क्या भगवान श्रीराम ने अपने प्राणप्रिय भाई लक्ष्मण का वध किया... दिनेश मालवीय 


स्टोरी हाइलाइट्स

कहते हैं कि ज़िन्दगी क़िस्से कहानियों से ज़्यादा विचित्र होती है। Life is stranger than fiction. विधि का विधान बहुत.....भगवान श्रीराम....प्राणप्रिय भाई लक्ष्मण

क्या भगवान श्रीराम ने अपने प्राणप्रिय भाई लक्ष्मण का वध किया... दिनेश मालवीय  लक्ष्मण ने वंश की रक्षा के लिये दे दिये प्राण ऐसा कब, क्यों और कैसे हुआ विधि का विचित्र विधा कहते हैं कि ज़िन्दगी क़िस्से कहानियों से ज़्यादा विचित्र होती है। Life is stranger than fiction. विधि का विधान बहुत विचित्र होता है। इससे कोई नहीं बच सकता। आज हम आपके सामने ऐसा ही प्रसंग लेकर आये हैं,जिस पर आपको विश्वास करना कठिन होगा। आप ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते। क्या आप सपने मे भी सोच सकते हैं कि भगवान श्रीराम को अपने जीवन से ज़्यादा प्रेम करने वाले, उनकी सेवा के लिये अपना सब कुछ बलिदान करने वाले और बड़े भाई के लिए हमेशा जान की बाजी लगाने को तत्पर रहने वाले लक्ष्मण का वध श्रीराम कर सकते हैं?  भगवान श्रीराम के हमेशा प्रासंगिक: पढ़िए उनके गुणों पर यह श्रंखला -दिनेश मालवीय   मित्रो, श्रीराम और लक्ष्मण सगे भाई नहीं थे। दोनो की माताएं अलग थी। लेकिन उन दोनो के बीच इतना गहरा प्रेम था कि वे दो जिस्म एक जान थे। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह बड़ी विचित्र बात है कि दोनो भाइयों का स्वभाव एकदम विपरीत था। श्रीराम जहाँ शांत भाव के मूर्तिमान स्वरूप थे,वहीं लक्ष्मण क्रोध और आक्रोश का साक्षात अवतार। बचपन से ही लक्ष्मण ने श्रीराम को अपना सब कुछ माना था। वह उन्हें अपना माता, पिता,  गुरु, मित्र,  स्वामी सब कुछ मानते थे। श्रीराम की नि:स्वार्थ सेवा ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था। श्रीराम के अभियान में वह कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ रहे। भगवान श्रीराम ने हनुमान जी को बताया था कलयुग से जुड़ा ये रहस्य, कर देगा अचंभित इसी तरह श्रीराम भी लक्ष्मण को प्राणों से अधिक प्रेम करते थे। उनके मन के भाव समझकर उनकी हर इच्छा को पूरा करते थे। जब भगवान श्रीराम को वनवास हुआ, तो लक्ष्मण ने उनके साथ जाने का निर्णय लेने मे एक क्षण नहीं लगाया। श्रीराम ने बहुत समझाया लेकिन उन्होंने कहा कि आपसे अलग रहकर तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है। लक्ष्मण ने जब अपनी माता सुमित्रा से श्रीराम के साथ वन जाने की आज्ञा माँगी तो उन्होनें तत्काल हाँ कर दी। सुमित्रा जी ने कहा कि यदि राम और सीता वन जा रहे हैं तो तुम्हारा कोई काम नहीं है। दो महीने बाद पर्यटकों के लिए फिर से खुले स्मारक, लेकिन जानिए कैसे मिल सकता है टिकट और क्या हैं नियम.. नाटकीय घटनाक्रम रावण वध और लंका विजय के बाद श्रीराम अयोध्या नरेश बने। लक्ष्मण उनके सिपहसालार और सबसे विश्वस्त सहयोगी थे। जब श्रीराम के परमधाम जाने का समय निकट आया, तो ब्रह्माजी का संदेश लेकर काल देवता श्रीराम के पास आये। इस विषय उनके बीच परम गोपनीय चर्चा होनी थी। काल ने श्रीराम से एकांत मे ब्रह्मा का संदेश सुनने को कहा। उन्होंने श्रीराम से यह प्रतीज्ञा करवाई कि उन दोनो के बीच तीसरा व्यक्ति आने पर श्रीराम स्वयं उसका वध कर देंगे। श्रीराम ने लक्ष्मण को पहरे पर लगाकर आदेश दिया कि किसी भी हाल मे किसीको भी अंदर न आने दिया जाये। जब काल और श्रीराम की वार्ता चल रही थी, तभी ऋषि दुर्वासा द्वार पर आ पहुँचे। उन्होंने कहा कि उन्हें तत्काल श्रीराम से मिलना है। लक्ष्मण ने कहा कि अभी श्रीराम किसी से बहुत गुप्त वार्तालाप कर रहे हैं, आप कृपया थोड़ी प्रतीक्षा कर लें। ऋषि दुर्वासा अपने विनाशक क्रोध के लिये जगत विख्यात थे। ऋषि ने कहा कि यदि तुमने मुझे तत्काल श्रीराम से नहीं मिलने दिया, तो मैं तुम्हारे पूरे वंश का नाश कर दूँगा लक्ष्मण का परिवार के लिये त्याग अपने वंश -परिवार के जीवन की रक्षा के लिये लक्ष्मण ने अपने प्राण संकट मे डाल दिये। वह ऋषि दुर्वासा के आगमन और उनकी धमकी की बात बताने भीतर गये जहाँ श्रीराम और काल की वार्ता चल रही थी। लक्ष्मण जानते थे कि ऐसा करने पर उनकी मृत्यु निश्चित है। उन्होंने सोचा कि वंश के नष्ट होने से अच्छा है कि उनके ही प्राण चले जाएँ।   श्रीराम की दुविधा काल की शर्त के अनुसार, वार्ता के बीच आने वाले का वध स्वयं श्रीराम को करना था। लेकिन संकोच यह था कि अपने प्राण प्रिय भाई का वध कैसे करें।   ऐसी स्थिति मे कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ ने उन्हें उपाय बताया। वसिष्ठजी ने कहा कि आप लक्ष्मण के वध स्वरूप उनका परित्याग कर दो। किसी प्रियजन का त्याग उसके वध के समान ही होता है। श्रीराम ने ऐसा ही किया।   श्रीराम द्वारा त्याग दिये जाने के बाद लक्ष्मण के जीवन का कोई प्रयोजन ही नहीं रहा। लक्ष्मण घर न जाकर सीधे सरयू नदी के तट पर गये। उन्होंने आचमन कर सभी इंद्रियों को केन्द्रित और वश मे करके प्राण वायु को रोककर सांस लेना बंद कर दिया। इससे वह शरीर सहित स्वर्ग पहुँच गये।   इस प्रकार हम देखते हैं कि विधि का विधान बहुत गूढ़ होता है। इसके वशीभूत ऐसे घटनाक्रम हो जाते हैं, जिनकी सपने में भी कल्पना नहीं होती। और..! भयभीत जरासंध श्रीकृष्णार्पणमस्तु -27