जगत सत्य है या मिथ्या? क्या सब कुछ कल्पना है? क्या कहता है भारतीय दर्शन?


स्टोरी हाइलाइट्स

वेदों के अनुसार यह जगत् पूरी तरह व्यवस्थित एवं एक है, भले इस पर शासन करने वाले देवता अनेक हों. इसकी रचना ईश्वर ने पहले से मौजूद जड़ तत्वों से की है.......जगत

जगत सत्य है या मिथ्या? क्या सब कुछ कल्पना है? क्या कहता है भारतीय दर्शन? जगत् सत्य है या असत्य? इस पर बहुत तर्क हैं.  वेदों के अनुसार यह जगत् पूरी तरह व्यवस्थित एवं एक है, भले इस पर शासन करने वाले देवता अनेक हों. इसकी रचना ईश्वर ने पहले से मौजूद जड़ तत्वों से की है. ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में कहा गया है कि जगत् के आरंभ में सत्, असत्, आकाश, अंतरिक्ष आदि नहीं थे. चारों तरफ मात्र अंधेरा था और उसमें सिर्फ वह एक था. उस एक की उत्पत्ति तपस्, जो एक अव्यक्त चेतन था, से हुई और उसी से जगत् का आविर्भाव हुआ. वेद के दूसरे सूक्त में जगत् को आग से उत्पन्न बतलाया गया है. फिर पृथ्वी, आकाश, जल, दिन, रात आदि का प्रादुर्भाव सोम से भी बताया गया है. इस प्रकार वेदों में जगत् की उत्पत्ति के संबंध में कई विचार मिलते हैं. उपनिषद् में जगत् को ब्रह्म की अभिव्यक्ति मानी गयी है. ब्रह्म से ही जगत् का आविर्भाव होता है. ब्रह्म में ही पलता है और अंत में ब्रह्म में ही समाविष्ट हो जाता है.  बृहदारण्कोपनिषद में यह कहा गया है कि ब्रह्म जगत् की सृष्टि कर उसी में समा जाता है. इस प्रकार, ब्रह्म पूरे जगत् में व्याप्त हो जाता है. उपनिषद् में जगत् को ब्रह्म से विकसित मानते हुए यह चर्चा भी की गयी है कि इस विकास क्रम में ब्रह्म सबसे पहले, फिर आकाश, आकाश से हवा और हवा से आग की उत्पत्ति हुई.  उपनिषद् में जगत् के पांच स्तरों के रूप में पंचकोषों का भी वर्णन मिलता है जो अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोष हैं. ये क्रमशः भौतिक पदार्थ वनस्पति, पशु, मनुष्य और जगत् के यथार्थ स्वरूप के स्तर हैं, यहां स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ब्रह्म से जगत् उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार मकड़े के अंदर से धागा. अतः, यह जगत् ब्रह्म के लिए एक खेल है, एक लीला है. इस प्रकार, उपनिषद् में भी जगत को सत्य कहा गया है. गीता भी जगत् को सत्य मानती है. इसके अनुसार यह सारा जगत् भगवान, जो कि श्रीकृष्ण हैं, से उत्पन्न होता है, उसी में स्थित होता है और अंततः प्रलय की अवस्था में उसी में लीन हो जाता है, भगवान की परा और अपरा दो प्रकृतियां हैं जिनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार- ये आठ अपरा प्रकृति के रूप में हैं. यह अपरा प्रकृति अनादिकाल से भगवान से जुड़ी हुई हैं और इसी को आधार मान कर भगवान जगत् की सृष्टि करते हैं, अतः, सृष्टि के प्रारंभ में सब कुछ इसी से उत्पन्न होते हैं और प्रलय में पुनः इसी में समा जाते हैं. इस प्रकार, गीता के अनुसार भगवान ही संपूर्ण जगत् का अवलंबन हैं. उन्हीं में सब कुछ समाहित है. उन्हीं से सब कुछ प्रवर्तित होता है. यही बात श्रीकृष्ण के मुख से इस प्रकार कहलवायी गयी है-“पृथ्वी में मैं गंध हूं और सूर्य तथा चंद्रमा में प्रकाश. मैं सब भूतों का जीवन हूं और तपस्वियों का तप (७/९). मैं ही ऋतु हूं, मैं ही यज्ञ हूं, मैं स्वधा हूं, मैं औषधियां हूं, मंत्र, आज्य, अग्नि और हव्य पदार्थ मैं ही हूं. संसार की गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास स्थान, सुहृद, उत्पत्ति, प्रलय, आधार और अविनाशी बीज मैं ही हूं(९/१६-१८). मैं सब भूतों के भीतर स्थित हूं, मैं उनका आदि, अंत और मध्य हूँ (१०/२०). अक्षय काल हूं, मैं सबको धारण करने वाला विश्वतोमुख हूँ (१०/३३).  