किसान आन्दोलन क्या “नाक का सवाल” बन गया है? क्या सचमुच यह किसान आन्दोलन है? -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

This 'but' applies very accurately to the peasant movement that has been going on for the last one and a half months nowadays.

बनते बनते बन रही थी बात लेकिन..... यह ‘लेकिन’ आजकल पिछले लगभग डेढ़ महीने से चल रहे किसान आन्दोलन पर बहुत सटीक रूप से लागू होता है. छठवें दौर की बातचीत में ऐसा लग रहा था कि अब बात बनने वाली है. किसान नेताओं और सरकार के नुमानिदों ने साथ खाना खाया और चाय भी पी. लेकिन फिर वही ‘लेकिन’....... जाने क्या हो गया, कि सातवें दौर की बातचीत में फिर वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति बन गयी. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसान आखिर इन कानूनों को वापस लेने से कम किसी भी बात पर राज़ी ही नहीं हो रहे. वे नए कृषि कानूनों को किसानों के हितों पर कुठाराघात बताकर सरकार पर तानाशाही का आरोप लगा रहे हैं. इधर सरकार इन कानूनों को किसानों की किस्मत बदलने वाला बता रही है. वह आन्दोलनकारियों से बिन्दुवार बातचीत करने और उनके द्वारा सुझाये जाने वाले संशोधनों पर विचार करने पर रजामंदी जता रही है, लेकिन किसान कानून वापस लेने का ही बात पर ही अड़े हुए हैं. इधर देश के बुद्धिजीवी, विचारक और राजनैतिक दलों में भी इन कानूनों को लेकर स्पष्ट विभाजन है. कुछ इसे किसान-विरोधी तो कुछ किसान-हितैषी बता रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि यह गतिरोध को समाप्त होना चाहिए. ऐसी विषम स्थति में इन नए कृषि कानूनों के मुख्य प्रावधानों का विश्लेषण करना समीचीन होगा. पहले हम कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात करते हैं. इसमें दो तरह की व्यवास्था है. पहली यह कि कोई निजी कम्पनी या किसान से दो तरह से कॉन्ट्रैक्ट या संविदा कर सकती है. पहली यह कि किसान अपनी ज़मीन पर ख़ुद खेती करे और इसके लिए जो सामग्री चाहिए वह कम्पनी उसे देगी. किसान और कम्पनी के बीच यह करार होगा कि फसल आने पर कम्पनी कॉन्ट्रैक्ट के दिन जो दर तय होगी, उस दर पर किसान से उपज खरीद लेगी. फसल नहीं होने की स्थिति में किसान को कोई नुकसान नहीं होगा, जो अभी होता है. दूसरी तरह का कॉन्ट्रैक्ट यह होगा कि कम्पनी किसान से एक मुश्त रकम तय कर उसके खेत पर खेती करने का अधिकार ले लेगी. यह राशि दोनों के बीच आपस में तय होगी. फसल अच्छी हो या बुरी या असफल हो जाए, यह रकम कम्पनी द्वारा किसान को देनी ही होगी. विवाद की स्थति में क़ानूनी इन्साफ की व्यवस्था करने को सरकार सहमत है. हम ज़रा सदियों से अपने देश में चली आ रही खेती की व्यवस्था को देखें तो किसी न किसी रूप में यह व्यवस्था हमेशा से लागू रही है. जिन लोगों के पास खेती की ज़मीन है और वे खुद खेती नहीं करते, वे या तो अपनी जमीन जोतने के लिए इसे बटाई या बटिया पर दे देते हैं या किसीको निर्धारित राशि पर किसी को ठेके पर दे देते हैं. बटाई व्यवस्था में खेती करने वाला खेत के मालिक को आधी या जो भी तय हो, वह फसल या पैसा जमीन के मालिक को देता है. ठेके वाली व्यवस्था में जमीन के मालिक को ठेकेदार से हर साल एक निर्धारित रकम मिल जाती है. यह आशंका जतायी जा रही है कि कम्पनियाँ खेत मजदूरों की जगा मशीनों से खेती करवाएंगी, जिससे वे बेरोजगार हो जायेंगे. ऐसा न हो इसके लिए प्रभावी उपयुक्त प्रावधान किये जा सकते हैं. यह भी कहा जा रहा है कि नये क़ानून में किसान अपने खेत से हाथ धो बैठेगा. लेकिन नए क़ानून में जमीन के मालिकाना हक़ का कॉन्ट्रैक्ट में कोई प्रावधान ही नहीं है. किसी भी तरह से कम्पनी किसान की ज़मीन का स्वामित्व नहीं ले सकती. क़ानून में बोनस और प्रीमियम का प्रावधान भी होगा. दलाली की व्यवस्था भी समाप्त हो जाएगी. दूसरी बात यह कि अपने खेत को कॉन्ट्रैक्ट पर देना किसानों के लिए अनिवार्य तो होगा नहीं. जो किसान ऐसा करना चाहें, वो करें, जो नहीं करना चाहते वो इसके लिए स्वतंत्र हैं. करने में यह फायदा है कि खेती में निजी क्षेत्र के माध्यम से अधिक निवेश होगा, जिसकी ज़रुरत बहुत लम्बे समय से महसूस की जा रही है. इससे किसानों की आमदनी और उपज बढ़ेगी. किसान को किसी भी तरह की हानि नहीं है. उसे अपने खेत की उपज का उचित मूल्य मिल सकेगा. न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को लेकर भी बड़ी ज़द्दोजहद चल रही है. आन्दोलनकारियों का कहना है कि एमएसपी के लिए क़ानून बनाया जाए. सरकार आश्वासन दे रही है कि एमएसपी पर खरीदी की व्यवस्था पहले की तरह ही लागू रहेगी. किसान अपनी फसल कहीं भी बेचने के लिए आज़ाद होंगे. आन्दोलनकारी यह शंका जता रहे हैं कि सरकार मंडी व्यवस्था ख़त्म कर देगी. सरकार ने स्पष्ट कहा है कि ऐसा नहीं होगा. बहरहाल, केरल में तो मंडी व्यवस्था है ही नहीं. क्या वहाँ किसानों का शोषण हो रहा है? मंडियां भी रहेंगी. किसान को जहाँ अधिक पैसा मिले वह वहाँ अपनी उपज बेच सकता है. अगर उन्हें किसी दूसरे राज्य में भी ज्यादा दाम मिल रहे हैं, तो वे इसके लिए स्वतंत्र होंगे. इससे तो किसान को ही लाभ होना है. सरकार ने क़ानून में अब दाल, आलू, प्याज, अनाज और खाद्य तेल आदि को आवश्यक वस्तु नियम से निकालकर इसकी स्टॉक सीमा ख़त्म कर दी है. इसके खिलाफ यह तर्क दिया जा रहा है कि इससे जमाखोरी और कालाबाजारी बढ़ेगी. संकट के समय व्यापारी इसका अनुचित लाभ उठाएँगे. लेकिन यह बात याद रखी जानी चाहिए कि सरकार आपातकालीन स्थिति में इनके खिलाफ कदम उठाकर इसे ख़त्म कर सकती  है. सवाल भरोसे का भी बहुत बड़ा है. आन्दोलनकारी सरकार पर इस प्रकार अविश्वास जता रहे हैं, जैसे कि वह कोई विदेशी सरकार हो, जिसका मकसद सिर्फ किसानों का शोषण करना है. इसके उजले पक्ष को भी निष्पक्षता से देखा जाना चाहिए. कानूनों में कोई कमी है, तो उसे दूर किया जा सकता है. विरोध के स्वर ज्यादातर “अम्बानी-अडानी” पर केन्द्रित हैं. यह उचित नहीं लगता. ये लोग कोई चोर-डाकू तो हैं नहीं. ये व्यापारी हैं और देश की अर्थव्यवस्था में उनके योगदान कम नहीं है. यहीं आकर शक पैदा होता है, कि यह विरोध कानूनों का है या अडानी-अम्बानी या मोदी का? यह विरोध कानूनों का कम मोदी सरकार का अधिक लगता है. देश में ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जिनका एकमात्र ‘धर्म’ और दिनचर्या सिर्फ मोदीजी को गाली देना है. मोदी सरकार ने छह साल में अभी तक देश के विकास के जो काम किये हैं, भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार दी है, उसकी सराहना करना तो दूर, वे उल्टे इनमें कुछ न कुछ खामी