कालसर्पदोष, पितरदोष, देवदोष शमन सर्प भयनिवारण मन्त्र
ॐ जरले नृसिंह करले दूत कालू कालू नृसिंह बैरी खैरदारी तुकमाही नहीं बांधे छः बांधे छः हाकूवाल डाकूवाल बड़ेलबडियाल सांप चोर कांटा गज्जा वाघमूल तुकमाही नहीं बांधे छः राम लक्ष्मण सीतामाता हनुमान नृसिंह से परे हंकार।
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यह मन्त्र जहाँ सर्प हो या सर्प का भय हो वहाँ तीन-चार बार ऊँचे स्वर में पढ़ने पर सर्प नहीं आ सकेगा। जहाँ तक मंत्र का स्वर जायेगा वहाँ तक उस सीमा में सर्प नहीं आयेगा यदि कोई सर्प आवाज की सीमा के अन्दर रह जायेगा तो वह अन्धा हो जायेगा
जब वह स्थान छोड़ देवें तो 'बांधे छः बांधे छः' के स्थान पर खोले छः खोले छः लगाकर उसी प्रकार तीन बार मन्त्र उच्चारण करें तो सर्पों के आवागमन का मार्ग खुल जायेगा यह अनुभूत प्रयोग है।
सर्पभयनाशक मनसा स्तोत्रम्।
जिस स्थान में सर्पभय अधिक रहता है वहाँ पर इस स्तोत्र का पाठ करके निवास करना चाहिये
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चारू-चम्पकवर्णाभां सर्वाङ्गसुमनोहराम्।
नागेन्द्रवाहिनीं देवीं सर्वविद्याविशारदाम् ॥ ॥श्रीनारायण उवाच॥
नमः सिद्धिस्वरूपायै वरदायै नमो नमः।
बालानां नमः कश्यपकन्यायै शङ्करायै नमो रक्षणकर्त्यै नागदेव्यै आस्तीकमात्रे नमो नमः नमः नमः।
ते जरत्कार्यै नमो नमः तपस्विनयै च योगिन्यै नागस्वस्त्रे नमो नमः।
साध्यै तपस्यारूपायै शम्भुशिष्ये च ते नमः॥
इति ते कथिलं लक्ष्मी! मनसाया स्तवं महत्।
यः पठति नित्यमिदं श्रावयेद् वापि भक्तितः न तस्य सर्पभीतिवें विषोऽप्यमृतं भवति वंशजानां नागभयं नास्ति श्रवणमात्रतः॥
पितरादि बाह्यशान्ति स्तोत्रम्।
इस सूक्त का पाठ करने से मनोवांछित कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। घर-परिवार में सुख शान्ति रहती है। मनोकामना पूर्ण होती है। पितर प्रसन्न होते है उन्हें शान्ति मिलती है। यह दुर्लभ स्तोत्र है। इससे अन्य देवदोष भी शान्त होकर इष्ट सिद्धि होती है।
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सूक्त पाठ करने की विधिः
(1) उक्त सूक्त के 24 श्लोकों में से 22 वें, 23 वें, 24 वें श्लोक का पाठ दो बार करें। अर्थात् पहले 1 से 24 श्लोक तक पाठ कर लेवें तदुपरान्त 22-23-24 श्लोकों का पाठ दो बार करें। इस प्रकार 22-23-24 श्लोकों का पाठ तीन बार होगा। तब इस पितृ सूक्त का पाठ पूर्ण होगा।
(2) श्लोक 22-23-24 का पाठ में अधिक ध्यान देवें।
(3) काले तिल व शुद्ध से हवन करें। हवन में भी 22-23-24 श्लोक से तीन-तीन आहुतियाँ दी जावेगी।
(4) 1, 12, 23, 24 श्लोक में स्वाहा की जगह होम समय स्वधा कहें।
(5) दक्षिण दिशा की और मुख करके ही पाठ एवं हवन करें।
