सब पांवों से चलते हैं, मुंह से खाते हैं, फिर फर्क कहाँ है ? दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

दुनिया के सारे मनुष्य पांवों से चलते हैं, मुंह से खाते हैं, आँखों से देखते हैं, कान से सुनते हैं, नाक से सांस लेते हैं..

सब पांवों से चलते हैं, मुंह से खाते हैं, फिर फर्क कहाँ है ? दिनेश मालवीय दुनिया के सारे मनुष्य पांवों से चलते हैं, मुंह से खाते हैं, आँखों से देखते हैं, कान से सुनते हैं, नाक से सांस लेते हैं, जवान से स्वाद लेते हैं. सारे कार्यों के लिए सारे अंग निर्धारित हैं. उनकी बनावट में थोडा-बहुत फर्क भले ही रहते हो, लेकिन सबके बेसिक फंक्शन एक ही हैं. इन सारी कर्मेंद्रियों के अलावा ज्ञानेन्द्रियाँ भी एक जैसे काम करती हैं. सभी दिमाग से सोचते हैं, ज्ञान को ग्रहण करते हैं, कल्पना करते हैं, ज्ञान को अभिव्यक्ति करते हैं आदि. संसार में करीब साढ़े सात सौ लोग हैं. अब सवाल उठता है कि यह सब कुछ समान होने पर लोगों में भिन्नता क्या और क्यों है ?  पांव से चलते हैं, लेकिन सबकी चाल अलग हैं, मुंह से खाते हैं, लेकिन खानपान अलग है, कान से सुनते हैं, लेकिन सब एक जैसा नहीं सुनते और एक जैसा सुनना नहीं चाहते, नाक से सांस लेते हैं, लेकिन सबकी सांस की गति एक जैसी नहीं होती, जवान से स्वाद लेते हैं, लेकिन हर किसी को अलग-अलग स्वाद अच्छे लगते हैं. बाहरी रूप से सब कुछ एक जैसा होने पर भी इतनी भिन्नता क्यों है. इसका जवाब ज्ञानियों, संतों और ऋषियों ने खोजा है. आजकल तो मनोवैज्ञानिक और मनस्विद भी इस विषय पर गहरा शोध कर रहे हैं. हालांकि यह बात पूरी तरह उनकी समझ में आ सकेगा, इस में संशय है. ऋषि-मुनियों ने इस गूढ़ विषय को यदि समझा तो उसके लिए उन्होंने गहन आत्म-साधना और आत्मानुसंधान किया था. यह पढ़-लिखकर या सोच-विचार कर समझ आने वाला विषय नहीं है. इसकी एक निर्धारित प्रक्रिया है. जिस तरह लकड़ी में अग्नि होती है, दूध में मक्खन होता है,तिल में तेल होता है, उसी तरह यह ज्ञान भी अव्यक्त है. इसे एक ख़ास प्रक्रिया द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता है. कोई यदि भौतिक शास्त्र का ज्ञाता बनना चाहता है, तो उसे सिर्फ “भौतिक शास्त्र, भौतिक शास्त्र” रटने से इसका ज्ञान नहीं हो सकता. कोई यदि रसायनशास्त्री बनना चाहता है तो सिर्फ “रसायन शास्त्र, रसायन शास्त्र” रटने से वह रसायनशास्त्री नहीं बन सकता. इसी तरह मनुष्यों में बाहरी समानता होने पर भी व्यापक भिन्नता क्यों है, इसे जानने-समझने के लिए आध्यात्मिक प्रक्रियाओं का सहारा लेना होगा. दरअसल हर व्यक्ति शरीर न होकर एक चेतना है. शरीर तो चेतना की अभियव्यक्ति का माध्यम है. व्यक्ति शरीर में है, लेकिन शरीर नहीं है. हर व्यक्ति की चेतना की अपनी-अपनी यात्रा है. अनेक योनियों में जन्म लेकर मनुष्य जन्म मिलता है. वर्तमान जन्म से पहले वह जिस योनि में रहा होगा, उसकी चाल, उसका खानपान, सांस लेने की प्रक्रिया, सोचने का ढंग आदि सभी कुछ उसकी पिछली योनियों के अनुसार होगा. यदि वह मनुष्य योनी में रहा होगा, तो उसने पिछले जीवन में क्या पढ़ा-लिखा, क्या सुना , क्या सीखा, किस प्रकार के कार्य किये, किन लोगों के साथ रहा, किस तरह का जीवन बिताया, इस सबका उसके इस जीवन पर सीधा-सीधा प्रभाव होगा. हम देखते हैं कि हर व्यक्ति जन्म के समय से ही अपने साथ कुछ प्रवृत्तियां लेकर आता है. हर बच्चे का अलग रुझान, व्यवहार और स्वभाव होता है. एक ही परिवार में जन्म लेने और एक ही परिवेश में पलने-बढ़ने के बावजूद उनके स्वभाव,रुझान और गतिविधियाँ एक जैसी नहीं रहतीं.  इसका सीधा सम्बन्ध उनके पिछली जीवनयात्रा से है. कोई लाख कोशिश करके भी उन्हें नहीं बदल सकता. कोई बच्चा बहुत शरारती होता है. उसे सुधारने के लिए माता-पिता बहुत कोशिश करते हैं. मारते-पीटते भी हैं, समझाइश भी देते हैं लेकिन उसके स्वभाव में कोई फर्क नहीं आता. इसके विपरीत कोई बच्चा बहुत सीधा-सादा होता है. उसके माता-पिता उसे चंट-चालाक बनाने और उसके सीधेपन को कम करने की बहुत कोशिश करते हैं, लेकिन उसमें कोई बदलाव नहीं आता. हालाकि इस जन्म में उसके भीतर जो संस्कार विकसित होते हैं या जिस परिवेश में वह पलता-बढ़ता है, उसके कारण एक उम्र के बाद उसमें पिछले संस्कार क्षीण होने लगते हैं और वर्तमान संस्कार प्रबल होने लगते हैं. इसके कारण उसके स्वभाव, रुझान और व्यवहार में बदलाव भी आना शुरू हो जाते हैं. फिर भी पिछले जन्म से अर्जित संस्कारों की प्रबलता उसमें कम नहीं होती. यही कारण है कि बाहरी रूप से एक जैसा होने के बावजूद लोगों के भीतर बहुत भिन्नता होती है. दुनिया में ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने कोशिश की कि सभी लोग अच्छे, सच्चे और नेक बन जाएँ. लेकिन यह संभव ही नहीं है. दुनिया में दोनों तरह के लोग हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे. महापुरुषों की सदाशयता भी कुछ असर दिखाती है, लेकिन यह असर बहुत ऊपरी होता है. महात्मा गांधी के बहुत निकट रहने वाले लोगों में भी यह देखा गया है कि उनके व्यवहार में जो बदलाव आया वह बहुत उथला और ऊपरी था. पिछले संस्कारों के उदय होते ही वे अपने पुराने रूप में आने में देर नहीं लगाते थे. ऐसा सभी महापुरुषों के साथ होता है.