हिन्दू समाज और महिलायें, हिन्दू समाज में स्त्रियों के विशिष्ट स्थान


स्टोरी हाइलाइट्स

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आदि काल से ही सभी देशों और समाजों में स्त्रियां आँतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते चले आ रहे हैं।

हिन्दू समाज में महिलाओं के विशिष्ठ स्थान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक हिन्दू देवता के साथ उस की पत्नी का नाम, चित्र, तथा प्रतिमा का भी वही महत्व  होता है जो देवता के लिये नियुक्त है। पत्नियों का मान सम्मान भी देवता के समान ही होता है और उन्हें केवल विलास का निमित मात्र नहीं समझा जाता। पत्नियों को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है तथा उन के सम्मान में भी मन्त्र और श्लोक कहे जाते हैं। देवियों को भी उन के पतियों की भान्ति वरदान तथा श्राप देने का अधिकार भी प्राप्त है। हिन्दू समाज में स्त्रियों के विशिष्ट स्थान को दर्शाने के लिये मनुस्मृति का निम्नलिखित श्लोक पर्याप्त हैः- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। (मनु स्मृति 3-56) जिस कुल में स्त्रीयाँ पूजित होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं। जहाँ स्त्रीयों का अपमान होता है, वहाँ सभी ज्ञानदि कर्म निष्फल होते हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आदि काल से ही सभी देशों और समाजों में स्त्रियां आँतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते चले आ रहे हैं। हिन्दू समाज में वैदिक काल से ही स्त्रियों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त रही है। वह अपने व्यक्तित्व के विकास के लिये पुरुषों के समान वैदिक पठन पाठन, मनोरंजन के लिये संगीत, नृत्य, और चित्रकला आदि का अभ्यास कर सकती थीं। शास्त्र पठन के इलावा स्त्रियाँ अपनी सुरक्षा के लिये शस्त्र विद्या में भी निपुण हो सकती थीं। वह अध्यात्मिक उन्नति के लिये सन्यासाश्रम में भी रह सकती थीं। स्वतन्त्र आर्थिक निर्भरता के लिये कोई  सा भी व्यवसाय अपने लिये चुन सकती थीं। अपनी रुचि अनुसार अध्यापन, चिकित्सा, नाटक, गणित, खगोलशास्त्र के क्षेत्र में अपना योगदान दे सकती थीं और समय पड़ने पर रानी कैकेयी की तरह अपने पति दशरथ के साथ युद्ध क्षेत्र में सहयोग भी कर सकती थीं। गृहस्थ अथवा संन्यास आश्रम में पति के साथ वनों में भी रह सकती थीं। सीता, अहिल्लया, अरुन्धाती, गार्गी, सावित्री, अनुसूईया आदि कई उल्लेखनीय स्त्रियों के नाम गिनाये जा सकते हैं जिन्हों ने विविध क्षेत्रों में अपना योग दान दिया है। समाज में स्त्रियों के कल्याण के महत्व को समाजशास्त्र के जनक मनु महाराज ने इस प्रकार उजागर किया हैः- शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्। न शोचन्ति नु यत्रता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। (मनु स्मृति 3-57) जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश भोगती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है। किन्तु जहाँ उन्हें किसी तरह का दुःख नहीं होता वह कुल सर्वदा बढ़ता ही रहता है। हिन्दू समाज की तुलना में अन्य समुदायों, धर्मों, सभ्यताओं और देशों में स्थिति पूर्णत्या इस के उलट है। वहाँ स्त्रियों को केवल मनोरंजन और विलास का साधन मान कर हरम के पर्दे के पीछे ही रखा जाता रहा है। उन्हें पुरुषों के समान विद्या पढ़ने से वँचित किया जाता है। और तो और वह सार्वजनिक तौर पर पूजा पाठ भी नहीं कर सकतीं। असमानतायें यहाँ तक हैं कि न्याय क्षेत्र में स्त्रियों की गवाही