युवा पीढ़ी के लिए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. कलाम सा. का दिशा बोध


स्टोरी हाइलाइट्स

स्व. डॉ. कलाम सा. विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे उनकी जीवन शैली युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी व उत्साहवर्धक रही है। राष्ट्रीय चरित्र से परिपूर्ण उनका व्यक....

युवा पीढ़ी के लिए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. कलाम सा. का दिशा बोध   स्व. डॉ. कलाम सा. विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे उनकी जीवन शैली युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी व उत्साहवर्धक रही है। राष्ट्रीय चरित्र से परिपूर्ण उनका व्यक्तित्व सदैव एक प्रकाश स्तम्भ के रुप में नई पीढ़ी को आलोकित करता रहा है। मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए वे सदैव तत्पर रहा करते थे। उनका कर्म में अटूट विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि किसी वस्तु की इच्छा कर लेने मात्र से ही वह उपलब्ध नहीं हो पाती अपितु इच्छा शक्ति के लिए कठोर परिश्रम व प्रयत्न आवश्यक है। उपलब्धियां तभी अर्जित होती हैं जब कर्म, विचार और भावना का धु्रवीकरण हो। ‘‘संघर्ष ही जीवन है’’ के सिद्धान्त को मानने वाले कलाम साहब कहा करते थे ‘‘ जीवन में महत्वूपर्ण चीज विराम नहीं अपितु संघर्ष हैं मुख्य बात जीतना नहीं बल्कि अच्छी तरह झूझना है। दृढ़ इच्छा शक्ति और श्रम के प्रति आस्था हो तो आतशी शीशा खुद ब खुद मिल जाता है। स्व. डॉ. कलाम सा. विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे उनकी जीवन शैली युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी व उत्साहवर्धक रही है। राष्ट्रीय चरित्र से परिपूर्ण उनका व्यक्तित्व सदैव एक प्रकाश स्तम्भ के रुप में नई पीढ़ी को आलोकित करता रहा है। मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए वे सदैव तत्पर रहा करते थे। उनका कर्म में अटूट विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि किसी वस्तु की इच्छा कर लेने मात्र से ही वह उपलब्ध नहीं हो पाती अपितु इच्छा शक्ति के लिए कठोर परिश्रम व प्रयत्न आवश्यक है। उपलब्धियां तभी अर्जित होती हैं जब कर्म, विचार और भावना का धु्रवीकरण हो। ‘‘संघर्ष ही जीवन है’’ के सिद्धान्त को मानने वाले कलाम साहब कहा करते थे ‘‘ जीवन में महत्वूपर्ण चीज विराम नहीं अपितु संघर्ष हैं मुख्य बात जीतना नहीं बल्कि अच्छी तरह झूझना है। दृढ़ इच्छा शक्ति और श्रम के प्रति आस्था हो तो आतशी शीशा खुद ब खुद मिल जाता है। कलाम सा. मुश्किलों का सामना करने में पीछे नहीं रहे। वे जानते थे कि कड़ी मेहनत और दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो मुश्किलें भी हारती है। वे स्वामी विवेकानन्द के इस सूत्र के समर्थक थे कि ‘‘नीति परायण और साहसी तथा धुन के पक्के तथा परिश्रमी बनों। तुम्हारे नैतिक चरित्र में कोई धब्बा न हो। मृत्यु से भी मुठभेड़ करने की हिम्मत रखो।’’ जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए वे जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे अपने वक्तव्यों में सदैव मूल्यों की शिक्षा पर विशेष बल दिया करते थे। वे मानते थे कि समाज और राष्ट्र का उत्थान तभी संभव है जब लोग मानवीय मूल्यों को जीवन में आत्मसात् कर सके। ‘‘मूल्य वे हैं जो मानव की आवश्यकताओ और आकांक्षाओं की सन्तुष्टि करते हैं । मूल्य व विचार, आदर्श एवं समप्रत्यय जिसकी मनुष्य चाहना करता हैं तथा उसकी उपलब्धि के लिये वह सब कुछ कर सकता हैं । मूल्य मानव के प्रयासो के लिये दीप स्तम्भ का कार्य करते हैं।’’ – भुपेन्द्र नाथ दीक्षित ।‘‘ शिक्षा उन समस्त प्रक्रियाओं की समष्टि हैं। जिनके माध्यम से व्यक्ति स्वयं ने योग्यताओं, अभिवृतियों एवं जिस समाज में वह रह रहा हैं। उसमें अन्य सकारात्मक मूल्यों के व्यवहार प्रतिमानो को विकसित करता हैं।’’ – कार्टर वी गुड ।विज्ञान और बुद्धिवाद की मान्यताओ ने मानवीय आदर्शवादिता को गहरा आघात पहुॅचाया हैं और सांस्कृतिक मूल्यो के विनाश का उपक्रम खडा किया हैं । मूल्यों की शिक्षा का उद्धेश्य वैयक्तिक जीवन में शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना हैं । अपनी छोटी-छोटी आदतें यदि परिष्कृत हैं तो उसका प्रभाव परिवार, पडोस से प्रारम्भ होकर दूर तक फैलता हैं । व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य व्यवस्थित, चरित्रवान, सद्गुणी, सद्प्रवृति सम्पन्न हो । समय की पाबन्दी, नियमितता, श्रमशीलता, स्वच्छता, वस्तुओ की व्यवस्था जैसी छोटी-छोटी आदतें व्यक्तित्व को निखारती, उभारती हैं । व्यक्तित्व की दृष्टि, आस्था और आकांक्षाओ का स्तर निकृष्ट हो जाने से उसका चिन्तन व कृर्तृत्व विकृत हो गया हैं। आलसी और उत्साही, कायर और वीर, दीन और समृद्ध, दुर्गुणी और सद्गुणी, तिरस्कृत और प्रतिष्ठित, पापी और पुण्यात्मा, अशिक्षित और विद्वान, तुच्छ और महान्, का जो आकाश-पाताल का अन्तर हैं इसका प्रमुख कारण मानव की मानसिक स्थिति हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा हैं। ‘‘ शिक्षा तुम्हारे दिमाग में भरी जाने वाली सूचनाओ की मात्रा नहीं हैं जो वहॉं सडती रहती हैं और जीवन भर पचती नहीं हैं । हमें जीवन बनाने वाला, मानव बनाने वाला, चरित्र बनाने वाला विचारो का रेचन चाहिये । हमें वह शिक्षा चाहिये जिससे कि चरित्र बनता हैं, मन की शान्ति बढती हैं । प्रतिभा का विस्तार होता हैं और आदमी अपने पैरो पर खडा हो सकता हैं ।’’ सभ्यता और संस्कृति का सम्बन्ध अटूट हैं। लेकिन आज हम अपनी सभ्यता व संस्कृति से दूर हो गये हैं कारण हमारे जीवन मूल्यो का पतन होता जा रहा हैं । हमारे पूर्व राष्ट्रपति महामहिम स्व. डॉं. कलाम सा.