दया की मूर्ति महर्षि सौभरि -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

दया की मूर्ति महर्षि सौभरि -दिनेश मालवीय दया की मूर्ति महर्षि सौभरि ऋग्वेद के ऋषि हैं. वेदों, पुराणों और उपनिषदों में इनका चरित्र मिलता है. इन्होने "सौभरिसंहिता" के नाम से एक ग्रंथ की रचना भी की. यह वृन्दावन के पास कालिंदी के तट पर रमण नाम के द्वीप में रहते थे. यह आजकल सुनरख के नाम से प्रसिद्ध है. महर्षि सौभरि ने यमुना नदी के जल में डूबकर बहुत लम्बे काल तक तपस्या की. एक बार मल्लाहों ने मछली पकड़ने के लये जाल डाला. मछली के जाल में वह खुद आ गये. मल्लाहों ने समझा कि कोई बड़ी मछली फँस गयी है. उन्होंने जाल खींचा तो देखा कि यह तो महर्षि सौभरि हैं. मल्लाह घबरा गये. इस पर महर्षि ने कहा कि जब मैं आपके जाल में फँस ही गया हूँ तो आप मुझे बेच दो. लेकिन उनमें इतनी हिम्मत कहाँ थी. ऋषि के आग्रह पर राजा भी वहाँ आ गये. ऋषि को भला कौन खरीद सकता है! अंत में ऋषि के सुझाव पर यह तय हुआ कि गाय के रोम-रोम में अनंत देवता का निवास है. गाय के बदले में ऋषि को लिया जा सकता है. राजा ने एक कपिला गाय का मूल्य देकर ऋषि को मुक्त करवाया. एक बार ऋषि ने देखा की गरुड़देव उनके स्थान के पास मछलियों को खा रहे हैं. एक बड़ी मछली को गरुड खाना चाहते थे. उन्होंने गरुड़ को ऐसा करने से रोका, लेकिन गरुड़ इतने भूखे थे कि उन्होंने ऋषि की बात पर ध्यान नहीं दिया. मछली के बच्चे तड़पने लगे. महर्षि को दया आई. उन्होंने गरुड़ को शाप दिया की आज से यदि गरुड़ यहाँ आकर किसी जीव को खाएगा तो उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जाएगी. उस दिन से वह स्थान हिंसा शून्य बन गया. वहाँ कोई भी किसी जीव की ह्त्या नहीं कर सकता. महर्षि सौभरि हमेशा जल के भीतर समाधि लगाकर तपस्या करते थे. वहाँ एकबार उन्होंने एक मछली के जोड़े को योनक्रीडा भोग करते देखा. इसने ऋषि पर अपना असर डाला. उनके मन में संकल्प उठा की ये जलचर जंतु होकर कैसा सुखभोग कर रहे हैं. हम तो मनुष्य का शरीर पाकर भी इस सुख से वंचित हैं. यह विचार आते ही ऋषि समाधि, प्राणायाम सब भूल गये. वह जल से बाहर आ गये. उन दिनों अयोध्या में राजा मान्धाता का राज्य था. ऋषि उनके पास पहुँचे. राजा ने उनका बहुत सत्कार कर आने का कारण पूछा. ऋषि ने कहा मैं गृहस्थ सुख का उपभोग करना चाहता हूँ. तुम एक कन्या का विवाह मुझ से कर दो. यह सुनकर राजा चकित रह गया. उसने सोचा कि इतने बूढ़े ऋषि को इस उम्र में क्या सूझी और इसे अपनी कन्या कैसे दे दूँ. लेकिन उसे मना करने की हिम्मत नहीं हुयी. राजा ने एक चाल चली. बहुत विनम्रता से हाथ जोड़कर उसने कहा कि मेरे अंत:पुर में आपके लिए कोई रोक-टोक तो है नहीं. आप भीतर पधारें. मेरी पचास पुत्रियों में जो आपको पसंद करे उसे ही आप से ब्याह दूँगा. राजा ने सोचा की मेरी युवती कन्याएँ इस बूढ़े ऋषि को क्योंकर पसंद करेंगी. जब वे पसंद नहीं करेंगी तो यह खुद ही लौट जाएँगे. महर्षि तो सर्वज्ञ थे. उन्होंने राजा के भाव को ताड़ लिया. तपस्या के बल से उन्होंने तत्काल अपना रूप एक सुन्दर युवक का बना लिया. रनिवास में राजा की सभी पुत्रियाँ उन पर मोहित हो गयीं. राजा के लिए बड़ी आफत खड़ी हो गयी. उसने सभी पुत्रियाँ उनको अर्पित कर दीं. उन्हें लेकर महर्षि अपने आश्रम पर आये और विश्वकर्मा को आज्ञा दी की जल्दी पचास महल बना दें. यह काम भी तुरंत हो गया. महलों में सभी सुख-भोग के सामान थे. ऋषि योगबल से पचास रूप बनाकर सभी पत्नियों का उपभोग करने लगे. प्रत्येक पत्नी को दस-दस पुत्र हुए. उन पुत्रों के भी पुत्र हो गये. बड़ा परिवार होने से अनेक झंझटें और भौतिक परेशानियाँ होने लगीं. ऐसा होने पर ऋषि को होश आया कि वह क्या कर बैठे. जरा-सा विषयी मछलियों का संसर्ग होने से मैं इतना विषयी बन गया. यह मेरा कैसा पतन हो गया. विषयों के कारण मैं इतनी लम्बी तपस्या से प्राप्त ब्रह्मतेज को खो बैठा. ऋषि वानप्रथाश्रम का पालन करते हुए ब्रह्म में लीन हो गये. सौभरि ऋषि का ह्रदय प्राणिमात्र के लिए दया से परिपूर्ण था. उनके जीवन से दो शिक्षा मिलती हैं. पहली यह की हर जीव के प्रति दया का भाव रखना चाहिए. दूसरी यह की मुक्ति की राह पर चलने वाले को बुरी संगति या बुरा देखने से बचना चाहिए.