को पुरूषों के विरुध स्वीकारा भी नहीं जाता। विवाहित सम्बन्ध हिन्दू समाज में स्त्री-पुरुष का विवाहित सम्बन्ध केवन सन्तान उत्पति के लिये ही नहीं, बल्कि समस्त धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में योग दान देने के लिये होता है। कोई भी यज्ञ या अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। इसी लिये पत्नी को धर्मपत्नी कह कर सम्बोधित किया जाता है। अन्य समाजों में प्रेमिका से विवाह करने का प्राविधान केवल शारीरिक सम्बन्धों का अभिप्राय प्रगट करता है किन्तु हिन्दू समाज में ‘जिस से विवाह करो-उसी से प्रेम करो’ का सिद्धान्त कर्तव्यों तथा अध्यात्मिक सम्बन्धों का बोध कराता है। हिन्दू धर्म में सम्बन्ध-विच्छेद (डाइवोर्स) का कोई प्रावधान नहीं। विवाह जीवन-मरण का साथ होता है और व्यवसायिक सम्बन्ध ना हो कर कई जन्मों का धर्मप्रायण सम्बन्ध होता है। पति-पत्नि के अतिरिक्त विवाह के माध्यम से दो परिवारों के कई सदस्यों का समबन्ध भी जुडता है और समाज संगठित होता जाता है। विवाह की सफलता के लिये जरूरी है कि वर तथा वधु के बीच शरीरिक, वैचारिक, आर्थिक तथा सामाजिक रहनसहन में ऐकीकरण हो। थोडी बहुत ऊँच-नीच की कमी धैर्य, सहनशीलता, परिवर्तनशीलता आदि से पूरी करी जा सकती है किन्तु अगर विरोधाभास बहुत ज्यादा हों तो वैवाहिक जीवन और परिवारिक सम्बन्ध असंतोषजनक होते हैं। इसी लिये भावावेश में केवल सौन्दर्य या किसी ऐक पक्ष से प्रभावित होकर वर-वधु के आपस में विवाह करने के बजाये हिन्दू समाज में अधिकतर माता पिता ही यथार्थ तथ्यों की जाँच कर के ही अपनी सन्तान का विवाह संस्कार करवाते हैं। इसे ही जातीय विवाह या अरैंजड मैरिज  कहते हैं। इसी कारण हिन्दू समाज में तलाक आदि बहुत कम होते हैं। स्वयंवर प्रथा हिन्दू कन्याय़ें प्राचीन काल से ही स्वयंवर प्रथा के माध्यम से अपने लिये वर का चुनाव करती रही हैं। उन्हें भरे बाजार नीलाम नहीं किया जाता था। साधारणतया माता पिता ही अपनी सन्तान का विवाह संस्कार करवाते हैं परन्तु कन्याओं को रीति रिवाज रहित गाँधर्व विवाह करने की अनुमति भी रही है जिस को हिन्दू समाज ने मान्यता प्राचीन काल से ही दी हुयी है। आज कल के परिवेश में इसे लव-मेरिज कहा जाता है। किन्तु हिन्दू समाज में निर्लज्जता अक्ष्म्य है। निर्लज औरत को शूर्पणखा का प्रतीक माना जाता है फिर चाहे वह परम सुन्दरी ही क्यों ना हो। सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन करने वाली स्त्री का जीवन सरल नहीं है। इस तथ्य को रामायण की नायिका सीता के संदर्भ में भी देखा जा सकता है जिसे आदर्श पत्नी होते हुये भी केवल एक अपरिचित सन्यासी रूपी रावण को भिक्षा देने के कारण परिवार की मर्यादा का उल्लंधन करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी और परिवार में पुनः वापिस आने के लिये अग्नि परीक्षा से उत्तीर्ण होना पड़ा था। अन्तर्जातीय विवाह हिन्दू इतिहास में अन्तर्जातीय विवाहों का चलन भी रहा है। वेदों के संकलन कर्ता महा ऋषि वेद व्यास अवैवाहित मछवारी कन्या सत्यवती, और पिता ऋषि पराशर की सन्तान थे। इसी सत्यवती से कालान्तर कुरु वंश के क्षत्रिय राजा शान्तनु ने विवाह किया था। शान्तनु की पहली पत्नी गंगा से उन के पुत्र भीष्म थे जिन्हों  स्वेच्छा से प्रतिज्ञा कर के हस्तिनापुर के सिंहासन का त्याग कर दिया था ताकि सत्यवती से उत्पन्न पुत्र उत्तराधिकारी बन सके। ब्राह्मण दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवय्यानी का विवाह क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था। इसी