जानें क्या है प्राण? जीवन उर्जा का महत्व और इससे life की चेतना को बढाने के उपाय


स्टोरी हाइलाइट्स

life energy: जानें क्या है प्राण? जीवन उर्जा का महत्व और इससे life कि चेतना को बढाने के उपाय,life का फार्मेशन श्वास-प्रश्वास (breathing) के मणि.......

जानें क्या है प्राण? जीवन उर्जा का महत्व और इससे life की चेतना को बढाने के उपाय

life का फार्मेशन श्वास-प्रश्वास (breathing) के मणि-मुक्तक से गुँथकर हुआ है। इस श्रृंखला का हर घटक अपना मूल्य और महत्त्व रखता है, इसलिए शास्त्र निर्देश करते हैं कि हर मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि सतर्कतापूर्वक वह ध्यान रखे कि इनमें से एक भी कड़ी टूटने न पाए। 

यहाँ श्वास से तात्पर्य प्राणतत्त्व से है, जो सूक्ष्मचेतना का घटक है, किंतु नथुने से ली जाने वाली श्वास (breath) का महत्व भी कम नहीं है। अखंड ज्योति के विद्वान लेखकों के मुताबिक़ शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य संवर्द्धन तो उसका योगदान है ही, व्यक्तित्व निखारने, उसके विभिन्न आयामों को विकसित करने और उन्हें प्राण चेतना से परिपूरित करने में भी उसका असाधारण महत्त्व है।

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यह प्राण ऊर्जा अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में चहुँ ओर बहुतायत में भरी पड़ी है, जिसे ग्रहण कर हम जीवित रहते हैं, यह बात अलग है कि इस प्राण-समुद्र में से हम कितना ग्रहण कर पाते हैं। इसकी कमी-बेशी हमारे श्वास-प्रश्वास (breathing) की गहराई पर तो निर्भर करती ही है, वातावरण में इसकी विद्यमानता भी हमारे शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।

आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों ने अपने गहन अध्ययन-अनुसंधान के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि यह प्राण ही शारीरिक विद्युत का स्रोत है, जो शरीर की रासायनिक संरचना में तो नहीं मिलता, पर उसके वातावरण में विद्यमान होने के प्रमाण प्रचुर मात्रा में विज्ञान को उपलब्ध हैं। 

जिस हवा (AIR) में हम श्वास लेते हैं, जिस पानी को पीते हैं और जिस भूमि पर चलते हैं, उन सभी में प्राणविद्युत विद्यमान है। जिस हवा (AIR) के सागर में हम मछली की भाँति रहते हैं, वह प्राणविद्युत का अतुल भंडार है। 

हाल के अन्वेषणों से पता चला है कि वायुमंडल में घुले हुए ऋण और धनविद्युत परमाणु या आयन life  और स्वास्थ्य की कुंजी हैं। वायु प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्यास का अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया है कि वायु में घुले हुए रसायन स्वास्थ्य पर इतना प्रभाव नहीं डालते, जितना कि उसमें विद्यमान आयन। 

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उन्होंने पाया कि धनविद्युत आवेश के आयन स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं और प्रयोगात्मक प्राणियों को श्वासनलिका से बलगम का बाहर निकलना कम कर देते हैं। इसके विपरीत ऋण विद्युत आवेश धारी परमाणु श्वास नलिका के सिलियेरी समूह (रोग समूह) की गतिविधियों को बढ़ा देते हैं और इस प्रकार फेफड़ों में किन्हों विषैले तत्वों के जमाव को रोकते हैं। 

इस प्रकार के प्रयोगों का वर्णन मूर्द्धन्य वैज्ञानिक द्वय फार्बर और विल्सन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'दि एयर वी ब्रोद' में किया है। सुप्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका 'नेचर' के विगत वर्ष के एक अंक में भी इस प्रकार के आयनों के स्वरूप के बारे में अनुसंधानात्मक विवरण प्रकाशित किया गया है। 

उसके अनुसार हवा(AIR) प्रमुख ऋण आवेशधारी आयन 'सुपर ऑक्साइड आयन' कहलाते हैं। रासायनिक दृष्टि से इन्हें ऋण आवेशग्रस्त ऑक्सीजन अणु कह सकते हैं। पानी के संयोग से ये विशेष प्रभावशाली हो जाते हैं। स्वच्छ हवा(AIR) में प्रति लीटर लगभग दस लाख ऐसे आयन होते हैं हालांकि, यह सांद्रता बहुत कम है, फिर भी यह शरीर के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होती है। 

विभिन्न प्रकार के रोगकारक जीवाणुओं को विनष्ट करने में इन आयनों की क्षमता असंदिग्ध है। ऋणात्मक ऊर्जा आयनों का प्रभाव यह पाया गया है। कि ये फेफड़ों के अंदरूनी भाग एल्वियोलाई (वायुकोश) पर गहरा प्रभाव डालते हैं। 