निकालकर उनका विरोध  करने से नहीं चूकते. जो राजनैतिक दल और बुद्धिजीवी इस आन्दोलन का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें इन कानूनों में किसानों के लिए कोई फायदा नहीं दिख रहा. मज़े की बात यह है कि कुछ साल पहले इनमें से कुछ दल इस तरह के कानूनों की आवश्यकता बता रहे थे. दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि इन क़ानूनों से किसानों को बहुत फायदा होगा, लेकिन सरकार इन्हें किसानों को समझा नहीं पा रही है. इसके अलावा, यह भी सवाल उठता है कि आन्दोलनकारी क्या पूरे देश के किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के (सभी नहीं) आन्दोलनकारी ही किसान हैं, बाकी देश के अलग-अलग अंचलों के किसान क्या किसान नहीं हैं? यदि ये क़ानून सचमुच किसानों के दुश्मन हैं, तो देश के सभी किसानों और उनके सभी संगठनों को आन्दोलनकारियों का समर्थन करना चाहिए. किसान आन्दोलन में जिस तरह की व्यवस्था और मैनेजमेंट हो रहा है, वह किसानों के बूते की बात नहीं है. इसके पीछे निश्चित ही योजनाबद्ध ढंग से कुछ ताकतें काम कर रही हैं. राजनैतिक विचारधाराओं के अनेक ऐसे चेहरे आन्दोलन में दिखाई पड़ रहे हैं, जो एनजीओ के रूप में काम करते हैं. सवाल यह है कि आन्दोलन में पूरे देश के किसान शामिल क्यों नहीं हैं? क्या पंजाब और दिल्ली सरकारों द्वारा आन्दोलन को ताकत मिल रही है. कृषि कानूनों के लोकसभा में प्रस्तुत होने से पहले केंद्र सरकार के सहयोगी अकाली दल की मंत्री ने एनडीए से नाता तोड़कर मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. आन्दोलन की परिस्थितियाँ और विरोध की शुरूआत के साथ ही केंद्र सरकार के विरोधियों का जमावड़ा सारी कहानी कह रहा है. सरकार को चाहिए कि किसान आन्दोलन के पीछे के राजनीतिक और अन्य ताकतों को एक्सपोज करे. किसानों को भी जिद छोड़कर कानूनों में सुधार के लिए स्पष्ट प्रस्ताव सामने रखना चाहिए. आन्दोलन के दोनो पक्ष जितनी जल्दी हो इसका समाधान कर लें, अन्यथा यह आन्दोलन राजनैतिक स्वार्थों की भेट चढ़ सकता है. भारत में आंदोलनों का बहुत शानदार इतिहास रहा है. हमने तो आजादी ही आन्दोलन के जरिये पायी. लोकतंत्र में आन्दोलन करना हर किसी का हक़ है और उसका स्वागत होना चाहिए. लेकिन पहले के आन्दोलनों में इस तरह का शक्ति प्रदर्शन नहीं किया गया. इस किसान आन्दोलन में ताकत दिखाने की तो होड़ लगी है, उससे सवाल उठता है कि यह ताकत वे किसको दिखाना चाहते हैं, जबकि सरकार लगातार बातचीत कर रही है और आगे भी करने को तैयार है. इस तरह पूरे परिदृश्य को देखकर यही लगता है कि सरकार की चर्चा की पहल पर आन्दोलनकारी किसान राष्ट्र हित में संशोधन के लिए स्पष्ट प्रस्ताव न देकर केवल कानूनों को वापस लेने पर अड़े हैं, जो तर्कसंगत नहीं लगता. कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि यह कहीं सरकार और आन्दोलनकारियों के बीच “नाक का सवाल” तो नहीं बन गया है. यदि ऐसा है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा नहीं होना चाहिए. बातचीत के ज़रिये हर समस्या का समाधान हो सकता है, बशर्ते कि दोनों तरफ नीयत साफ़ हो. मैं अपने ही एक शेर के साथ इस लेख को पूरा करना चाहूंगा कि- अगर दोनों तरफ हो कुछ सदाशयता, भली नीयत कोई मसला सुलझने में कहाँ कुछ देर लगती है.