कैसे हुई आजादी के बाद युवा पीढियां खोखली, कौन जिम्मेदार है ? दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

कुछ दिन पहले मेरे एक करीबी रिश्तेदार का युवा पुत्र हमारे घर आया. उसने मेरे घर में रखी हुई पुस्तकों को देखा, जिनमें साहित्यिक...

कैसे हुई आजादी के बाद युवा पीढियां खोखली, कौन जिम्मेदार है ? दिनेश मालवीय कैसे हुयीं आजादी के बाद युवा पीढियां खोखली , कौन जिम्मेदार है , देश का पहला शिक्षा मंत्री करीब-करीब अनपढ़ " कुछ दिन पहले मेरे एक करीबी रिश्तेदार का युवा पुत्र हमारे घर आया. उसने मेरे घर में रखी हुई पुस्तकों को देखा, जिनमें साहित्यिक और धार्मिक पुस्तकें मुख्य रूप से थीं. उस लड़के ने एक बहुत अच्छे संस्थान से एमबीए किया था और एक बहुत अच्छी कम्पनी में वरिष्ठ पद पर काम करता है. बहुत अच्छी सैलरी है. मुझे उससे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई. लेकिन थोड़ी ही देर में यह खुशी अवसाद में बदल गयी. उसने “रामचरितमानस” की ओर इशारा करते हुए पूछा कि, “क्यों अंकल, वाल्मीकि द्वारा लिखी हुयी इस रामायण की क्या इम्पोर्टेंस है?” मैंने कहा, “यह रामायण नहीं, रामचरितमानस” है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है”. उसने दोनों में फर्क पूछा, तो मैंने उसकी समझ का अनुसार उसे कुछ बता दिया. वह कुछ समझता कुछ नहीं समझता सुनता रहा. थोड़ी देर बाद वह चला गया. इसके बाद मुझे एक गहरे अवसाद ने घेर लिया. यह कोई पहली घटना नहीं थी. अनेक बार ऐसा हो चुका था कि, अपनी संस्कृति, धर्म, ग्रंन्थों के प्रति नौजवानों की अज्ञानता सामने आई. मैं सोच में पड़कर सोचने लगा. आज के नौजवानों को सिर्फ अपनी पढ़ाई, करियर, बढ़िया पैकेज, कार, फ्लेट, सुन्दर बीबी, बच्चों आदि से मतलब रह गया है. उन्हें अपनी संस्कृति, सभ्यता आदि से जैसे कोई  सरोकार ही  नहीं है. बहरहाल, इधर-उधर से कुछ कचरा उन्हें whatsapp या ऐसे ही किसी माध्यम से मिल जाता है और वे उसे ही सबकुछ मानने लगते हैं. यह कैसे हो गया ? इसके बीज ब्रिटिश शासन के दौरान किये गये बहुत षडयंत्र में छिपे हैं. भारत सिर्फ राजनीतिक रूप से गुलाम नहीं हुआ था. यहाँ ब्रिटिश सत्ता हो जाने के बाद यहाँ की संस्कृति की जड़ें उखाड़ने की कोशिश की गयी, जो बहुत हद तक सफल भी रही. ऐसा वातावरण बना दिया और ऐसा कुप्रचार किया गया कि भारत के नौजवान अपनी ही संस्कृति, अपने धर्म, अपने पूर्वजों और अपने गौरवशाली अतीत को हेय समझने लगे. ऐसी स्थिति बनी कि वे इनसे नफरत तक करने लगे. फलस्वरूप बड़ी संख्या में लोग ईसाई बनने लगे. इस स्थिति में सुधार के लिए अनेक महापुरुष उठ खड़े हुए, जिनमें स्वामी विवेकानद, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद विद्यासागर सहित बड़ी संख्या में ज्ञानवान लोग शामिल थे. इन लोगों को कामयाबी तो मिली, लेकिन बहुत सीमित, क्योंकि षडयंत्र बहुत गहराई तक अपना असर दिखा चुका था. आजादी के बाद बड़ी ग़लती : भारत की आजादी का आन्दोलन सिर्फ देश को राजनीतिक पराधीनता से मुक्त करवाने के लिए नहीं था. इसका बहुत व्यापक उद्देश्य था. स्वतंत्रता सेनानियों का मकसद आज़ाद भारत में एक ऐसे समाज की स्थापना करना था, जिसमें लोग ज्ञानवान हों, जाति-धर्म आधारित भेदभाव से रहित हों, जिन्हें अपनी संस्कृति और गौरवशाली अतीत पर गर्व हो, जीनके लिए देश हित सभी हितों से ऊपर हो और हर नागरिक बहुत सुसंस्कृत हो. इस महान उद्देश्य की पूर्ति के दो सबसे बड़े साधन शिक्षा और संस्कृति हैं. दुर्भाग्य से ये दोनों  ही क्षेत्र ग़लत सोच के शिकार हो गये. आज़ाद भारत में जो नेतृत्व था वह दुनिया की नज़र में अपने आपको बहुत प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष साबित करना चाहता था. वरना क्या कारण था कि पूरी दुनिया में अपनी विद्ववदता का लोहा मनवा चुके महान शिक्षाविद, दार्शनिक और भारतीय धर्म-संस्कृति की गहरी समझ रखने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और अन्य बहुत बड़े विद्वानों के होते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को देश का पहला शिक्षा मंत्री बनाया गया. यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने सिर्फ मदरसे की प्रारम्भक शिक्षा ली थी. उनका जन्म मक्का में हुआ था. वह एक धर्मशास्त्री यानी theologian थे. उन्हें आधुनिक शिक्षा के बारे में जो थोडा-बहुत पता भी था, वह एक नव-स्वतंत्र देश को भविष्य को दिशा देने के लिए ज़रा भी पर्याप्त नहीं था. आध्यात्म को स्कूल-कॉलेज की शिक्षा से अलग कर दिया गया. संस्कृति का नाश इसी तरह आज़ाद भारत में जो साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाएं थीं, वे ऐसे लोगों के हाथों सौंप दी गयीं, जो भारतीय संस्कृति ही नहीं, बल्कि हर उस चीज से नफरत थी, जिस पर भारत को गर्व रहा है. उनका मकसद भारत की विरासत को मिटाकर एक ऎसी पीढ़ी तैयार करना था, जो अपनी सांस्कृतिक विरासत से पूरी तरह कटी हो. समाज भी दोषी इस पतन के लिए सिर्फ सरकार और राजनीति को दोष देना उचित नहीं है. समाज और परिवारों ने भी अपना कर्तव्य नहीं निभाया. संस्कार परिवार को मिलते हैं, लेकिन इस दिशा में हम पूरी तरह नाकाम हो गये. अपनी भौतिक प्रगति के ल्लिये हमने अपनी सांस्कृतिक विरासत को बलिदान कर दिया. आगे क्या  ? इस स्थिति पर सिर्फ विलाप करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला. राजनितिक लोग कुछ करेंगे, इसकी तो उम्मीद ही नहीं की जा सकती. परिवार और समाज को अपने बच्चों को संस्कृति और धर्म से जोड़ना होगा. इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है.