कोरोना वेक्सीन.. देर भले ही हो, लेकिन सतर्कता जरूरी - दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

पूरी दुनिया को संकट में डालने वाले कोरोना वायरस की वेक्सीन खोजने में दुनिया के आला दिमाग लगे हुए हैं. हर रोज़ इसे लेकर अनेक दावे और घोषणाएँ की जा रही हैं.

कोरोना वेक्सीन देर भले ही हो, लेकिन सतर्कता जरूरी दिनेश मालवीय पूरी दुनिया को संकट में डालने वाले कोरोना वायरस की वेक्सीन खोजने में दुनिया के आला दिमाग लगे हुए हैं. हर रोज़ इसे लेकर अनेक दावे और घोषणाएँ की जा रही हैं. अब विश्व स्वास्थ्य संगठन कह रहा है कि दुनिया भर में जिन लगभग 150 वैक्सीन का परीक्षण किया जा रहा है, उनमें से कम से कम एक तो 2021 तक तैयार हो जायेगी. भारत में भी इसके शीघ्र ही सफल होने की उम्मीद की जा रही है.  बहरहाल, इस काम में किसी भी तरह की जल्दबाजी जी न करके पूरी सावधानी और सतर्कता बरतने की ज़रुरत है, वरना इसके जोखिमों से भी इनकार नहीं किया जा सकता. भारत को अगर वैक्सीन बनाने में सफलता मिलती है तो, यह हमारे लिए बहुत गौरव की बात होगी, लेकिन जल्दबाजी करने या इसके लिए सरकारी कामों की तरह समयसीमा तय करके टारगेट तय करने से इसकी वांछित सफलता संदेहजनक होगी. भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद् ने  वैक्सीन के लांच के लिए 15 अगस्त की समय सीमा निर्धारित कर उचित काम नहीं किया, हालाकि चिकित्सा समुदाय की प्रतिकूल प्रतिक्रिया के बाद इस गलती को सुधार भी लिया गया. अगर हमारे स्वतंत्रता दिवस तक भारत में यह वेक्सीन तैयार हो जाए और लाल किले से प्रधानमंत्री पूरी दुनिया के सामने इसकी घोषणा करें तो हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा, लेकिन सिर्फ इसके लिए किसी भी प्रकार की जल्दबाजी विपरीतत परिणाम भी दे सकती है. यदि जल्दबाजी में कोई ऎसी वेक्सीन बन जाए जिसके साइडइफेक्ट्स बहुत ख़राब हों, तो देश की बदनामी तो होगी ही, साथ ही मानव जीवन से भी खिलवाड़ होगा.  ऐसा पहले कुछ देशों में हो भी चुका है. अमेरिका में 1976 में स्वाइन फ्लू टीकाकरण मामले का उदाहरण हमारे सामने है. उस वक्त यह पाया गया था कि लिए गये सेम्पलों में इस वायरस के दो isolates मिले थे, जो 1918 में स्पेनिश फ्लू महामारी के virus strains से मिलते थे. इससे चिकित्सा बिरादरी में बहुत चिंता व्याप्त हो गयी. ऐसा लगा कि किसी बड़ी महामारी का प्रकोप होने को है. विशेषज्ञों की समिति ने व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम शुरू करने की अनुशंसा कर दी. कांग्रेस की चार समितियों ने इसका अनुमोदन कर दिया और इसके लिए आवश्यक विधेयक को भी मंजूरी मिल गयी. प्रेसिडेंट ने कार्यक्रम की औपचारिक शुरूआत यह कहते हुए की कि कोई नहीं जानता कि इस महामारी की गम्भीरता कितनी है, इसके बाबजूद हम राष्ट्र के जीवन के मामले में कोई जोखिम नहीं ले सकते. पहले दस हफ़्तों में ही करीब साढ़े चार करोड़ लोगों का टीकाकरण कर दिया गया. मुसीबत तब खड़ी हुयी जब यह पाया गया कि जिन लोगों का टीकाकरण किया गया है, उनमें से प्रत्येक एक लाख में से एक को एक न्युरोलोजिकल डिसऑर्डर हो गया, जिससे उनके नर्वस सिस्टम में अनेक तरह के विकार आ गये.दिसंबर तक लकवे के अनेक प्रकरण सामने आ गये और इस कार्यक्रम को दिसंबर में बंद करना पड़ा. न्यूयार्क टाइम्स ने इस नाकामी के लिए सरकारी महकमे की अफसरशाही को दोषी ठहराया. यह कोई अकेला ऐसा मामला नहीं है. इसके अलावा भी 1955 में Cutter Laborratories  ने पोलियो वैक्सीन के कुछ बेच बनाए थे, जिनसे live virus को काबू में लाया जा सकता था. करीब 40 हज़ार बच्चों को ‘abortive’ पोलियो हो गया. कुल 51 बच्चों को लकवा हो गया और पांच मर गये. इसके अलावा, 1998-99 में rotavirus वैक्सीन को भी bowel obsruction का एक कारण पाया गया. लिहाजा इसे भी वापस लेना पड़ा. इसी प्रकार 2007 में हिब वैक्सीन के 1.2 मिलियन डोज को प्रदूषण के डर से वापस लेना पड़ा. कोरोना वेक्सीन के मामले में तो एक और बात खासतौर पर ध्यान रखने की है कि यह महामारी है, कोई मामूली फ्लू या छोटा-मोटा प्रकोप नहीं.इसलिए हर प्रकार की सावधानी और सतर्कता बरतने की ज़रूरत है, भले ही वेक्सीन के आने में कुछ देर हो जाए.