धर्मसम्राट स्वामीकरपात्री महाराजजी का “मोहन दास करम चंद गांधी” को पत्र


स्टोरी हाइलाइट्स

सनातन धर्म की प्रचलित मान्यता से आप सहमत नहीं सो ठीक ! मुझे आपको उसे मनवाना भी इष्ट नहीं है । किंतु मेरा तो इतना कहना है कि जैसे ईसाई ,मुसलमान ...

स्वस्ति श्री गांधीजी !नारायण स्मरण! सनातन धर्म की प्रचलित मान्यता से स्वामीकरपात्आप सहमत नहीं सो ठीक ! मुझे आपको उसे मनवाना भी इष्ट नहीं है । किंतु मेरा तो इतना कहना है कि जैसे ईसाई ,मुसलमान आदि को अपने विश्वास के अनुसार ईसाई, इस्लाम धर्म मानने और आचरण करने में स्वतंत्रता है, वैसे ही सनातन धर्म की प्रचलित मान्यता से जो सहमत हैं,उन्हें अपने विश्वास के अनुसार धर्म मानने और आचरण करने में पूर्ण स्वतंत्रता हो ,कानूनी रूकावट न ड़ाली जाय । आपने कहा – धर्मशास्त्र समयानुसार बदलते रहते हैं , इसमें आपका तात्पर्य स्मृतियों की अनेकता और विभिन्नता से है,किन्तु उनकी अनेकता और विभिन्नता समयानुसार परिवर्तन से नहीं, अपितु अनादि वेदादि शास्त्र से सिद्ध तथा उनसे समस्त देश,काल,सम्पत्ति,आपत्ति,सत्य,त्रेता,द्वापर,कलि,आदि भेदमूलक व्यवहार प्रथमतः(पहले से ही)सिद्ध तथा निर्णीत हैं । समयानुसार उनमें कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया और न कभी कोई कर ही सकता है । अन्यथा परिवर्तनवादी परिवर्तनकर्ता किसे कहेगा ?यदि कहें कि हजारो पत्र-पत्रिका,करोड़ों व्यक्ति जिसे मानें उसी को,सो ठीक नहीं, क्योंकि वस्तु के स्वरूप और फल का ज्ञान जिस प्रमाण से हो ,उसी प्रमाण के आधार पर परिवर्तन हो सकता है। धर्म के स्वरूप और फल का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान से नहीं हो सकता है, क्योंकि धर्म के मानने वाले उससे स्वर्ग,नरक,तथा परलोक और जन्मान्तर में सुख दुःख का होना भी मानते हैं ।उनका ज्ञान परिवर्तनकर्ता(संविधान निर्माता)को कैसे हो सकता है? क्योंकि( स्वतःप्रमाण )शास्त्रों के सिवा उनका भी दूसरा साधन ही नहीं है । इसीलिये नेत्र से अज्ञात शाब्दज्ञान के लिये श्रोत (कान) की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान से अज्ञात धर्म को (तत्व के स्वरूप एवं उसके फल को)जानने के लिये शास्त्र ही एकमात्र प्रमाण हैं ।यही कारण है कि प्रत्यक्ष अनुमित वाक्य शास्त्र नहीं हैं। इसीसे आत्मप्रेऱणा को भी शास्त्र नहीं कह सकते। सर्वप्रथम -“तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ”,यह गीतावाक्य और “चोदनालक्षणोsर्थोधर्मः (शास्त्रोक्त विधि-निषेध के अनुसार कर्म करने या न करने की प्रेरणा ही धर्म का लक्षण है)-यह मीमांसासूत्र यही संकेत करते हैं कि शास्त्रोक्त विधि-निषेध सभी समयों के लिये पूर्व निश्चित हैं और शास्त्रोक्त परम्परागत गुरू शिष्य प्रणाली से ही उनका बुद्धि में निश्चय हो पाता है । दूसरे- धर्मशास्त्र को बदलने का अर्थ धर्म को ही बदल देना होगा।ऐसी दशा में उस बदले हुए धर्म के अनुसार फल कौन देगा? मनुष्य कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो ,पर वह संसार के अनन्तानन्त प्राणियों के अनन्तानन्त धर्म तथा उसके फलों को जान ही नहीं सकता,फिर फल देनें की तो बात ही क्या? इसीलिये ईश्वर को ही फलदाता (कर्माध्यक्ष) मानना सिद्ध है । यदि आप धर्म बदल देंगे तब मनुष्य के उस परिवर्तित धर्म को ईश्वर की स्वीकृति चाहिए।उसके बिना करोड़ों मनुष्यों और हजारों पत्र-पत्रिकाओं के मान लेने पर भी वह तथाकथित,जो भी हो-धर्म नहीं कहा जा सकता । इसी से हम सनातनी — सनातन परमात्मा ने सनातन जीवों के सनातन अभ्युदय- निःश्रेयस प्राप्ति के लिये सनातन वेदशास्त्र से जो सनातन मार्ग बताया उसी को सनातन धर्म कहते हैं ।परस्पर विभिन्न दृष्टिकोण रखनेवाले एक दूसरे की प्रवृत्ति से एक-दूसरे के व्यवहार में धर्म का नाश देखें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. अस्तु भले आप मुझसे सहमत न हों,पर स्वतंत्र भारत में हजारो-लाखो बूचड़खानों का बनाया जाना,उसे आपलोगों द्वारा मान्यता देना क्या कलंक नहीं है? फिर अनादि वेदशास्त्रसम्मत वर्णव्यवस्था,विवाह संस्था,मंदिरमर्यादा,और स्पर्शास्पर्श-विवेक को आपलोगों द्वारा कलंक कहकर कानून से नष्टकरना आवश्यक समझना,गोहत्या जैसे महापाप और कलंक को नष्ट करने के लिये कानून बनाना अनावश्यक समझना कितने आश्चर्य की बात है? तस्मात्- पूर्वोक्त सिद्धान्तानुसार आप यह सब न मानें ,तो भी जो माने,उन्हे अपने विश्वासानुसार मानने की वैसी ही स्वतंत्रता होनी चाहिए जैसी आपने ईसाई और इस्लाम को दे रखी है ।। -करपात्री । ।।श्रीहरिः ।। प्रथम श्रावण ११ By: डॉ. कमलेश पाठक जी