श्रीगणेश द्वारा भक्त वरेण्य को अपने स्वरूप का परिचय


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श्रीगणेश द्वारा भक्त वरेण्य को अपने स्वरूप का परिचय introducing-his-form-to-devotee-varenya-by-shri-ganesh

श्रीगणेश द्वारा भक्त वरेण्य को अपने स्वरूप का परिचय:- शिवे विष्णौ च शक्तौ च सूर्ये मयि नराधिप। याभेदबुद्धियोंगः स सम्यग्योगो मतो मम।। अहमेव जगद्यस्मात् सृजामि पालयामि च। कृत्वा नानाविधं वेषं संहरामि स्वलीलया॥ अहमेव महाविष्णुरहमेव सदाशिवः। अहमेव महाशक्तिरहमेवार्यमा प्रिय॥ अहमेको नृणां नाथो जातः पञ्चविधः पुरा। अज्ञानान्मां न जानन्ति जगत्कारणकारणम्॥ मत्तोऽग्निरापो धरणी मत्त आकाशमारुतौ। ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च लोकपाला दिशो दश॥ वसवो मनवो गावो मनवः पशवोऽपि च। सरितः सागरा यक्षा वृक्षाः पक्षिगणा अपि॥ तथैकविंशतिः स्वर्गा नागा: सप्त वनानि च। मनुष्याः पर्वता: साध्या: सिद्धा रक्षोगणास्तथा॥ अहं साक्षी जगच्चक्षुरलिप्तः सर्वकर्मभिः। अविकारोऽप्रमेयोऽहमव्यक्तो विश्वगोऽव्ययः॥ अहमेव परं ब्रह्माव्ययानन्दात्मकं नृप। मोहयत्यखिलान् माया श्रेष्ठान् मम नरानमून्॥ भगवान् श्रीगणेश कहते हैं - नरेश्वर वरेण्य ! श्रीशिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और मुझ गणेश में जो अभेदबुद्धि रूप योग है, उसी को मैं सम्यक् योग मानता हूँ; क्योंकि मैं ही नाना प्रकार के वेष धारण करके अपनी लीला से जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करता हूँ। प्रिय नरेश! मैं ही महाविष्णु हूँ, मैं ही सदाशिव हूँ, मैं ही महाशक्ति हूँ और मैं ही सूर्य हूँ। मैं अकेला ही समस्त प्राणियों का स्वामी हूँ और पूर्वकाल में पाँच रूप धारण करके प्रकट हुआ था। मैं ही जगत् के कारणों का भी कारण हूँ; किंतु लोग अज्ञानवश मुझे इस रूप में नहीं जानते। मुझसे अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, ब्रह्मा विष्णु, रुद्र, लोकपाल, दसों दिशाएँ, वसु, मनु, मनुपुत्र, गौ, पशु, नदियाँ, समुद्र, यक्ष, वृक्ष, पक्षीगण, इक्कीस स्वर्ग, नाग, सात वन, मनुष्य, पर्वत, साध्यगण, सिद्धगण तथा राक्षसगण उत्पन्न हुए हैं। मैं ही सबका साक्षी जगच्चक्षु (सूर्य) हूँ। मैं सम्पूर्ण कर्मों से कभी लिप्त नहीं होता। मैं निर्विकार, अप्रमेय, अव्यक्त, विश्वव्यापी और अविनाशी हूँ। नरेश्वर! मैं ही अव्यय एवं आनन्द स्वरूप परब्रह्म हूँ। मेरी माया उन सम्पूर्ण श्रेष्ठ मानवों को भी मोह में डाल देती है। अजोऽव्ययोऽहं भूतात्मानादिरीश्वर एव च। आस्थाय त्रिगुणां मायां भवामि बहुयोनिषु॥ अधर्मोपचयो धर्मांपचयो हि यदा भवेत्। साधून् संरक्षितुं दुष्टांस्ताडितुं सम्भवाम्यहम्॥ उच्छिद्याधर्मनिच्यं धर्म संस्थापयामि च। हन्मि दुष्टांश्च दैत्यांश्च नानालीलाकरो मुदा॥ मैं ही अजन्मा, अविनाशी, सर्वभूतात्मा, अनादि ईश्वर हूँ और मैं ही त्रिगुणमयी माया का आश्रय ले अनेक योनियों में प्रकट होता हूँ। जब अधर्म की वृद्धि होती है और धर्म का ह्रास होने लगता है, तब साधुजनों की रक्षा और दुष्टों का वध करने के लिये मैं अवतार लेता हूँ। अधर्मराशि का नाश करके धर्म की स्थापना करता हूँ। दुष्ट दैत्यों को मारता हूँ और सानन्द नाना प्रकार की लीलाएँ करता हूँ। -