ने अपने देश के लोगो की स्वच्छन्द वृति पर टिप्पणी करते हुये कहा था कि ‘‘ सिंगापुर में आप अपनी सिगरेट का टुकडा सडक पर नहीं फेंकते और स्टोर में खाते भी नहीं हैं । आप शाम पॉच से आठ बजे के बीच आर्थड रोड पर कार चलाने का तकरीबन साठ रुपये भुगतान करते हैं । आपने सिंगापुर में अगर पार्किग में निर्धारित समय से ज्यादा गाडी खडी की हैं तो टिकिट पंच कराते हैं लेकिन आप कुछ नहीं कहते हैं, क्यों ? दुबई में आप रमजान के दिनो में सार्वजनिक रुप से कुछ भी खाने का साहस नहीं करते । जेहाद में बिना सिर ढके बाहर नहीं निकलते । वाशिंगटन में आप पचपन मील प्रति घन्टा से ऊपर गाडी चलाने की हिमाकत नहीं करते और पलट कर सिपाही से यह भी नहीं कहते कि जानता हैं मैं कौन हूॅं, फलॉ हूॅं और फलॉ मेरा बाप हैं । आस्ट्रेलिया और न्यूजीलेण्ड के समुद्री तटों पर आप खाली नारियल हवा में नहीं उॅछालते । टोकियो में आप सडको पर पान की पीक नहीं थूॅकते । बोस्टन में आप जाली योग्यता प्रमाण-पत्र क्यों नहीं खरीदतें । आप दूसरे देशो की व्यवस्था का आदर और पालन कर सकते हैं। लेकिन अपनी व्यवस्था का नहीं । भारतीय धरती पर कदम रखते ही आप सिगरेट का टुकडा जहॉं तहॉं फेंकते हैं । कागज के पुर्जे उछालते हैं । यदि आप पराये देश में प्रशंसनीय नागरिक हो सकते हैं तो आप भारत में ऐसे क्यों नहीं बन सकते । अमीर लोग अपने कुत्तों को सडको पर घुमाने निकालते हैं और जहॉं तहॉं गन्दगी बिखेर कर आ जाते हैं । फिर वहीं लोग सडको पर गन्दगी के लिये प्रशासन पर दोष मॅंढते हैं । क्या वे उम्मीद करते हैं कि वे जब भी बाहर निकलेंगे तो एक अधिकारी झाउू लेकर पीछे-पीछे चलेगा और जब उनके कुत्ते को हाजत लगेगी तो वह एक कटोरा उसके पीछे लगायेगा ? जापान और अमेरिका में कुत्ते के मालिक को उसकी छोडी हुयी गन्दगी साफ करनी पडती हैं।’’ आज देश के प्रत्येक नागरिक को इस दिशा में चिन्तन व चिन्ता करनी चाहिए। परिवार मानव की प्रथम पाठशाला हैं । बालक परिवार से ही संस्कार अर्जित करता हैं। मेजिनी के अनुसार बालक को प्रथम पाठ मां के चुम्बन और पिता के प्यार से सीखने को मिलता हैं। अतः परिजनों का पारिवारिक परिवेश बालक को सुसंस्कृत बनाने में महती भूमिका का निर्वहन करता हैं । परिवार में ही बालक में दया, ममता, स्नेह, उदारता, क्षमा, प्यार और सेवा भावना के भाव अंकुरित होते हैं। अतः परिजनो का नैतिक चरित्र अनुकरणीय होना आवश्यक है। परिजन ही बालक के लिए नींव के पत्थर हैं जिस पर बच्चों का भावी भवन खड़ा होकर स्थिर बनता हैं । माता पिता के बाद बालक शिक्षालयो में गुरुजनों के श्रीचरणो में उनकी छाया तले बैठकर सद्गुण अर्जित करता है ।शिक्षण संस्थाओं में आयोजित विभिन्न सहगामी प्रवृतियों द्वारा भी बाल मन को पुष्ट व जागृत कर उसे दिशा प्रदान की जा सकती हैं । शैक्षिक भ्रमण ,बालमेले, स्काउटिंग, साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी चरित्र निर्माण की दृष्टि से हितकर होता हैं । प्रार्थना सभा, साक्षात्कार आदि कार्यक्रमें को विशेष प्राथमिकता दी जानी चाहिये । वर्तमान शैक्षिक पाठचर्या में जीवन विज्ञान विषय भी सम्मिलित हुआ हैं । जो नैतिक मूल्यों के उभारने में अत्यधिक सहायक हैं ।