हनुमानजी: कर्मयोग के आदर्श


स्टोरी हाइलाइट्स

भारत के आध्यात्मिक दर्शन में कर्तत्व अभिमान के बिना कर्म करने को योग का सबसे ऊँचा स्वरूप बताया गया है

-दिनेश मालवीय भारत के आध्यात्मिक दर्शन में कर्तत्व अभिमान के बिना कर्म करने को योग का सबसे ऊँचा स्वरूप बताया गया है. भगवन श्रीकृष्ण ने इसे मोक्ष का सर्वोत्तम साधन निरूपित किया है. इस योग को समझने में हनुमानजी का जीवन और चरित्र आदर्श है. माता सीता का पता लगाकर और लंका जलाकर जब हनुमानजी लौटते हैं, तब भगवान राम उनसे पूछते हैं कि तुमने समुद्र को लांघकर रावण द्वारा संरक्षित सोने की लंका कैसे जला दी. तुमने राक्षसों को मारा और उनकी वाटिका को उजाड़ दिया. यह कैसे कर पाए? हनुमानजी कहते हैं कि यह आपकी कृपा से हुआ, इसमें मेरी कोई बढ़ाई नहीं है.उनकी इस अभिमानरहित बात में हमारे लिए यह महान संदेश निहित है कि अपनी उपलब्धि प्रभु को समर्पित करके अभिमान से बचा जाए. इस तरह की अभिमान रहित बात हनुमान जैसे सच्चे बलशाली और प्रभु के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित व्यक्ति ही कर सकते हैं. वह एक असंभव-सा कार्य करके लौटे थे, लेकिन अपनी सफलता का सारा श्रेय वे श्रीराम को देते हैं. यही कर्म और धर्म का मर्म है. इधर हम अपनी ओर देखें. अपने अहंकार और कर्तत्व अभिमान के शिकार, हम अपनी हर उपलब्धि पर अपनी पीठ ठोंकते नहीं थकते. हम ऐसे भी कार्य का श्रेय लेने का प्रयास करते हैं, जो हमने किया ही नहीं या जिसमें हमारा न्यून योगदान होता है. हाँ, यह बात अलग है कि जब हमें कोई हमारी उपलब्धि पर बधायी देता है तो हम कहते हैं कि "सब भगवान की कृपा है' या "यह सब आपकी शुभकामनाओं तथा आशीर्वाद का फल है'. लेकिन ऐसा कहते समय हमारे भीतर की अकड़ देखते ही बनती है. हम कुछ करें तो हमें प्रशंसा और मान्यता प्राप्त करने की इच्छा होना भी स्वाभाविक है. लेकिन यह स्वाभाविक होते हुए भी उचित और विवेक सम्मत नहीं है, क्योंकि यही हमारी सारी मुसीबतों, दु:खों, क्लेशों और वृथाभिमान का कारण है. भगवान कृष्ण ने इसे आसक्तियुक्त कर्म कहा है और इसी से बचने का उपदेश दिया है. लेकिन क्या यह संभव है कि हम अपने किसी भी काम में स्वयं को कर्ता न मानें? यह संभव है, हालाकि ज़रा नाजुक और कठिन कार्य है. यह तभी हो सकता है जब हम अपने भीतर अधिष्ठित उस शक्ति को पहचान लें जिसके कारण हमारा शरीर, मन, मस्तिष्क सभी चेतन और कार्यशील हैं. यह वो शक्ति है, जिसके निकल जाने पर हम मिट्टी होकर रह जाते हैं और जिससे हमारे अपने प्रियजन, पुरजन जल्दी से जल्दी शमशान ले जाकर फूंक देते हैं. वह शक्ति जब तक शरीर में रहती है तब तक हम सबके रहते हैं. पत्नी, पुत्र पुत्रियों, बहन, भाई, मित्र, नातोदार सभी अपनी प्रीत उंडेलते हैं.इस शक्ति के बाहर होते ही हम एकदम अवांछित हो गये और हर कोई हमसे तत्काल छुटकारा पाना चाहता है. अपने अकर्ता होने की अनुभूति तब होती है जब हम अपनी इन्द्रियों के आधार पर कार्यशील ईश्वर-सत्ता की इन्द्रियों से पृथक अनुभूति कर लेते हैं. शास्त्र और संत कहते हैं कि ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति, व्यक्ति की प्रत्यक् चेतना जाग्रत होने पर ही होती है. इसे हठयोग में कुण्डलिनी जागरण, वेदान्त में प्रज्ञान की अनुभूति, मंत्र शास्त्र में मंत्र चैतन्यता, तंत्रों