क्या ठाकुरवाद के शिकार बने अरुण यादव ? सरयूसुत 


स्टोरी हाइलाइट्स

मध्यप्रदेश में बीजेपी जहां पिछड़े वर्गों की राजनीति कर रही है, वहीं कांग्रेस का राज्य नेतृत्व पिछड़े वर्ग के नेता को भविष्य...

क्या ठाकुरवाद के शिकार बने अरुण यादव ? सरयूसुत  मध्यप्रदेश में बीजेपी जहां पिछड़े वर्गों की राजनीति कर रही है, वहीं कांग्रेस का राज्य नेतृत्व पिछड़े वर्ग के नेता को भविष्य में अपने लिए खतरा मानते हुए किनारे लगाने में लग गया है | लगता है, पिछड़े वर्ग के नेता अरुण यादव ठाकुरवाद का शिकार हो गए हैं | बिना टिकट मिले ही खंडवा से चुनाव लड़ने के लिए ट्विटर पर शुभकामनाएं प्राप्त करने वाले अरुण यादव को तो प्रदेश नेतृत्व द्वारा यह कहा गया कि उनका नाम तो सर्वे में आया ही नहीं |  अरुण यादव ऐसे नेता हैं जो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के साथ ही सांसद और केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं| खंडवा से पहली बार अरुण यादव सांसद बने थे, जब जमुना देवी की शिकायत पर तत्कालीन सांसद कृष्ण मुरारी मोघे लाभ के पद के मामले में फंस गए थे और चुनाव आयोग ने उनकी सदस्यता समाप्त कर दी थी | उसके बाद जो चुनाव हुए, उसमें कांग्रेस से अरुण यादव सांसद बने |  कांग्रेस से खंडवा के लिए तय “प्रत्याशी” अरुण यादव के मुकाबले किसी भी नजरिए से बीस नहीं लगते | जातिगत राजनीति के लिहाज से देखा जाए तब भी यादव और पिछड़ा वर्ग की संख्या लोकसभा में ज्यादा है| राज नारायण सिंह “पुरनी”  ठाकुर हैं और मांधाता सीट से पूर्व में दो बार विधायक रह चुके हैं | साल 2018 में कांग्रेस की टिकट पर मांधाता से जीते नारायण पटेल के भाजपा में शामिल होने के बाद जब उपचुनाव हुए तब उसमें पुरनी के बेटे को विधानसभा टिकट कांग्रेस ने दिया था | बीजेपी विधायक के पार्टी छोड़ने के बाद भी पुरनी के बेटे 20,000 से ज्यादा मतों से अपनी परंपरागत सीट से पराजित हो गए थे | यह सीट खंडवा लोकसभा के अंतर्गत आती है| कांग्रेस ने क्या समीकरण जीत के लिए बनाया है ? और उसके अनुसार प्रत्याशी घोषित किया है यह तो कांग्रेस ही समझ सकती है| विश्लेषक इस रहस्य को समझने में असमर्थ हैं | मध्यप्रदेश में 15 सालों से पिछड़े वर्ग के शिवराज सिंह मुख्यमंत्री हैं | उमा भारती के मध्य प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने के बाद 2003 से मध्य प्रदेश में अभी तक जो भी मुख्यमंत्री बने हैं वह सभी पिछड़े वर्ग के थे| उमा भारती, बाबूलाल गौर और अब शिवराज सिंह सभी पिछड़े वर्ग से आते हैं| जिस प्रदेश में पिछड़े वर्ग की राजनीति इतनी मजबूत और प्रभावी है, उस प्रदेश में कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग के नेता को किनारे लगाने का प्रयास क्यों किया यह समझ के बाहर है |  मध्य प्रदेश की कांग्रेस की राजनीति को देखा जाए तो यहां हमेशा “ठाकुरवाद” हावी रहा है| 80 के दशक में अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के सबसे सशक्त ठाकुर नेता थे, उस समय आदिवासी नेता शिवभानु सिंह सोलंकी का व्यापक जनाधार था| चुनाव के बाद जब मुख्यमंत्री बनने का मामला आया तब शिवभानु सिंह सोलंकी को पीछे ढकेल दिया गया और संजय गांधी के हस्तक्षेप के बाद अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे| ऐसी ही स्थिति 1993 में आई थी जब दिग्विजय सिंह श्यामाचरण शुक्ल और सुभाष यादव के बीच मुख्यमंत्री के पद की खींचतान थी, तब ठाकुरवाद की एकता जीती थी और दिग्विजय सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, और सुभाष यादव को किनारे किया गया था| दिग्विजय सिंह और सुभाष यादव के  राजनीतिक रिश्ते हमेशा खट्टे-मीठे रहे| सुभाष यादव सहकारिता के सबसे बड़े नेता थे उनकी इस ताकत को कांग्रेस के 10 साल के शासन में कमजोर किया गया| 1998 में दोबारा सरकार बनने के बाद तो सुभाष यादव को मंत्री भी नहीं बनाया गया| सुभाष यादव जनाधार वाले नेता थे इसलिए उन्होंने विरोध के अपने तरीके में “जनता” को आधार बनाया, उन्होंने जनता के मुद्दों पर धरना प्रदर्शन शुरू किया | खरगोन के खलघाट में उनका चक्काजाम काफी चर्चित हुआ और बाद में तो उन्होंने शराबबंदी के विरोध में अभियान शुरू किया, जनता के बीच उनके मुद्दों को मिल रहे समर्थन से कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व जागा और फिर सुभाष यादव को दवाब में उपमुख्यमंत्री बनाया गया| सुभाष यादव अकेले  उपमुख्यमंत्री ना रहें इसलिए आदिवासी महिला नेत्री जमुना देवी को भी उपमुख्यमंत्री पद दिया गया, यद्यपि दिग्विजय सिंह और जमुना देवी के रिश्ते कभी भी बहुत अच्छे नहीं रहे, लेकिन सुभाष यादव को लिमिट में रखने के लिए उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद दिया गया| यादव परिवार के साथ राजनीतिक इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है, देश की राजनीति जिस तरह से ओबीसी, एससी, एसटी की तरफ झुक गई है, उसमें किसी भी सामान्य वर्ग के व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में नेतृत्व मिलना बहुत कठिन प्रतीत हो रहा है | मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ ने जिस ढंग से 15 महीने में अपनी सरकार गवाई है, वह दर्द उन्हें लगातार परेशान कर रहा है| कांग्रेस के राज्य नेतृत्व को लगता है कि अगले चुनाव में फिर उनकी सरकार बनेगी और उन्हें ही नेतृत्व का मौका मिलेगा, इसलिए नाथ प्रदेश  कांग्रेस की कमान और नेता प्रतिपक्ष का पद दोनों अपने पास रख कर अपनी योजना को अंजाम देने में लगे हुए हैं| उम्र भले ही उनके खिलाफ हो लेकिन युवाओं को मौका नहीं मिले, ताकि कोई ऐसा अवसर भूले भटके आए तो सभी ओर से उनका ही नाम सबसे आगे आये| देश के वर्तमान राजनीतिक हालातों के मद्देनजर अरुण यादव एक ऐसे नेता हो सकते थे जो भविष्य में रास्ते का काँटा बन सकते थे, इसलिए इस रोढ़े को पहले ही हटाने की सियासी चाल चली गई, और सुभाष यादव की तरह ही अरुण यादव  की भूमिका को सीमित किया गया है | राजनीति तो अनिश्चितता का खेल है, अभी भले अरुण यादव किनारे लग गए हों लेकिन हमेशा किनारे ही रहेंगे, ऐसा सोचना राजनीति में शायद सही नहीं होगा |