जनजाति समाज की आस्था, परंपरा एवं संस्कृति


स्टोरी हाइलाइट्स

ज्नजाति समाज यह विचार पोषित करता है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा नहीं मरती किन्तु नये शरीर में चली जाती है

जनजाति समाज की आस्था, परंपरा एवं संस्कृति ज्नजाति समाज यह विचार पोषित करता है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा नहीं मरती किन्तु नये शरीर में चली जाती है और अगला जन्म पूर्व जन्म के कृत्यों और आचरणों पर निर्भर करता है। तात्कालीन बस्तर में सबसे अधिक पूजे जाने वाले देवता शिव थे। शिव की पत्नि की उपासना भी जुड़ी जो विविध नामों से पुकारी जाती है। विन्ध्यवासिनी या माणिक्येश्वरी को रक्तमय बलि की अपेक्षा करने वाली विकराल देवी माना जाता था, जहां पार्वती और उमा की कल्पना स्नेहमयी जननी के रूप में की गई थी। बस्तर में विष्णु पुजा ‘‘नारायण‘‘ के रूप् में ही प्रचलित थी। 1111 ई. के अभिलेख से ज्ञात होता है कि नाग-महारानी गुण्डमहादेवी ने नारायण देव की पूजा के लिए स्वमेव ‘‘नारायणपुर‘‘ ग्राम को मंदिर को समर्पित किया था। 1324 र्इ्र. के एक अभिलेख के अनुसार विष्णु के अंतिम अवतार ‘‘कलंका नारायण‘‘ की प्राण प्रतिष्ठा टेकरा नामक स्थान में की गई थी। नारायण के इन मंदिरों की पूरे देश में प्रतिष्ठा थी और कोने कोने से तीर्थ यात्री यहां आया करते थे। बस्तर 15वीं श्ताब्दी तक भ्रमरकोट या चक्रकोट के रूप् में ही प्रचलित था। अन्नदेव के वंशजों ने 16वीं शताब्दी में जब बस्तर ग्राम को राजधानी बनाया उसी के बाद राजधानी के नाम से पूरे अंचल का नामकरण बस्तर हो गया। 14वीं शताब्दी में चक्रकोट राष्ट बन गया तो उसके अंदर अनेक राज्य सम्मिलित हो गयो और वह अनेक राज्यों में बट गया। इस प्रकार नाग युग में कोट या राज्य प्रमुख प्रशासकीय क्षेत्र थे, जो नाडु में विभाजित थे। इनमें से कुछ नाडु आकार में लघु तथा विशाल थे। नाडु के आधाार पर क्षेत्रीय विभाजन की यह परंपरा 1224 ई. तक मिलती है। नाडंु प्रमुख प्रशासकीय संभाग थे जिन्हंे परवर्ती अभिलेखों में ‘‘मंडल‘‘ कहा गया है। कालान्तर में सोमेश्वर देव प्रथम जो कि 1069 ई. में चक्रकोट के राजसिंहोसन में बैठा था उसने चक्रकोट मंडल तथा भ्रमरकोट मंडल जो कि बस्तर के दो प्रमुख संभाग थे दोनो को मिलाकर एक राष्ट की नीव डाली। ये मंडल जिलों में विभाजित थे जिन्हें अभिलेखों में वाडि कहा गया है। चूंिक चक्रकोट राष्ट नानाजनाकीर्ण थाा इसलिए प्रशासकीय सुविधा के लिए ये जिले जाति वर्णो के आधार पर बनाये गये थे- जैसे- कुम्हारवाड, मोचिवाड, कंसारवाड, कल्लालवाड, तेलीवाड, पारियारवाड, चमारवाड व छिपवाड अतः उपयुक्त नामों से स्पष्ट है कि पूर्व मध्ययुगीन बस्तर आठ व्यावसायिक वर्ग के जिलों में विभाजित थे। वाड या जिलों का विभाजन महानगर पुर तथा ग्राम के रूप में था। संस्कृत शब्द पुर तथा द्रविड़ शब्द उरू समानार्थी है तथा ये ऐसी वस्ती के वाचक है जो अधिक सुरक्षित हों और जहां राजधानी रहीं हो। इस प्रकार की बस्तीयों में बारसुरू, ओरपुरू, राजपुर तथा नारायणपुर प्रसिद्ध थीं। बारसुरू तथा राजपुर नागों की राजधानियां थी और नारायणपुर (नारायणपाल) एक बहुत बड़े धार्मिक केन्द्र के रूप् में विकसित हो चुका था। सामान्य बस्ती क्षेत्रों को अभिलेखों में वाड़ा ,ग्राम तथा स्थान कहा गया है। संस्कृत शब्द वाट का शाब्दिक अर्थ है- ऐसा सुनियोजित ग्राम जहां घर पंक्तिबद्ध हों। दंतेवाड़ा एक ऐसा ही सुनियोजित ग्राम 1061 ई. में विकसित हो चुका था। जिसमें घर एक पंक्ति में सुनियोजित ढंग से बनाये गये थे। सामान्य बस्ती की दूसरी कोटि उन गा्रमों की है जिन्हें अभिलेखांे में ग्राम गांव या नाडु नार कहा गया है। जिस प्रकार जिला स्तर का शासक व्यावसायिक वर्गों के अनुसार था उसी प्रकार ग्रामों की बसाहट धार्मिक सम्प्रदायों पर आधारित थी। छिन्दक नागों की राजधानी ‘‘बारसुरू ‘‘ एक मनोरम नगरी थी। शिव इस नगरी के अराध्य देव थे। प्रसिद्ध तेलुगु-चोड़-महामाण्डलिक ने इस नगरी के सौदर्य को बढ़ाने के लिए अथक प्रयास किया था। यहां पर उन्होंने अपने नामकरण के साथ चन्द्रादित्य मंदिर, चंद्रादित्य सरोवर, चंद्रादित्य नंदनवल का निर्माण करवाया था। यह नगरी मंदिरों , सरोवरों तथा अनेक बगीचों से दुल्हन की तरह सजी रहती थी और इसी कारण शतु्र राजवंशों ने इसे कई बार तहस नहस किया और नागों ने इसे बाार बार सजाया।चक्रकोट शासन के प्रशासकीय क्षेत्रों का उत्तराधारक्रम राष्ट अथवा देश कोट अथवा महामण्डल अथवा राज्य नाडु अथवा मंडल आधुनिक संभाग वाडि अथवा विषय आधुनिक जिला महानगर पुर ग्राम वाड़ नाडुया ग्राम, गाव, नार राजा के अधीन प्रशासकीय क्षेत्रों के विविध अधिकारियों का उत्तराधिकार क्रम- महाराजा राष्ट का अधिपति महामाण्डलिक अथवा महामण्डलेश्वर महामण्डलों का शासक माण्डलिक मण्डल का स्वामी विषयपति विषय का शासक ग्राम नायक ग्राम का शासक पूर्व मध्ययुगीन बस्तर का प्रमुख धर्म शैव था तथा शैवदर्शन की यहां प्रमुख शाखाएं या मत-मतांतर विकसित हो चुके थे, जिनमें कापालिक, कौल,तथा शाक्य प्रमुख थे। इनमें प्रत्येक मत तो यह स्वीकार करता है कि शिव विश्व के परमेश्वर हैं तथा मोक्ष का प्रमुख मार्ग भक्ति है, किन्तु भक्ति के स्वरूप, अर्चना के माध्यम, आचारसंहिता की विधि एवं सांस्काकि विधियों में इन मतों में विभेदकता मिलती है। डॉ आशुतोष मण्डावी