(6) केवल एक आवृति पाठ ओर एक ही आवृति से हवन करें।
(7) नित्य पाठ एवं हवन आवश्यक है।
1. नमो वः पितरो, यच्छिव तस्मै नमो वः पितरो यतृस्योन तस्मै|
नमो वः पितरः, स्वधा वः पितरः॥
2. नमोऽस्तु ते निर्ऋतु, तिग्मतेजोऽयस्यमयान विचृता बन्धपाशान्।
यमो मह्यं पुनरित् त्वां ददाति। तस्मै यमाय नमोऽस्तु मृत्यवे॥
3. नमोऽस्त्वसिताय, नमस्तिरश्चिराजये।
स्वजाय वभ्रवे नमो नमो देवजनेभ्यः॥
4. नमः शीताय, तक्मने नमो, रूराय शोचिषे कृणोमि।
यो अन्येरूभयद्युरभ्येति, तृतीय कायं नमोऽस्तु तक्मने॥
5. नमस्ते अधिवाकाय, परावाकाय ते नमः।
सु-मत्यै मृत्यो ते नमो, दुर्मत्यै त इदं नमः॥
6. नमस्ते यातुधानेभ्यो नमस्ते भेषजेभ्यः।
नमस्ते मृत्यो मूलेभ्यो ब्राह्मणेभ्य इदं मम॥
7. नमो देववद्येभ्यो नमो राज-वद्येभ्यः।
अथो ये विश्वानां वद्यास्तेभ्यो मृतयो नमोऽस्तु ते॥
8. नमस्तेऽस्तु नारदा नुष्ठ विदुषे वशा।
कसमासां भीमतमा याम दत्वा पराभवेत् ॥
9. नमस्तेऽस्तु विद्युते नमस्ते स्तनयिलवे।
नमस्तेऽस्तु वश्मने येना दूड़ाशे अस्यसि॥
10. नमस्तेऽस्त्वायते नमोऽस्तु पराय ते।
नमस्ते प्राण तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः||
11. नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते।
नमस्ते रूद्र तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः॥
12. नमस्ते जायमानायै, जाताय उत ते नमः।
वालेभ्यः शफेभ्यो रूपायाध्ये ते नमः॥
13. नमस्ते प्राणक्रन्दाय नमस्ते स्तनयित्नवे, नमस्ते प्राण-प्राणते, नमोऽस्त्वपान ते।
नमस्ते प्राणविद्युते नमस्ते प्राणवर्धत॥
14. परा चीनाय तेनमः, प्रतीचीनाय नमः, सर्वस्मैन इदं नमः॥
15. नमस्ते राजन्! वरूणास्तु मन्यवे विश्व ह्याग्र निचिकेषि दुग्धम्।
सहस्त्रमन्यान् प्रसुवामि, साकं शतं जीवाति शरदस्तवायं॥
16. नमस्ते रूद्रास्य ते, नमः प्रतिहितायै।
नमो विसृज्यमानायै, नमो निपतितायै॥
17. नमस्ते लाङ्गलेभ्यो नमः ईषायुगेभ्यः।
वीरूत् क्षेत्रिय-नाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु।।
18. नमो गंधर्वस्य नमस्ते नमो भामाय चक्षुषे च कृण्मः।
विश्वावसो ब्रह्मणा ते नमोऽभि जाया अप्सरस: परेहि॥
19. नमो यमाय नमोऽस्तु मृत्यवे, नमः पितृभ्य उतये नयन्ति।
उत्पारणस्य यो वेद, तमग्नि पुरो दद्येऽस्याः अरिष्टतातये॥
20. नमोरूद्राय नमोऽस्तुतक्मने, नमो राज्ञ वरूणायं त्विणीमते।
नमो दिवे, नमः पृथिव्ये, नमः ओषधीभ्यः॥
21. नमो रूराय च्यवनाय रोदनाय, घृष्णवे।
नमः शीताय पूर्वकामकृत्वने॥
22. नमो वः पितर उर्जे, नमः वः पितरो रसाय॥
23. नमो वः पितरो भामाय, नमो वः पितरो मन्धवे।।
24. नमो वः पितरां पदघोरं, तस्मैनमो वः पितरो, यत क्ररं तस्मै॥
स्वामी दीपांकर
दृष्टि संचार