श्रीकृष्ण के सद्गुणों की सुगंध------------श्रीकृष्णार्पणमस्तु -17


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fragrance-of-the-virtues-of-shri-krishna-17 श्रीकृष्ण के सद्गुणों की सुगंध------------श्रीकृष्णार्पणमस्तु -17..................

श्रीकृष्ण के सद्गुणों की सुगंध                                                 श्रीकृष्णार्पणमस्तु -17 रमेश तिवारी  बुद्धिशाली कृष्ण मंदिरों की शरण में जाकर समस्याओं का निदान नहीं ढूंढ़ते थे। वे अपने मस्तिष्क का अत्युत्तम उपयोग करते थे। संपूर्ण संघर्षकाल में कृष्ण ने अपनी मेधा, बुद्धि और तात्कालिक उत्पन्न युक्तियों का सर्वोत्तम उपयोग किया। हमारा उद्देश्य किसी प्रवीण कथावाचक महोदय के समान कथा कहना नहीं। हम राजनीति के संदर्भों मेँ कृष्ण को परिभाषित करने का सर्वथा असंभव प्रयास कर रहे हैं। रुक्मणी प्रसंग में ही देखें - गोमान्तक युद्ध के पूर्व जो राजागण दामघोष, विंद, अनुविंद, गोंणार्द नरेश दरद, दंतवक्र जरासंध की प्रतिछाया बने रहते, वे धीरे धीरे कृष्णानुरागी होने लगे। गोमान्तक में कृष्ण ने दरद का वध किया। परन्तु फुफेरे भाई और गुरुभाई के संबंध को प्रमाण करके विंद और अनुविंद को क्षमा कर दिया। कृष्ण ने रुक्मी को भी नहीं मारा। यहां तक कि जरासंध को भी जाने दिया। कृष्ण की इस बुद्धिमत्ता का लाभ यह हुआ कि संपूर्ण आर्यावर्त में संदेश गया कि कृष्ण शौर्य और शक्तिवान होने के साथ ही के दया क्षमा तथा प्रतिशोध विहीन राजनीति के प्रतीक हैं। इस युद्ध के परिणाम की यशस्वी वायु ने रातों रात आर्यावर्त को कृष्ण की यशोगाथा से परिचित करवा दिया। राजनीति में संदेश का महत्व अधिक होता है। राजा अथवा राजप्रमुख का दृष्टिकोण और आभा मंडल भी प्रजा के विचारों और संतोष, असंतोष को प्रभावित करता है। हम जिस प्रकार अपने गुरु एवं माता के चरित्र में पवित्रता की अपेक्षा करते हैं, वैसे ही प्रजा भी अपने नेतृत्व में ज्ञान, गुण, निष्ठा, नीति, नियत और चरित्र देखती है। इस कथा के कृष्ण में यह सभी गुण हैं। वे सद्गुणों के माध्यम से चमत्कार करते हैं। सिद्धियों से नहीं। कृष्ण, स्वयंवर की तिथि बसंत पंचमी के पूर्व ही नागपुर पहुंच गये। प्रश्न यह कि राजमुकुट विहीन सामान्य नायक, मुकुटधारी राजाओं में बैठेगा कैसे..? यह सब तो सोचा ही होगा। यह सब आर्य परम्परायें थीं। और कृष्ण इन परम्पराओं के महान समर्थक थे। किंतु यह कृष्ण के मित्रों, ब्राह्मणों विद्वानों और ऋषियों के अंदरूनी सहयोग से ही संभव हो सका। साँदीपनी से लेकर उनके शिष्य श्वेतकेतु, पुत्र पुनर्दत्त, ऋषि के श्वसुर रुद्राचार्य, अप्रतिम योद्धा और ऋषि परशुराम, घोर आंगिरस तथा वेद व्यास ने यह कह सकते हैं कि कृष्ण के जीवन को दिशा दी। मुनि गर्गाचार्य की युक्ति से कृष्ण जीवित बच सके। कृष्ण बुद्धशाली ही नहीं। वे बौद्धिक महानुभावों का सम्मानपूर्वक उपयोग करना भी जानते थे। हम बता चुके हैं कि करवीरपुर के कारागार में निरुद्ध रुद्राचार्य, पुनर्दत्त, तथा श्वेतकेतु सहित उद्धव को भी कृष्ण ने ही मुक्त किया था। यही पुरोहित गण रुक्मणी के