प्राचीन काल में भी बिगडे हुए राजकुमारों में नेतृत्व क्षमता तथा मानवीय मूल्यों के विकास हेतु विष्णु शर्मा जैसे शिक्षको का सानिध्य मिला हैं। नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में विदेशी लोग चरित्र का पाठ पढने के लिए आया करते थे । इतिहास इस बात का साक्षी है । समाज में व्याप्त बुराईयों के निराकरण तथा शासकों व सामाजिकों के नैतिक उत्थान हेतु चारण भाट तथा जागाओं की ओजस्वी वाणी द्वारा जनजागरण का उपक्रम रहा हैं । रामलीला, हरिशचन्द्र नाटक तथा कथा वाचकों द्वारा लोक धुनों के आधार पर जन जीवन में जागरण पैदा हुआ हैं। आज देश को नई चेतना व चिन्तन की आवश्यकता है। ‘‘शिक्षा और चरित्र निर्माण को बॉट कर नही देखा जा सकता हैं । यदि शिक्षा की निष्पिŸा चरित्र निर्माण या व्यक्तित्व निर्माण नहीं हैं तो वह सही नहीं हैं । उसमें कोई न कोई त्रुटि हैं । उस त्रुटि को पूरा करना शिक्षा से जुडे हुये लोगो का काम हैं । विद्यार्थी में बौद्धिक विकास के साथ-साथ अनुशासन, सहिष्णुता, ईमानदारी, दायित्वबोध, व्यापक दृष्टिकोण और व्यापक चिन्तन का विकास अवश्य होना चाहिये । आज ऐसा नहीं हो रहा हैं ।’’ -आचार्य महाप्रज्ञपूर्व राष्ट्रपति स्व. डॉ. कलाम सा. की दृष्टि में आज की शिक्षा की सबसे बडी खामी यह हैं कि इसके सामने अनुसरण करने के लिये कोई निश्चित लक्ष्य नहीं हैं । एक चित्रकार अथवा मूर्तिकार जानता हैं कि उसे क्या बनाना हैं तभी वह अपने कार्य में सफल हो पाता हैं । आज शिक्षक को यह स्पष्ट नही हैं वह किस लक्ष्य को लेकर अध्यापन कार्य कर रहा है । सभी प्रकार की शिक्षा का एकमात्र उद्धेश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करना हैं इसके लिये वेदान्त के दर्शन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य निर्माण की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये। डॉ. कलाम सा. के अनुसार देश के भावी नागरिकों को सुशिक्षा द्वारा संस्कारवान बनाया जाना चाहिए। शिक्षक राष्ट्रमन्दिर के कुशल शिल्पी हैं। शिक्षार्थी अनगढ मिट्टी के समान हैं । विद्यालय इनको मजबूत ईटों में ढालने वाली कार्यशाला है । शिक्षा वह विधा हैं, जिनसे इनको ढाला और राष्ट्रमन्दिर को गढा जाता है । नैतिकता एवं मानवीय मूल्य ही वह भाग हैं, जिससे इन कच्ची ईटों को मजबूती व सौन्दर्य प्राप्त होता हैं। अन्यथा इसके अभाव में गढाई की सुन्दरता के बाद भी कच्चापन अवश्यम्भावी है।मानवीय मूल्यों के अभाव में लूट खसोट चोरी डकेती आतंक तथा उग्रवाद का बोलबाला हो रहा है और भ्रष्टाचार व्यभिचार दिनोंदिन बढता जा रहा है । आज मनुष्य मनुष्य का दुश्मन बन गया हैं । और जनसमुदाय में आपाधापी का बोलबाला हो गया हैं । मानवीय संवेदनाओ के अभाव में आज प्रकृति के प्रति भी लोगों का कू्रर व्यवहार बढता जा रहा हैं । फलस्वरुप प्रकृति भी रुठ गयी हैं और मानव मात्र भय आतंक पीड़ा और दरिद्रता के कगार पर पहुंच गया है । सामाजिक जीवन बडा ही भयावह बनता जा रहा है । दुराचार, भ्रष्टाचार, बेईमानी और कु्ररता का दानव आतंकित कर रहा है । छल कपट, दुराचार, दुष्टता और अनाचार से पारस्परिक प्रेम व्यवहार घटता जा रहा है । अतः पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों में ऐसी विषय सामग्री का समावेश हो जो बालक को सुनागरिकता का पाठ पढा सके । ऐसी पाठ्य सामग्री का