जैन धर्म में हनुमान चरित -हनुमान बन्दर नहीं, वह गृहस्थ थे -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

 जैन धर्म में हनुमान चरित हनुमान बन्दर नहीं, वह गृहस्थ थे -दिनेश मालवीय भारत में सबसे प्रतिष्ठित लोकदेवता हनुमानजी संस्कृत, हिन्दी और अन्य भाषाओं के अलावा अपभ्रंश की रचनाओं में भी लोकप्रिय हैं.अपभ्रंश भाषा में रचित रामायण “पउमचरिउ” एक जैन ग्रन्थ है. इसकी रचना अपभ्रंश के जैन कवि स्वयंभू ने की है.  इस विषय में जैन मुनि श्रीश्रीरंजन सूरिदेवजी ने बहुत सुंदर लेख लिखा है. स्वयम्भू के अनुसार, चैत्रमास के कृष्णपक्ष की श्रवणनक्षत्र से युक्त अष्टमी को अर्ध रात्रि में पवानान्जय की पत्नी अंजना ने हनुमानजी को जन्म दिया. नवजात शिशु के हाथ-पैरों में हल, कमल, वज्र, मछली आदि शुभ चिन्ह अंकित थे. फलित ज्योतिष के अनुसारये चिन्ह किसी व्यक्ति के भविष्य में महिमाशाली होने के संकेत माने जाते हैं. “पउमचरिउ” के रचयिता ने हनुमानजी का स्मरण ‘भटश्रेष्ठ’ के रूप में किया है. हनुमानजी की पूंछ की बड़ी महिमा थी. इसके प्रचंड पराक्रम से शत्रु काँप जाते थे. इस ग्रन्थ के हनुमानजी की ध्वजा में उनका अपना ही रूप चित्रित था. श्री राम जानते थे कि हनुमान जिसके पक्ष में रहेंगे, उसीकी जीत होगी. ‘हनुरूह’ द्वीप में निवास करने वाले हनुमान सबके प्रिय हैं, लेकिन जब उन्हें क्रोध आता है, तो वह गज की तरह निरंकुश, सिंह की तरह रोषपूर्ण और शनि की  तरह भयावह बन जाते हैं. “पउमचारिउ” के सुन्दरकाण्ड में वर्णन है कि श्रीराम के हृदय में हनुमानजी के प्रति बहुत सम्मान का भाव था. इसी वजह से वह हनुमानजी को अपने आधे आसन पर बैठाते थे. जब आसन के एक ओर हनुमान और दूसरी ओर श्रीराम बैठते तो वे दोनों मनोहोह्क वसंत और कामदेव की तरह शोभित होते थे. स्वयम्भू कवि ने श्रीराम  के मुख से हनुमान की प्रशंसा में ये शब्द कहलवाए हैं- “ आज ही मेरा मनोरथ सफल हुआ है, आज ही मेरे भाग्योदय हुआ है, आज ही मेरी सेना प्रचंड हुयी है; क्योंकि आज ही चिंता-सागर में निमग्न मुझे श्रीहनुमान रूप नाव मिली है. पवनपुत्र के मिलने पर मुझे त्रिलोकीका राज्य ही मिल गया. शत्रु की सेना में हनुमान का भार कोई भी नहीं सम्हाल सकता”. हनुमानजी  द्वारा लंका में अशोकवाटिका को उजाड़े जाने का इस कवि ने बहुत जीवंत और रोचक वर्णन किया है. नागपाश में आबद्ध हनुमानजी ने रावण के दरबार में उपस्थित होकर सीता के सन्दर्भ में जिन शब्दों के द्वारा रावण की भर्त्सना की, उनसे उनके परिष्कृत शास्त्रज्ञानका पता चलता है. इनकी एक बानगी इस प्रकार हैं- ‘ हे रावण! शरीर अन्य है और जीव का स्वभाव अन्य है. धन-धान्य और यौवन- ए सब पराये हैं. घर के स्वजन-परिजन भी पराये हैं. स्त्री भी अपनी नहीं होती. पुत्र भी पराया हो जाता है. इन सबके साथ मेल-मिलाप कुछ ही दिनों का होता है, फिर मरकर सब एकाकी भटकते फिरते हैं. लोग स्वार्थवश मुँह के मीठे और प्रियभाषी होते है. अपने इष्टदेव का धर्म छोड़कर कोई भी अपना नहीं है.” जैन मान्यता के अनुसार हर कल्प में चौबीस तीर्थंकर, बाढ़ चक्रवर्ती, नौ प्रतिनारायण, नौ नारायण और नौ बलभद्र- इस प्रकार तिरसठ शलाका पुरुष होते हैं. इनके अतिरिक्त तिर्र्थान्कारों के चौबीस-चौबीस माता-पिता, नौ नारद, ग्यारह रूद्र, चौबीस कामदेव भी होते हैं. ये सभी उत्तम पदधारी उसी जन्म में या थोड़े से जन्म लेकर परमात्मा बन जाते हैं. हनुमानजी अठारहवें कामदेव थे. वह बन्दर नहीं, बल्कि वानर-वंशी थे. अर्थात, जैन मन के नुसार इनके वंशके राज्य-ध्वज में बन्दर का चिन्ह था, इसलिए इनका कुल वानर-वंश के नाम से विख्यात है. इनके पिता राजकुमार पवनकुमार थे और इनकी माता अंजना थीं. बचपन में एक दिन जब हनुमानजी अपने मामा के विमान में बैठकर आकाश मार्ग से जा रहे थे, तब खेल में उछलकर ए नीची पहाड़ पर गिर पड़े. इससे इनको कोई हानि नहीं हुयी, बल्कि पहाड़ ही टूट गया. इनकी हड्डियाँ वज्र कइ थीं. वह रावण प्रति-नारायण के निकट संबंधी थे. लेकिन जब उसने इनकी नीति-सम्मत सलाह नहीं मानी तो वह श्रीराम के परम सहायक बन गये और उनकी हर प्रकार से सहायता की. वह विद्याधर थे, इसलिए जन्मजात, कुलजात और मन्त्र-सिद्ध सिद्धियों से सम्पन्न थे. जैन मान्यता के अनुसार हनुमानजी बाल-ब्रह्मचारी न होकर गृहस्थ थे. वह बाद में राज-पाट और स्त्री आदि का त्याग कर साधु हो गये और तपस्या करके श्रीराम की भाँती उसी जन्म में त्रैलोक्य-पूजित अनंतकालीन परमात्मा बन गये.