प्रकार ब्राह्मण कन्या शकुन्तला का विवाह भी क्षत्रिय राजा दुष्यन्त से हुआ था। पाँडू पुत्र भीम का विवाह राक्षसी कन्या हिडम्बा से, अर्जुन का विवाह यादव वँशी सुभद्रा तथा नाग कन्या उलूपी के साथ हुआ था। गृह लक्ष्मी की प्रतिमूर्ति परिवार ही ऐसी संस्था है जो समाज के विकास को आगे बढ़ाती है। परिवार में स्त्रियों का योगदान सर्वाधिक तथा केन्द्रीय है। हिन्दू परिवारों में कीर्तिमान के तौर पर ऐक आदर्श गृहणी को ही दर्शाया जाता है। उस की छविगृह लक्ष्मी, आदर्श सहायिका तथा आदर्श संरक्षिता की है। भारतीय स्त्रियों के आदर्श ‘लैला ’ और ‘ज्यूलियट’ के बजाय सीता, सावित्री, गाँधारी, दमयन्ती के चरित्र रखे जाते है। प्रतीक स्वरूप स्त्रियां अपने चरित्र निर्माण के लिये समृद्धि रूपणी लक्ष्मी, विद्या रूपणी सरस्वती या फिर वीरता रूपणी दुर्गा की छवि को कीर्तिमान बना सकती हैं। हमारे इतिहासों में कई शकुन्तला, सीता तथा जीजाबाई जैसी महिलाओं के उल्लेख हैं जिन्हों ने अपने पति से बिछुडने के पश्चात कठिनाइयों में अकेले रह कर भी अपनी सन्तानों को ना केवल पाला, बल्कि उन का मार्ग दर्शन कर के उन्हें वीरता का पाठ भी पढाया। इस संदर्भ में शर्म की बात है कि आज भारत में मदर्स डे मनाने के लिये हमारी युवा पीढी भारत की आदर्श महिलाओं को भुला कर किसी अनजानी और अनामिक विदेशी ‘मदर ’को ही प्रतीक मान पाश्चात्य देशों की भेड चाल में लग रही है। वास्तविक मदर्स डे तो अपनी माता की जन्म तिथि होनी चाहिये। प्राकृतिक असमानतायें हिन्दू मतानुसार स्त्री-पुरुष दोनो के जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष प्राप्ति के साधन भी दोनो के लिये समान हैं। जीवन शैली में पवित्रता, आत्म-नियन्त्रण, आस्था तथा सातविक्ता का होना स्त्री पुरुष दोनो के लिये आवश्यक है। किन्तु हिन्दू समाज स्त्री पुरुष के शरीर की प्राकृतिक विभिन्नताओं के प्रति भी जागरूक है। दोनो के बीच जो मानसिक तथा भावनात्मिक अन्तर हैं उन को भी समझा है। स्त्रियों के शरीर का प्रत्येक अंग उन विषमताओं का प्रगटीकरण करता है। उन्हीं शरीरिक, मानसिक तथा भावनात्मिक असमानताओं पर विचार कर के स्त्री-पुरुषों के लिये अलग अलग कार्य क्षेत्र तथा आचरण का प्रावधान किया गया है। प्रतिदून्दी नहीं, जीवन संगिनी समस्त विश्व में स्त्री पुरुष के आपसी कर्तव्यों में एक परम्परा रही है जिस के फलस्वरूप पुरुष साधन जुटाने का काम करते रहै हैं और स्त्रियाँ साधनों के सदोप्योग का कार्य भार सम्भालती रही हैं। आजकल पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण कुछ लोग स्त्री-पुरुषों में लैंगिक समान्ता का विवाद खडा कर के विषमता पैदा कर रहै हैं। वह इसलिये भ्रम पैदा कर रहै हैं ताकि भारतीय महिलायें पाश्चात्य संस्कृति को अपना लें। स्त्रियाँ पुरुषों से प्रतिस्पर्धा करें और प्रतिदून्दी की तरह अपना अधिकार माँगें। स्त्रियाँ सहयोगिनी बनने के बजाय उन की प्रतिदून्दी बन जायें और हिन्दू समाज में परिवार की आधार शिला ही कमजोर हो जाये। समझने की बात यह है कि जो अल्ट्रा-माडर्न स्त्रियाँ दूसरों को भड़काती हैं वह भी जब अपने लिये वर चुनती हैं तो अपनी निजि क्षमता से उच्च पति ही अपने लिये खोजती हैं। कोई भी कन्या अपने से कम योग्यता या क्षमता वाले व्यक्ति को अपना पति नहीं चुनती। उन की यही आकांक्षा ही उन की ‘फ्रीडम ’ के खोखलेपन को प्रमाणित करती है। पाश्चात्य संस्कृति का असर पाश्चात्य संस्कृति के भ्रमात्मिक प्रभाव के कारण हिन्दू समाज में कुछ दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। कहीं कहीं कुछ हिन्दू महिलायें अपने प्राकृतिक तथा परम्परागत कर्तव्यों से भटक कर अपने लिये नयी पहचान बनाने में जुट गयी हैं। वह घरों में रह कर केवल संतान उत्पन्न करने का निमित मात्र नहीं बनना चाहतीं बल्कि निजि उन्नति और पहचान के मार्ग ढूंड रही हैं जिस के कारण होटल उन के घरों का विकलप बन गये हैं। आर्थिक स्वालम्बन की चाह में स्त्रियाँ नौकरी के लिये घरों से बाहर निकल पडी हैं और घरों का जीवन तनाव तथा थकान पूर्ण बन गया है। घरों में ऐक अशान्ति, अनिशचिता तथा असुरक्षा का वातावरण उभर रहा है। छोटे बच्चे जन्म से ही माता के वात्सल्य के अभाव के कारण निरंकुश और स्वार्थी हो रहे हैं। उन की देख भाल का जिम्मा क्रैश हाउस   या ‘आया’ के ऊपर होने से संताने संस्कार हीन हो रही हैं । जो हिन्दू स्त्रियां अपने प्राकृतिक स्वभाव के साथ खिलवाड कर रही हैं उन्हें सत्यता जानने के लिये कहीं दूर जाने की आवशक्ता नहीं। अपने पडोस में ही देखने से पता चल जाये गा। जिन घरों में महिलायें अपनी सन्तान को क्रैश हाउस  या नौकरों के सहारे छोड कर पाल रही हैं, उन के बच्चे वात्सल्य के अभाव में स्वार्थी, असंवेदनशील, असुरक्षित तथा विक़ृत व्यक्तित्व में उभर रहे हैं। इस के विपरीत जहां सन्तानों को मातृत्व का संरक्षण प्राप्त है वहाँ बच्चे सभी प्रकार से विकसित हो रहे हैं। आप के होंठ भले ही इस सच्चाई को मानने की हिम्मत ना जुटा पायें किन्तु आप की अन्तरात्मा इस तथ्य को अवश्य ही स्वीकार कर ले गी। समस्या का समाधान अपनी पुरानी परम्पराओं की तरफ लौटने में है। महिलाओं की शिक्षा उन के प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप ही होनी चाहिये। नारी शक्ति सर्जन तथा संरक्षण के लिये है धन कमाने के लिये नहीं। आज भारत की महिलायें चाहें तो संसद का सभी सीटों के लिये निर्वाचन में भाग ले सकती हैं। विश्व के कई देशों की महिलायें आज भी इस अधिकार से वँचित हैं। लेकिन आज भारत में ही लिंग भेद के आधार पर महिलाओं को निर्वाचित पदों पर आरक्षण दे कर संसद में बैठाने की योजना बन रही है जो देश, समाज, और परीवार के लिये घातक होगी। ऐक तरफ हमारी संसद कुछ राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बन कर रिमोट कन्ट्रोल के सहारे चले गी तो दूसरी ओर परिवारों के अन्दर प्रतिस्पर्धा के साथ साथ अशान्ति बढती जाये गी। रिमोट कन्ट्रोल का प्रत्यक्ष प्रमाण तो हम देख रहै हैं। हमारे देश की सत्ता ऐक मामूली अंग्रेजी पढी विदेशी मूल की स्त्री के हाथ में है जो हमारे देश पर कुछ गिने चुने स्वार्थी राजनौतिक चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है। उसी के सामने भारत की माडर्न युवतियाँ आरक्षण मांग रही हैं ताकि भारतीय वीरांग्नाओं की माडर्न पीढी अपने देश में स्त्री-पुरूष समानता का स्वाद चख सके। इस से अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है। हमारी किसी भी माडर्न युवती में यह साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर इटली के शासन तन्त्र में कोई महत्वपूर्ण पद ग्रहण कर सके। आज भारत की युवा महिलायें अपने आदर्शों को भूल कर लव-जिहाद का शिकार बन कर अपने और अपने परिवारों के जीवन में विष घोल बैठती हैं। पाशचात्य देशों में स्त्री पुरुष दोनो अपनी निजि रुचि अनुसार चलते हैं तो वैवाहिक जीवन अस्थिर और तनाव पूर्ण है। इस्लामी देशों में स्त्री का अस्तित्व गाडी के पाँचवें टायर जैसा है लेकिन हिन्दू समाज में घर के अन्दर स्त्री प्रधानता है और बाहर पुरुष की। अब अपना रास्ता चुनने के लिये नतीजे प्रत्यक्ष हैं। चाँद शर्मा हिन्दू धर्मविद साभार