चार्वाक दर्शन जगत् के स्रष्टा पर तो विश्वास नहीं करता है, लेकिन जगत् को सत्य मानता है; क्योंकि यह जगत् प्रत्यक्ष है. बौद्ध दर्शन में कई संप्रदाय हैं जिन्होंने जगत् की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की है. माध्यमिक शून्यवाद के अनुसार जगत् शून्यमय है. लेकिन, शून्य का अर्थ यहां किसी वस्तु का पूर्णतः निषेध नहीं बल्कि वर्णनातीत है. इसलिए, इस मत के अनुसार जगत् की प्रतीति तो होती है, लेकिन यह सत्य है या असत्य निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता. यही कारण है कि इसे शून्य कहा जाता है.  यह संप्रदाय बाह्य वस्तु और आंतरिक चेतना दोनों को असत्य मानता है. इसलिए, इसके अनुसार संपूर्ण जगत् और समस्त अनुभव भ्रममात्र है.  दूसरा संप्रदाय योगाचार विज्ञानवाद के अनुसार बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व है तो सिर्फ विज्ञान अर्थात् मन का है. विज्ञान से स्वतंत्र किसी जगत् की सत्ता नहीं है. इस जगत की सत्ता तभी तक है जब तक इसका ज्ञान होता है. ज्ञाता से पृथक जगत की कोई सत्यता नहीं है.  एक तीसरे संप्रदाय सौत्रान्तिक बाह्यानुमेय जगत् और चेतना- दोनों को सत्य मानता है. वैभाषिक बाह्यप्रत्यक्षवाद भी ऐसा ही मानता है, लेकिन दोनों में अंतर यह है कि जहां पहला जगत् को ज्ञान अनुमान के द्वारा मानता है वहां दूसरा इसका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा बतलाता है. इस प्रकार, इस दर्शन में जगत् को सत्य और असत्य दोनों माना गया है. जैन दर्शन जगत् को पूर्णतः सत्य मानता है. इस दर्शन के अनुसार परमाणुओं के परस्पर संयोग और विभाग से जगत् का निर्माण और विनाश होता है. चूंकि ये परमाणु सत्य हैं, इसलिए इनके संयोग से निर्मित यह जगत् भी सत्य है. न्याय-वैशेषिक दर्शन भी जगत् को सत्य मानते हैं. इन दर्शनों के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के परमाणुओं, जो शाश्वत हैं, के संयोग से जगत् का निर्माण होता है और जब ये परमाणु बिखर जाते हैं तो उसका विनाश हो जाता है. लेकिन, ये परमाणु निष्क्रिय और गतिहीन होते हैं, अतः इनमें ईश्वर गति और सक्रियता प्रदान करते हैं. इस प्रकार, परमाणु जगत् का उपादान कारण है और ईश्वर उसका निमित्त कारण. यही कारण है कि सृष्टि और प्रलय ईश्वर की इच्छा से होता है; क्योंकि उसी की इच्छा से इन परमाणुओं का संयोग और बिखराव होता है.  