में जगदम्बा प्रत्यक्षीकरण तथा भक्ति में आह्लादिनी शक्ति की जागृति कहा जाता है. इस प्रत्यक् चेतना के जागने पर व्यक्ति अपने ही भीतर ईश्वरीय शक्ति को क्रियाशील तथा अपनी क्रियाशीलता में मात्र उसे ही देखता है. वह उसके प्रति समर्पित होकर अपनी ही क्रियाशीलता के प्रति साक्षी हो जाता है. तब उसमें कर्तापन का अभिमान नहीं हो पाता. इस चेतना के जागे बिना व्यक्ति हर कार्य, यहां तक कि पूजा-पाठ, ध्यान, मंत्र जाप, प्रार्थना, उपासना भी कर्ताभाव से करता है. इससे हममें संस्कार पर संस्कार भरते जाते हैं. इसीलिए, गीता सहित सभी सदग्रंथों में व्यक्ति को कर्तत्वाभिमान से रहित होकर कर्म करने का उपदेश दिया गया है. इसे कर्मयोग की संज्ञा दी गई है. लेकिन व्यक्ति अपनी आसक्तियों के कारण "कर्मयोग' को सिर्फ "कर्म करना' मान लेता है. वह अपनी वासनाओं, आकांक्षाओं, अभिमान तथा आसक्ति के वशीभूत होकर रात-दिन काम करता है. वह इसीको कर्मयोग समझता है. कर्मयोग के उपदेश को हम बहुत स्थूल रूप से समझते हैं. एक बार मैंने एक मित्र को बहुत कुशलता से अपना काम करते देख कर उनकी प्रशंसा की तो बोले कि गीता में कहा है कि "कर्म में कुशलता ही योग है'. वेवहगीता के उस श्लोक की अपने पक्ष में व्याख्या कर रहे थे, जिसका तात्पर्य यह है कि "समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है. अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है. इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है।' अब देखिये कि भगवान ने गीता में क्या कहा है और मेरे मित्र ने उसकी क्या व्याख्या कर डाली. गीता का तात्पर्य है कि कर्मों में "योग' ही कुशलता है और वह कह रहे हैं कि अपने कार्य को कुशलता से करना ही योग है. उन मित्र का वह कार्य जरा-सा बिगड़जाता या उसका वांछित प्रतिफल नहीं मिलता तो वह कपड़े फाड़ने लगते क्योंकि उनके कर्म में समत्व भाव नहीं है. प्रत्यक् चेतना जागने पर अपने को अकर्ता जानना सरल हो जाता है. इसके लिए गुरु कृपा सर्वश्रेष्ठ साधन है. वैसे मंत्र जाप तथा अन्य साधनाओं से भी यह जाग जाती है. लेकिन गुरु कृपा इसका श्रेष्ठतम और निरापद उपाय है. अधिकतर लोगों में यह चेतना नहीं जाग पाती. इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सुप्त है. वह सिर्फ बाहर की ओर कार्यरत है, अंतर्मुखी नहीं. जागने पर यह भीतर की ओर क्रियाशील हो जाती है.अधिकतर लोगों को अपने भीतर की इस शक्ति का पता ही नहीं होता और वे इसका प्रयास भी नहीं करते. लेकिन जिनमें थोड़ा भी विवेक है और जो दु:खों से छूटना चाहते हैं, उनके लिए यही एक रामवाण उपाय है कि वे अपने भीतर उस परम चेतना को देखने का उपाय करें, जिससे हमारा अस्तित्व है. पहले तो इसकी कल्पना और भावना ही करनी पड़ेगी. लेकिन जैसे-जैसे हमारा अभ्यास पकता जाएगा, वैसे-वैसे यह हमारी अनुभूति का विषय भी बन सकता है. इसी बीच संभव है कि किसी संत, सदुगुरु, मंत्र की कृपा से पूर्व सद्संस्कारों के बल से हमारी प्रत्यक् चेतना जाग जाए और हम इस शक्ति की अपने भीतर प्रत्यक्ष अनुभूति कर लें. हनुमानजी ने श्री राम से जो कहा उस पर हम मनन करें और प्रयत्न करें कि हमारे भीतर अकर्ता का भाव जाग सके और हम अपनी उपलब्धियों का श्रेय प्रभु को दे सकें. शास्त्र और संत कहते हैं कि इसी में कर्म और धर्म का मर्म है।