गायत्री मंत्र है सनातन धर्म का सर्वोच्च मंत्र, यह मंत्र महर्षि विश्वामित्र को हुआ प्रकाशित.. दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

सबसे पहले हम यह बताने जा रहे हैं कि, गायत्री मंत्र ' और हिन्दी में इसका अर्थ आपको बतलाते हैं. यह महामंत्र है...

गायत्री मंत्र है सनातन धर्म का सर्वोच्च मंत्र, यह मंत्र महर्षि विश्वामित्र को हुआ प्रकाशित।।

सबसे पहले हम यह बताने जा रहे हैं कि, गायत्री मंत्र ' और हिन्दी में इसका अर्थ आपको बतलाते हैं। यह महामंत्र है- ऊं भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।' इस मंत्र का अर्थ होता है कि “हम सृष्टिकर्ता, प्रकाशमान परमात्मा के तेज का ध्यान करते हैं, परमात्मा का वह तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें”। गायत्री मंत्र हमारी ऋषि परम्परा के महासूर्य कहे जाने वाले  तेजस्वी ऋषि विश्वामित्रजी को प्रकाशित हुआ। महर्षि विश्वामित्र का जीवन बहुत रोचक और प्रेरणादायक है। यह इस बात को सिद्ध करता है कि मनुष्य तप-साधना और दृढ़ संकल्प से क्या नहीं कर सकता। विश्वामित्रजी पहले तो वह तपस्या करके क्षत्रिय से ब्राह्मण बने। इसके बाद उन्होंने राजर्षि औरफिर अपनी तपस्या के पुरुषार्थ से ब्रह्मर्षि की ऊँची आध्यात्मिक पदवी प्राप्त की। ऐसा पुरुषार्थी ऋषि सम्पूर्ण मानव समाज के लिए आदर्श है। वह सप्तर्षियों में अग्रगण्य बने और विश्व का कल्याण करने वाले गायत्री महामंत्र के दृष्टा हुए।

महर्षि विश्वामित्र की राजा से ब्रह्मर्षि बनने की कहानी बहुत रोमांचकारी है। वह क्षत्रिय राजा महाराज गाधि के पुत्र थे। कुरु वंश में जन्म लेने से इन्हें कौशिक भी कहा जाता है। विश्वामित्र बहुत धर्मात्मा और प्रजापालक राजा थे। एक बार वह सेना के साथ जंगल में आखेट करते हुए ऋषि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। वशिष्ठजी ने उनका खूब आतिथि सत्कार किया। विश्वामित्र को बहुत आश्चर्य हुआ कि, उनके साथ आये हज़ारों सैनिकों और पशुओं को वसिष्ठजी ने किस प्रकार भोजनादि से तृप्त कर दिया।वह तो ऋषि हैं और उनके पास कोई साधन-सामग्री भी नहीं रहती। यह कार्य वशिष्ठजी ने अपनी कामधेनु गाय के माध्यम से किया था। वह संसार की किसी भी कामना को पूरा करने में समर्थ थी। पूछने पर वसिष्ठजी ने उन्हें कामधेनु का रहस्य बता दिया। विश्वामित्र के मन में कामधेनु को प्राप्त करने की इच्छा बलबती हो गयी। उन्होंने वसिष्ठजी से कामधेनु गाय देने की याचना की, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। विश्वामित्र ने राजहठ ठान ली और वह उसे बलपूर्वक ले जाने लगे। कामधेनु के प्रभाव से लाखों सैनिक पैदा हो गये। उन्होंने विश्वामित्र को पराजित कर दिया। उनकी सेना भाग खड़ी हुयी। उन्हें बहुत ग्लानि हुयी।

उन्होंने सोचा कि उनके क्षत्रियबल पर धिक्कार है। सच्चा बल तो ब्रह्म्बल है। विश्वामित्र राज-पाट छोड़कर घोर तपस्या करने लगे। तपस्या में उन्हें अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। पहले काम ने मेनका के जरिये बाधा डाली। उसके मोह से निकल कर वह पश्चाताप करने वन में चले गये। वहाँ उन्होंने बहुत कठोर तपस्या की। इसके बाद विश्वामित्र को क्रोध रुपी महाविघ्न का सामना करना पड़ा। त्रिशंकु राजा को गुरु वशिष्ठ का शाप था। विश्वामित्र ने वसिष्ठ के साथ अपने बैर को याद करके उसे यज्ञ करने के लिए कह दिया। यज्ञ में वसिष्ठजी और उनके पुत्र नहीं आये। इस पर क्रोधित होकर  विश्वमित्र ने उनके सभी पुत्रों को मार डाला। वसिष्ठजी शांत रहे। विश्वामित्र को अपनी भूल का अहसास हुआ कि, इस क्रोध के कारण  उनकी तपस्या में बहुत बड़ा विघ्न हुआ है। विश्वामित्र फिर तपस्या में लीन हो गये। उन्हें बोध हुआ कि काम और क्रोध को जीतने के बाद ही व्यक्ति ब्रह्मर्षि बनता है। अभी तक वह महर्षि ही बन पाए थे। उन्हें अनुभव हुआ कि उन्होंने वसिष्ठजी का अनिष्ट किया है। उनकी कामधेनु को भी जबरदस्ती लेने की कोशिश की है। मैंने उनके पुत्रों को मार डाला, तब भी उन्हें क्रोध नहीं आया। मैं भी उन जैसा ही बनूँगा। ऐसा विचार कर वह फिर तप करने लगे।

उनकी घोर तपस्या से ब्रह्माजी उनपर प्रसन्न हुए। उन्होंने विश्वामित्र से वरदान माँगने को कहा। इन्होंने कहा कि यदि उचित समझें तो मुझे ब्रह्मर्षि बनने का वरदान दें। स्वयं वसिष्ठजी मुझे अपने मुँह से ब्रह्मऋषि की उपाधि दें। वसिष्ठजी पहले ही उनकी तपस्या से प्रसन्न हो चुके थे। उन्हें पता चल चुका था कि विश्वामित्र ने काम और क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली है। इसलिए उन्होंने ब्रह्माजी के कहने पर उन्हने ब्रह्मर्षि की उपाधि दी और उन्हें गले लगाया। उन्होंने उन्हें सप्तर्षियों में स्थान दिया। अपने तप के प्रभाव से विश्वामित्र जग में पूज्य हुए। उन्होंने भगवान श्रीराम को वन में ले जाकर उनसे असुरों का वध करवाया। उन्हें “ बला” और “अतिबला” सिद्धियों के साथ ही अनके प्रकार के दिव्य अस्त्र प्रदान किये। विश्वामित्र ने श्रीराम को जनकपुरी ले जाकर सीताजी से उनका विवाह करवाया। उनकी दी हुयी विद्याओं और अस्त्रों के कारण ही श्रीराम तीनों लोकों में आतंक फैलाने वाले रावण का बध कर पाये। गायत्री महामंत्र विश्वामित्रजी के ह्रदय में ही प्रकाशित हुआ, जिसने करोड़ों आध्यात्मिक साधकों के ह्रदय को दिव्य ज्ञान से आलोकित कर दिया और आज भी कर रहा है। गायत्री साधना सर्व शुभफल प्रदान करने वाली है। यह ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की विश्व को अनूठी और अनमोल देन है। इस महामंत्र का जाप करने से मनुष्य की बुद्धि श्रेष्ठ और पवित्र होती है। इसका जाप करने वाले इससे मनुष्य का लोक और परलोक दोनों सुधर जाता है।