क्या ईश्वर की भक्ति से दुःख दूर हो जाते हैं -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

दुनिया में हर कोई सुख चाहता है. दुःख पाना कोई नहीं चाहता. फिर भी दुनिया में हर कोई किसी न किसी दुःख को सह रहा है..........

क्या ईश्वर की भक्ति से दुःख दूर हो जाते हैं- दिनेश मालवीय   दुनिया में हर कोई सुख चाहता है. दुःख पाना कोई नहीं चाहता. फिर भी दुनिया में हर कोई किसी न किसी दुःख को सह रहा है. किसी को बीमारी का दुःख है, किसी को संतान न होने का दुःख, किसीको गरीबी का दुःख, किसीको बच्चों के बिगड़ जाने का दुःख, किसी को मनमाफिक पत्नी या पति न मिलने का दुःख, किसी को कुछ पाकर खो जाने का दुःख. इस प्रकार दुनिया में हज़ारों प्रकार के दुःख हैं. हर कोई इन दुखों से छुटकारा पाना चाहता है. भगवान् बुद्ध को जो तीव्र वैराग्य जागा था, उसका एक बड़ा कारण यह भी था कि उन्होंने देखा कि उनके चारों तरफ लोग दुःख ही भोग रहे हैं. उन्होंने मनुष्य को दुःख से छुटकारा दीलाने के लिए ज्ञान की साधना की. अब सवाल उठता है कि क्या मनुष्य को दुखों से छुटकारा मिल गया. जबाव है, नहीं. क्योंकि जिसे बुद्ध जैसा परम ज्ञान हो जाता है, उसे तो इससे छुटकारा मिल जाता है, लेकिन यह ज्ञान सबको नहीं होता. लिहाजा हर कोई दुखी ही बना रहता है. संत - महात्माओं से दुःख दूर करने का उपाय पूछने पर वे यही कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति ही एक मात्र उपाय है. तो क्या ईश्वर की भक्ति करने से दुःख दूर हो जाते हैं ? इस विषय पर थोड़ा गहराई से जाकर विचार करना होगा. दुःख है क्या ? दुःख बहुत हद तक एक दृष्टिकोण या समझ है. अधिकतर दुःख तो हमारे माने हुए होते हैं. दुःख हमारा अहसास है. यदि हमारा दृष्टिकोण बदल जाए, तो अनेक प्रकार के दुःख तो वैसे ही अपना अस्तित्व खो देंगे. हमारे देश में ‘विधि का विधान’ की जो अवधारणा दी गयी है, उसके पीछे यही सोच है कि मनुष्य दुःख को कम महसूस करे. मान लीजिये कि कोई व्यक्ति बहुत गंभीर रूप से बीमार है. कोई भी दवा नहीं लग रही ही. कोई भी डॉक्टर कुछ नहीं कर पा रहा है. ऐसे में यदि वह विधि के विधान की धारणा पर विश्वास रखता होगा तो यही सोचेगा कि क्या किया जाए, यह विधि का विधान है. विधि का विधान यानी उसके द्वारा पहले किये गए कर्मों का फल. ऐसा भाव रखने से वह अपने दुःख के लिए न दवाओं को दोषी ठहराएगा और न डॉक्टर्स को और न किसी अन्य को. वह ईश्वर से अपना दुःख दूर करने की प्रार्थना करेगा. इससे उसे दुःख का अहसास कम होगा. अधिकतर मामलों में दुःख की वजह हमारी सोच ही होती है. हम अपने चारों तरफ देखते हैं कि लोग अपने दुःख से कम और दूसरों के सुख से अधिक दुखी हैं. दूसरे को दुःख में देखकर लोग हर्षित होते हैं और दूसरों का दुःख देखकर प्रसन्न. यह एक ऐसा मानसिक रोग है, जो पूरी दुनिया के लोगों को अपनी जकड़ में लिए हुए है. यही आदमी के दुःख का मुख्य कारण भी है. सभी धर्मों और उनके संतों का प्रयास यही होता है कि आदमी के दुःख को किसी तरह कम किया जाए. इसी के चलते उन्होंने अनेक विधियाँ और उपाय निश्चित किये हैं. ईश्वर की भक्ति करने वाला व्यक्ति अपने दुख को भी ईश्वर की इच्छा मानकर उसे स्वीकार करता है. इसके लिए वह किसी और को दोषी नहीं ठहराता. जो ईश्वर का भक्त नहीं होता, वह हमेशा अपने दुखों, परेशानियों, कष्टों और असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है. उसे रास्ते में किसी पत्थर से ठोकर लग जाये तो वह गालियाँ बककर दूसरों को इसका दोषी ठहराता है. ईश्वर का भक्त यह मानता है कि उसकी ही गलती है कि वह देखकर नहीं चल रहा. इसलिए उसे ठोकर लगने का दुःख कम होगा. बुजुर्ग लोग कहते रहे हैं कि ईश्वर की भक्ति करने या किसी संत की कृपा मिलने से यदि किसी को तलवार की चोट लगनी हो तो, उसे सुई चुभकर रह जाती है. इसका सीधा अर्थ तो यही लगाया जाता है कि यदि आपको कोई बड़ा दुःख मिलना हो तो, ईश्वर या संत कि कृपा से छोटा दुःख मिलता है. लेकिन इस विषय को गहराई से समझने वाले इस बात के पीछे के रहस्य को जानते हैं. यदि तलवार लगना किसी का प्रारब्ध है, यानी उसके किसी पिछले कर्म के कारण यह निर्धारित ही है कि उसे तलवार लगेगी, तो तलवार लगेगी है. इसे कोई नहीं टाल सकता. बहरहाल उसे तलवार लगने से होने वाली पीड़ा सुई से होने वाली पीड़ा के बराबर होगी. इसीलिए कहा गया है कि ईश्वर की भक्ति करने से दुःख दूर हो जाते हैं. इसका कुल जमा मतलब यही है कि जब आप अपने दुख का कारण किसी दूसरे को नहीं मानते और इसे ईश्वर की इच्छा मानकर सहज स्वीकार कर लेते हैं, तो दुःख नहीं होता या कम होता है. ईश्वर की तरफ से कर्म-फल का विधान निश्चित किया गया है, जिसे वह स्वयं भी नहीं बदलते. दुःख तो होंगे, लेकिन भक्ति करने से दुखों का अहसास कम होगा या बिलकुल नहीं होगा. इस संदर्भ में महाभारत में कुंती का उदाहरण उल्लेखित किया जा सकता है, कुंती ने भगवान् से दुःख का ही वरदान माँगा. कुंती का कहना था कि सुख में उसे ईश्वर की निकटता कम प्राप्त होती है. दुःख में वह ईश्वर के अधिक निकट होती है. रंतिदेव की कथा भी आती है. वह ईश्वर वरदान माँगते हैं कि संसार के सारे दुःख मुझे दे दें. इससे वह ईश्वर के अधिक निकट हो सकेंगे. जो इस रहस्य को समझ जाता है, वह बड़े से बड़ा दुःख मिलने पर भी दुखी नहीं होता.