चाणक्य और ह्वेनसांग


स्टोरी हाइलाइट्स

मित्रों कहते हैं कि चाणक्य काल में भारत के घरों में ताला नहीं लगाया जाता था। क्योंकि ज्यादातर लोंगो की सोच अपराध से घृणा की थी। उसी समय चीनी यात्री

चाणक्य और ह्वेनसां मित्रों कहते हैं कि चाणक्य काल में भारत के घरों में ताला नहीं लगाया जाता था। क्योंकि ज्यादातर लोंगो की सोच अपराध से घृणा की थी। उसी समय चीनी यात्री ह्नेनसाँग ने भारत की यात्रा की थी। उनकी यात्रा के एक प्रेरणाप्रद प्रसंग की चर्चा कुछ विद्वानों ने की है।  जो कुछ इस प्रकार है – जब ह्नेनसाँग भारत आए, उस समय भारत की राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) थी। तब बर्मा, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, काबुल, कांधार सब भारत के ही अंग थे। कहते हैं यात्रा करते हुए ह्नेनसाँग पाटलीपुत्र पहुंचा और तभी उनके मन में भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री महामति चाणक्य के दर्शन का विचार आया। वह पाटलिपुत्र के गंगा-तट पर एक घाट पर जा पहुंचे। वहां बैठे-बैठे वह किसी उपयुक्त व्यक्ति से प्रधानमंत्री के आवास का पता-ठिकाना पूछने का विचार करने लगे। अनेक व्यक्ति वहां नहाने के लिए आये और चले गये, परन्तु वह किसी से भी पूछने का साहस नहीं जुटा पाये। देखते-देखते एक वृृद्ध सांवले ब्राह्मण को छोड़कर सारा घाट खाली हो गया। वह ब्राह्मण भी जब नहा कर, सन्ध्यादि से निपट धोती धोकर घड़ा भर चलने के लिए तैयार हुआ तब यात्री ह्नेनसाँग ने सामने पहुंच कर हाथ जोड़ कर कहा- ‘महाशय!’ मैं आपके देश के लिए बिल्कुल अपरिचित हूँ और आपके देश के प्रधानमंत्री के दर्शन करना चाहता हूँ। कृपया मुझे उनके आवास तक पहुँचने का मार्ग बताऐं। वृृद्ध ब्राह्मण ने धैयपूर्वक उनके कथन को सुना और अपने साथ आने के लिए कहा। आगे-आगे वृद्ध ब्राह्मण और पीछे-पीछे ह्नेनसाँग नगर के एक छोड़ पर जंगल की ओर जाने वाली पगडंडी की ओर बढ़े। ह्नेनसाँग घबराने लगे कि कहीं वह गलत स्थान पर तो नहीं ले जा रहा है? परन्तु वह बिना उसे महसूस कराये पीछे-पीछे चलते रहे। थोड़ी दूर पर एक कुटिया के द्वार पर पहुंच कर ब्राह्मण रुका और द्वार खोलकर भीतर प्रविष्ट हुआ। ह्नेनसाँग बाहर ठहर कर यह विचार करते हुए उसकी प्रतिक्षा करने लगे कि वह बाहर आयेगा और मार्गदर्शन करेगा। परन्तु जब ब्राह्मण बाहर नहीं आया तब ह्नेनसाँग ने आवाज़ लगायी और कहा- ‘महाशय! क्या मेरी याचना भूल गये।’ तत्काल वृद्ध ब्राह्मण ने कुटिया के बाहर आकर अति विनीत भाव से मस्तक झुकाकर कहा-‘नहीं! बन्धु! मैं भूला नहीं हूँ, इस कुटिया में भारत का प्रधानमंत्री चाणक्य आपका स्वागत करने के लिए प्रस्तुत है।’ यात्री ने आश्चर्य से उसे देखा और डरते-डरते कुटिया में प्रवेश किया। ह्नेनसाँग ने देखा कि यह एक साधारण सी कुटिया है, जिसमें एक ओर जल का घड़ा रखा है, दूसरी ओर उपलों-लकड़ियों का ढेर है। नमक आदि पीसने के लिए सिल-बट्टा रखा हुआ है। एक बाँस कपड़े सुखाने के लिए ऊपर टंगा हुआ है और एक चटाई के सामने चैकी के ऊपर लिखने पढ़ने की सामग्री तथा दीपक रखा हुआ है। ब्राह्मण के आग्रह पर वे चटाई पर जा बैठे। परन्तु बार-बार उनके मन में यही आता रहा कि हो-न-हो यह पागल है और वे पीछे-पीछे आ गये हैं। परन्तु उसी समय सौभाग्य से सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य अपने कुछ सैनिकों के साथ वहाँ पहुँचे और गुरु के चरणों में दण्डवत लेटकर प्रणाम किया और आने का उद्देश्य बताया। वृद्ध ब्राह्मण, जो वास्तव में चाणक्य ही थे, उनसे कहा- राजन आप सायंकाल आना, तब आपकी समस्या पर विचार करेंगे। अभी तो यह देखें, एक विदेशी यात्री अपने देश के अतिथि बन कर पधारे हैं, इन्हें साथ ले जाकर ससम्मान राजकीय अतिथिशाला में ठहराए और जब ये पूरी तरह आराम कर चुकें, तब कल सांयकाल इन्हें मुझसे मिलाएं। तब हम इनसे यात्रा वृतांत सुनेंगे और अन्य चर्चा करेंगे। चन्द्रगुप्त ने गुरुदेव के आज्ञानुसार उस विदेशी यात्री को राजकीय अतिथिशाला में ठहराया और दूसरे दिन सायंकाल के समय जब सूर्यास्त हो चुका था, तब साथ लेकर गुरु की कुटिया पर पहुँचे। वहाँ जाकर देखा कि महामति चाणक्य गम्भीर भाव से एकाग्रचित होकर कुछ विचार करते हुए लिख रहे हैं। सामने दीपक जल रहा है। दोनों मौन भाव से चटाई पर जा बैठे। कुछ समय पश्चात कार्य समाप्त कर चाणक्य ने दृष्टि ऊपर उठायी और आगन्तुकों को सम्मान देते हुए जलता हुआ दीपक बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया और ह्नेनसाँग को सम्बोधित कर पूछा- ‘कहो मित्र! कैसा लगा यह देश!’ ‘बहुत ही विचित्र’- ह्नेनसाँग ने उत्तर दिया। चाणक्य ने मुस्कुरा कर पूछा-‘क्या विचित्रता देखी आपने?’ ह्वेनसांग ने कहा - सबसे पहली तो यही कि एक जलते हुए दीपक को बुझाकर दूसरा दीपक जलाना क्या कम विचित्र बात है? क्या इस पहेली का अर्थ समझाने का कष्ट करेंगे महामति चाणक्य? जिसके बुद्धि-बल का डंका विश्व में बज रहा है, वह व्यक्ति एक जलते हुए दीपक को बुझा दूसरा दीपक जलाये यह कुछ समझ में नहीं आ रहा है। चाणक्य विदेशी यात्री का कथन सुनकर मुस्कराये और गंभीर स्वर में बोले-‘बन्धु! मैंने एक दीपक बुझा कर दूसरा दीपक सोच समझ के ही जलाया है। *बात बहुत ही सामान्य है, बस समझने की आवश्यकता है।* वास्तव में जब आप लोग आये तो मैं राजकिया कार्य कर रहा था। अतः उस समय जिस दीपक के प्रकाश में मैं कार्य कर रहा था उसमें राजकोष का तेल जल रहा था। परन्तु अब जो बातचीत होगी, वह हमारी निजी होगी, इसलिए मैंने राजकोष से सम्बद्ध दीपक को बुझा कर अपनी कमायी के तेल से जलने वाला यह दीपक जलाया है।’ यह सुनते ही ह्नेनसाँग दंग रह गया। बरबस उसके मुख से निकल पड़ा कि क्यों न ऐसा देश महान और विश्वगुरु हो, जिसका प्रधानमंत्री इतना जागरूक तथा देश के धन के अपव्यय के प्रति पूरी सावधानी बरतने वाला हो। यह है उस समय के राष्ट्र के मंत्री का आदर्श चरित्रचरित