अन्त हो जो दूध में पानी के मिलावट से लाभ वाला ज्ञान बताता हैं। पन्ना धाय, कर्मवती, दुर्गावती तथा झांसी की रानी के पाठ प्रसंगों से नारी चेतना का भाव पाठ्य सामग्री में बहुलता से प्रसतुत किया जाये स्वस्थ मनुष्य में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता हैं अतः योग प्राणायम को भी अनिवार्यतः शिक्षण में समाहित किया जाये । हमारे इतिहास पुरुष महामानवों की जीवन शैली से बालको को अवगत कराया जाये । शैक्षिक गतिविधियों द्वारा अनुशासन, शारीरिक श्रम, सहकारिता तथा भाईचारें की भावना को प्रोतसाहित किया जाये संस्कार शिविरों तथा व्यक्तित्व विकास के आयोजन, प्रेरक पुरुषों के वक्तव्य तथा समूह भावना को उद्ववेलित करने वाले आयोजन अधिकाधिक हो ताकि आज का बालक कल का संस्कारवान नागरिक बन सके और मानवीय मूल्यो की स्थापना से राष्ट्रीय चरित्र का उत्थान हो सके । स्व. डॉ. कलाम सा. सदैव कर्म में विश्वास रखते हुए युवाओं का हमेशा मार्ग प्रशस्त करते रहे थे। वर्तमान शिक्षा प्रणाली को जीवनोन्मुखी बनाने का उनका सद् प्रयास रहा है। नयी पीढ़ी को कर्मरत रहकर राष्ट्रनिर्माण की सीख सदैव देते रहे। सच्चे राष्ट्र भक्त के रुप में युवाओं को नैतिक आचरण की दिशा में प्रवृत्त करने तथा उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण जागृत करने का प्रयास रहा है। निरन्तर आगे बढ़ते रहने, राष्ट्रहित में कार्यरत रहकर नवजागरण की दिशा में अपना मूल्यवान योगदान देते रहे है। जीवन में प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए सदैव उनका उद्बोधन विद्यार्थियों को उद्वेलित करता रहा वे कहा करते थे। ‘‘सफलता अर्जित करने के लिए प्रगाढ़ जिज्ञासा, काम करते रहने की ललक, दूर दर्शिता और कठोर परिश्रम की आवश्यकता है। सफल होने के लिए प्रतीक्षा की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि इन्तजार करने वाला सिर्फ इतना ही पाता हैं जितना कोशिश करने वाला छोड़ जाता है। डॉ. कलाम सा. की मान्यता थी कि कठिन परिस्थितियों के आने पर साहस और आत्मविश्वास के साथ सामना करना और उन पर सफलता पाना ईश्वर प्रदत्त गुण है। ध्येय को पाने का प्रयास करते रहना, आत्मा की लौ को आलोकित करना और घनघोर अंधकार में भी आत्मिक आलोक बनाये रखना जीवन को धन्य रखने के सिद्धान्त है। किसी भी देश का समुचित विकास उसके कर्मशील नागरिकों पर निर्भर है। निकम्मों से देश का विकास नहीं होता है। स्मरण रहे इब्राहिम लिंकन ने उस स्कूल के प्रिंसिपल को पत्र लिखा था जिसमें उनका पुत्र पढ़ता था ‘‘ यदि सिखा सको तो यह सिखाना कि बिना परिश्रम के प्राप्त हुए पाँच डॉलर की अपेक्षा कमाया हुआ एक डॉलर भी कहीं अिंधक मूल्यवान है। युवा शक्ति के प्रेरणा स्त्रोत श्रेष्ठ शिक्षक महान कर्मयोगी, कुशल वैज्ञानिक, राष्ट्रभक्त, भारत के महामहिम पूर्व राष्ट्रपति के रुप में देश को अपनी सेवांए प्रदान कर भारत देश को गोरवांवित किया उन्हे शत् शत् नमन। ‘‘कर्म जिनके अच्छे है, किस्मत उनकी दासी है, नियत जिनकी अच्छी हैं घर ही मथुरा, काशी है।’’ शंकर लाल माहेश्वरी