विचारधारा की बली: कम्युनिस्ट और कांग्रेस एक राज्य में समझौता, एक राज्य में आमने-सामने: सरयूसुत मिश्रा


स्टोरी हाइलाइट्स

पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा के चुनाव में राजनीतिक विचारधारा  का खुलेआम कत्लेआम हो रहा है| देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल....

विचारधारा की बली  कम्युनिस्ट और कांग्रेस एक राज्य में समझौता, एक राज्य में आमने-सामने सरयूसुत मिश्रा पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा के चुनाव में राजनीतिक विचारधारा  का खुलेआम कत्लेआम हो रहा है| देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ साझा गठबंधन बनाया है| साझा  गठबंधन की कल कोलकाता में हुई रैली में भाजपा और टीएमसी को हराने का सामूहिक संकल्प लिया गया|  दूसरी तरफ केरल में कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन आमने सामने है| कोलकाता से केरल भले काफी दूरी पर हो लेकिन जो नेता कोलकाता में जिस दल के समर्थन में भाषण दे रहे हैं वही नेता केरल में जाकर उसी दल का विरोध कर रहे हैं| कांग्रेस पार्टी ऐसा पहली बार नहीं कर रही है| इस तरह  विचारधारा का कत्ल कर सत्ता हथियाने का खेल कई बार खेला गया है| महाराष्ट्र में कांग्रेस शिवसेना के साथ हाथ मिलाकर सत्ता की मलाई लूट रही है| मलाई के खिलाड़ी को विचारधारा से क्या लेना देना है?    विचारधारा एक पोस्टर है जो पार्टी की दुकान के सामने खड़ा हुआ है| एक भी मतदाता इस पोस्टर के आधार पर पार्टी मत देता है तो लाभ है अन्यथा पोस्टर लगा है व्यापार कुछ और हो रहा है| राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को समझने में मतदाता का  दिमाग चकराने लगता है| सियासी दल सांप सीढ़ी का खेल खेल रहे हैं| उन्हें लगता है कि जनता क्या करेगी? लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो किसी न किसी और व्यक्ति को सुनना मतदाता की मजबूरी है| पश्चिम बंगाल और केरल में जो खुला अंतर्द्वंद दिखाई पड़ रहा है उस पर एक कल्पना करके देखिए| केरल का मतदाता पश्चिम बंगाल में रहता है, रोजी रोटी के लिए आया है और वह मतदान केरल जाकर करेगा|  पश्चिम बंगाल में उसने कांग्रेस और कम्युनिस्ट गठबंधन के साझा संकल्प को समझा है उसके मुताबिक वह केरल में किस फ्रंट को अपना मत देगा? जब भी विधानसभाओं के चुनाव आते हैं तो इस तरह के राजनीतिक गठबंधन होते हैं,जैसे ही परिणाम आते हैं गठबंधन असफल हो जाता है| फिर एक दूसरे के खिलाफ वक्तव्य सामने आने लगते हैं| राजनेता और राजनीतिक दल देश के लोगों को क्या संदेश दे रहे हैं? मतदाता वायदा करना उसको तोड़ना तो राजनीति का एक अघोषित सिद्धांत सा बन गया है| मतदान के पहले एन केन प्रकारेण मतदाता को लाभान्वित कर मताधिकार प्राप्त करें, सत्ता में आकर फिर अगले चुनाव तक निश्चिंत होकर जिससे चाहे उससे गठबंधन करें|  यह आचरण व्यवहार अगर जनता भी करने लगे देश में शांति व्यवस्था शायद नहीं रह पाए| राजनीतिक लोग समाज की जो सामान्य प्रक्रियाएं हैं उनका भी पालन नहीं करते|  विरोधाभास और वायदा खिलाफी राजनीतिक क्षेत्र में जितनी ज्यादा है उतनी समाज के किसी क्षेत्र में नहीं है| अब तो नेता शब्द सम्मान का विषय बचा ही नहीं है| नेता का नाम आते ही एक ऐसी छवि दिमाग में बनती है| “एन केन प्रकारेण अपना काम करो और फिर जनता को धर्म छोड़ कर आगे बढ़ जाओ” यह प्रवृत्ति समाज के लिए घातक है, देश के लिए घातक है, और इससे जो संदेश जा रहा है वह सारी व्यवस्था के लिए घातक है| यहां तक कि स्वयं राजनेताओं के लिए घातक है| झूठ फरेब और लालच की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए उपलब्धियां मिल भी गई तो जीवन के अंतिम समय में ऐसा लगेगा “जो कुछ भी मिला कुछ भी नहीं था” |