परमाणुओं से जगत् की व्याख्या करने के कारण इस सिद्धांत को परमाणुवाद कहा जाता है. इस परमाणुवाद को मीमांसा दर्शन भी स्वीकार करता है, क्योंकि उसके अनुसार भी यह जगत् परमाणुओं से ही बना है. यहां अंतर इतना है कि वैशेषिक का परमाणु ईश्वर द्वारा संचालित होता है, जबकि मीमांसा का परमाणु ईश्वर द्वारा संचालित नहीं होता है. मीमांसा के अनुसार परमाणु कर्म-नियम के द्वारा, जिसे अपूर्व कहा जाता है, सक्रिय और गतिशील होते हैं जिसके कारण ऐसे जगत् की सृष्टि होती है जिसमें जीवात्मा अपने कर्मों का फल भोग सके. सांख्ययोग दर्शन जगत् की व्याख्या के लिए विकासवाद का सिद्धांत अपनाते हैं. इनके अनुसार दो मूल तत्व हैं जिन्हें पुरुष और प्रकृति कहा जाता है, इस प्रकृति में सत्व, रज और तम- ये तीन गुण हैं जो साम्यावस्था में रहते हैं. लेकिन, जब प्रकृति का संसर्ग पुरुष से होता है तो इन गुणों में एक विक्षोभ पैदा होता है जिसके फलस्वरूप एक गुण दूसरे गुण पर अधिकार प्राप्त करना चाहता है और अधिक बल वाले गुण बलहीन गुणों पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं. इसे विरूप परिवर्तन कहा जाता है. इसी परिवर्तन के कारण विकासवाद का प्रारंभ होता है जिसमें पहले महत् तत्व यानी बुद्धि की उत्पत्ति होती है. फिर इस महत् से अहंकार पैदा होता है जो सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार का होता है. इनमें दूसरे से कुछ उत्पन्न नहीं होता, जबकि पहले से मन, पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा तथा पांच कर्मेंद्रियां हाथ, मुंह, पैर, मलद्वार और जननेंद्रिय उत्पन्न होती हैं तथा तीसरे से शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की पंच तन्मात्राएं. फिर इन्हीं तन्मात्राओं के संयोग से पृथ्वी, अग्रि, वायु, जल और आकाश ये पंचमहाभूत पैदा होते हैं और इन महाभूतों के विभिन्न परिमाणों में मिलने से जगत् की विभिन्न वस्तुओं की उत्पत्ति होती है. इस प्रकार, यह संपूर्ण जगत् प्रकृति का परिणाम है और सत्य है. लेकिन, जगत् की इस सत्यता में अद्वैत वेदांत विश्वास नहीं करता. उसके अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और उसके अतिरिक्त शेष चीजें मिथ्या. इस दर्शन के प्रणेता आचार्य शंकर स्पष्ट घोषणा करते हैं- ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, लेकिन, यह ध्यान देने की बात है कि यहां मिथ्या का अर्थ सर्वथा असत्य होना नहीं है बल्कि इसकी व्यावहारिक सत्यता है. शंकराचार्य सत्ता को तीन श्रेणियों प्रतिभाषिक, व्यावहारिक तथा पारमार्थिक की चर्चा करते हैं और इनमें पहले में स्वप्न, दूसरे में जगत् और तीसरे में ब्रह्म को रखते हैं. इस प्रकार, यहं जगत् स्वप्न के समान बिल्कुल असत्य नहीं है और न ब्रह्म के समान पारमार्थिक रूप से सत्य, इसकी सत्यता इन दोनों के बीच की है, इसलिए व्यावहारिक है. इसका अधिष्ठान ब्रह्म है. यह ब्रह्म पर पर्दा डाल कर उसी प्रकार सत्य दिखायी पड़ता है जिस प्रकार सांप रस्सी पर पर्दा डाल कर सत्य दिखायी पड़ता है, जबकि सांप की कोई सत्यता नहीं होती, सत्यता ब्रह्म की होती है. इसी कारण शंकराचार्य कहते हैं कि यह जगत् ब्रह्म का विवर्त यानी आभास है. लेकिन, विशिष्टाद्वैत जगत को ब्रह्म का विवर्त नहीं मानता. उसके अनुसार यह जगत् सत्य है और ईश्वर की शक्ति प्रकृति का परिणाम है. ईश्वर ने अपने अचित् तत्व से जगत् की सृष्टि की है, इसलिए वे इसका निमित्त और उपादान दोनों कारण हैं. इस प्रकार, अद्वैत वेदांत और बौद्ध दर्शन के शून्यवाद और विज्ञानवाद को छोड़ कर सारे भारतीय दर्शन जगत् को सत्य मानते हैं. डॉ सरोज कुमार  Latest Hindi News के लिए जुड़े रहिये News Puran से.