पिता भीष्मक के पुरोहित भी थे। कृष्ण के आश्रम के समय के परिचित, मित्र उनसे सहानुभूति रखते थे। यही विद्वान रुक्मणि, कृष्ण के मध्य संवादों का संप्रेषण का कार्य कर रहे थे। श्वेतकेतु के दो पट्टशिष्य अप्नव और जह्नु स्वयं संदेश लाते ले जाते थे। बसंत पंचमी के पूर्व ही कृष्ण ने अति विश्वस्त मित्र और महान योद्धा सात्यकि के नेतृत्व में मथुरा से 400 महारथी पहले ही कुंडिडनपुर प्रस्थित कर दिये थे। दूसरी ओर चूंकि जरासंध के आदेश से स्वयंवर हो रहा था। वर और वधु पहले से ही तय थे। जरासंध ने शिशुपाल के पिता दामघोष और भीष्मक को कह दिया था कि किस को आमंत्रित करना है, किसको नहीं। सब कुछ पूर्व निर्धारित था ही। संघर्ष की कोई संभावना थी नही। अत:जो दो चार नरेश आये भी थे। वे नाम मात्र की सेना ही साथ में लाये थे। अनामंत्रितों में मात्र कृष्ण, मथुरा के वीर महारथी और करवीरपुर का कृष्ण भक्त राजा शक्रदेव शामिल था। कृष्ण से उपकृत विंद, अनुविंद की निष्ठा डांवाडोल थी। सबसे बडी़ बात तो यह भी कि कृष्ण मुकुटधारी राजा तो थे नहीं। कृष्ण ने रुक्मणी के दादा कैशिक और पिता भीष्मक से आमंत्रण न मिलने पर आपत्ति की। कहा - मुझको न बुलाते सही.! क्योंकि मैं तो युवराज भी नही हूं, किंतु राजा उग्रसेन को तो आमंत्रित किया ही जाना था। कृष्ण के तर्क अकाट्य थे! कृष्ण ने कहा मैं आपका जामाता बनने तो नहीं आया हूँ.! किंतु.. स्पष्ट समझ लीजिये - मैं रुक्मणी की इच्छा के विरुद्ध विनिमय भी नहीं होने दूंगा। भीष्मक निरुत्तर हो गया। कैशिक, जो कि बिना माता (शुद्धमती) की अपनी पौत्री रुक्मणी को विशेष प्रेम करते थे, कृष्ण को नगर से दूर स्थित अपने प्रासाद में ले गये। वहीं पर कृष्ण की अपार सेना का शिविर था। कैशिक कृष्ण का अभिषेक करना चाहते थे। उनकी एक जागीर बची थी। कृष्ण के अभिषेक के समाचार से जरासंध चौंक गया। सम्पूर्ण वातावरण को भांप कर अब उसने पैंतरा बदला। अपने चंद समर्थकों से कहा। ठीक है! अभी स्वयंवर स्थगित ही कर देते हैं। मित्र राजाओं ने भी स्थिति का आंकलन किया। जरासंध, शिशुपाल और सौभराज शाल्ब को छोड़कर शेष सभी राजा भी कृष्ण के अभिषेक में सम्मिलित हुये। कृष्ण प्रथम बार राजा बने। यद्यपि उन्होंने बाद में यह राज पद स्वत:त्याग दिया। कृष्ण के सम्मान में भोज हुआ। जिसमें जरासंध को भी सम्मिलित होना पडा़। रुक्मिणी ने भोजन परोसा। फिर एक बार जरासंध को बिना युद्ध किये, पराजित कर कृष्ण ने तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता का अद्भुत परिचय दिया। किंतु जरासंध भी रुका नहीं! उसने भी घोषणा कर दी - अब स्वयंवर आगामी बसंत पंचमी पर होगा। ज़रासंध के इस निर्णय से रुक्मी और शिशुपाल क्षुब्ध हो गये। परन्तु (सपत्नी) सौतन के भय से मुक्त हुई रुक्मी की प्रसन्न पत्नी सुव्रता ने रुक्मणी को आलिंगन बद्ध कर लिया। जरासंध का दर्प चकनाचूर तो हो गया। किंतु अब उसने कोई दूसरा षड़यंत्र रचने के लिये अन्य राजाओं को छोड़कर सिर्फ शाल्ब को ही बुलाया। दोनों ने घंटों तक विचार विमर्श किया। आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा। धन्यवाद।