्था में जातिगत भेदभाव का दोष आया गया, जो सामाजिक समरसता के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ. यहीं से यह सुंदर व्यवस्था विकृत होती चली गयी. कतिपय जातियाँ अपने आपको दूसरी जातियों से श्रेष्ठ मानने लगीं. दूसरी जातियों को दोयम माना जाने लगा. पहले जातियों और जातीय संगठनों के बीच एक-दूसरे से आगे निकलने और अधिक  प्रगति करने की प्रतिस्पर्धा अवश्य होती थी, लेकिन इसका स्वरूप स्वस्थ था. इसमें कोई बैरभाव नहीं था. धीरे-धीरे यह स्वस्थ भावना कम होने लगी और इसने प्रतिद्वंदिता का रूप ले लिया. राजनैतिक हित साधने वालों ने अपने राजनैतिक हितों के लिए इस विकृति को खूब हवा दी. आजादी के बाद ऐसा लगता था कि अब यह विकृति चली जायेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राजनैतिक दलों ने जातीय आधार पर लोगों को संसद और विधानसभाओं के टिकट देना शुरू कर दिया. वह उस व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने लगे, जिसकी जाति के सदस्यों की संख्या उसके चुनाव क्षेत्र में अधिक होती थी. इसने विकृति को इतना भयानक रूप दे दिया है कि अब लोग जाति व्यवस्था को समाप्त करने की बात कर रहे हैं. जाति व्यवस्था को समाप्त करने वालों को यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि यह एक ऐसी चीज है, जो भारतीय समाज से कभी जड़-मूल से समाप्त नहीं होने वाली. कोई कितना भी शिक्षित हो या बड़े पद पर बैठा हो, उसमें जातीय भावना देखने को मिलती है. देखा तो यह जा रहा है कि शिक्षा के साथ यह और भी बढ़ रही है. जरा मंत्रालयों और सरकारी दफ्तरों में जाकर देखिये कि जातीय विभाजन कितना अधिक है. यहाँ सभी लोग शिक्षित हैं. जहाँ कथित ऊंची जाति के लोग अपनी जाति पर गर्व करते हैं, वहीँ कथित नीची जाति के लोग उन्हें सबक सिखाने की बात करते हैं. दुःख की बात यह है कि कथित नीची मानी जानी वाली जातियों के लोगों के मन में यह भावना बहुत सुनियोजित रूप से भरी जा रही है कि, ऊँची जाति वालों ने तुम्हारे पूर्वजों पर बहुत जुल्म किये हैं. इस बात में कुछ सच्चाई है कि मध्यकाल में ऐसा हुआ, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ जैसा बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है. एक तरफ कहा जा रहा है कि पिछली बातें भूलकर नए समाज का निर्माण किया जाए, वही पिछली बातों को खूब याद दिला-दिला कर जातीय द्वेष को बढ़ावा भी दिया जा रहा है. इस तरह किसी व्यवस्था या अवधारणा में विकृति आ जाए तो उस अवधारणा को ही गलत नहीं माना जाता. उसे या तो सुधारा जाता है और सुधार नहीं हो पाने की स्थिति में उसे समाप्त करना ही हल होता है. कोई भी व्यवस्था सदा के लिए नही होती.