इसके कारण एल्वियोलाई की झिल्ली वायु से ऑक्सीजन की अधिक मात्रा सरलता से सोख लेती है और कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन भी अधिक सरलता से कर लेती है। धनात्मक आयनों का प्रभाव इससे ठीक विपरीत पाया गया। इन आयनों के प्रभाव से फेफड़ों की वाइटल कैपेसिटी कम हो गई। और शरीर की अन्य प्रक्रियाओं और मनोवैज्ञानिक परीक्षणों में भी गिरावट पाई गई। 

इन शोधों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि बड़ी-बड़ी औद्योगिक भट्ठियों की चिमनियों से निकलने वाला हजारों टन कचरा या विषाक्त कण वायुमंडल के इन लाभकारी ऋणात्मक ऊर्जा आयनों को सोख लेते हैं। 

इस प्रकार श्वास-वायु या प्राण-ऊर्जा में ऋणात्मक आयनों का अभाव और धन आयनों का बाहुल्य हो जाता है। वातावरण का प्रदूषण मुख्य रूप से इसी प्रकार हमारे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डालता है। इसी तरह एअर कंडीशनरों में से निकलने वाली वायु में भी ऋण विद्युत आयनों का अभाव पाया गया है और कहा गया है कि वातानुकूलित स्थानों में बैठकर काम करने वालों को अनुभव होने वाली शारीरिक मानसिक थकान का कारण भी यही है। 

इन स्थानों में बैठकर काम करने वालों में माइग्रेन रोग की शिकायत भी ज्यादा देखी गई है। फ्रांस की स्ट्रासबर्ग यूनिवर्सिटी में कार्यरत सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञान प्रो० फ्रेड व्लेस ने अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'दि बायोलॉजिकल कंडीशंस क्रिएटेड बाई दि इलेक्ट्रिकल प्रापर्टीज ऑफ दि एटमॉस्फियर' में बताया है कि किस तरह से एक बार श्वास लेने पर वायु द्वारा शरीर में पहुँचने पर ये ऋण आयन अपना कार्य करते हैं और फिर इनका क्या होता है। 

उनके अनुसार जिस प्रकार शरीर में रसायनों का मेटाबॉलिज्म अर्थात उपापचय चलता रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी के शरीर में एक प्राण वैद्युतीय उपापचय भी निरंतर चलता रहता है। प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा आवश्यक ऊर्जात्मक आयनों का संग्रहण व अवशोषण किया जाता है और अनावश्यक आयनों का निष्कासन होता रहता है। 

इस प्रकार के अध्ययन अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि श्वास प्रक्रिया द्वारा फेफड़े हवा(AIR) से ऋण विद्युत आयन सोख लेते हैं और यह आवेश रक्त को प्रदान करते हैं। रक्त चूँकि प्रोटीन अणुओं का एक कोलाइडल घोल है, इसलिए वह यह विद्युत आवेश आसानी से धारण कर लेता है। 

कोलाइडल घोल वे विशिष्ट प्रकार के घोल होते हैं, जिनमें घुले हुए कण स्वयं एक विद्युत आवेश धारण करते हैं। ज्ञातव्य है कि अनेक जैवीय घोल, जैसे-रक्त, दूध, कोषीय साइटोप्लाज्म, वीर्य आदि सभी कोलाइडल घोल हैं। 

ये सामान्य घोल से भिन्न होते हैं, जिनके कण कहीं छोटे और सामान्यतः विद्युत आवेश विहीन होते हैं। रक्त में मिलकर यह विद्युत आवेश शरीर के सभी भागों में फैल जाता है और शरीर की हर कोशिका और  ऊतक प्रचुर मात्रा में इसे अपने में धारण कर लेते हैं।

डीप ब्रीदिंग और  प्राणायाम के सतत अभ्यास से हम अपने शरीर के प्रत्येक घटक में इतनी अधिक ऋणात्मक प्राण ऊर्जा या आयनिक ऊर्जा सोख लेते हैं कि वे सेचुरेट अर्थात संतृप्त हो जाते हैं। प्रोफेसर फ्रेड ब्लेस के अनुसार संतृप्त होने पर यही अतिरिक्त ऋण आवेश युक्त ऊर्जा व्यक्ति की त्वचा द्वारा बाहर निकलने लगती है और बाह्य वातावरण में छा जाती है। 

यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और वायुमंडल और  व्यक्ति के बीच ऊर्जात्मक आदान-प्रदान का एक चक्र सतत चलता रहता है। प्राण ऊर्जा दायीं ऋणात्मक प्राण-ऊर्जा फेफड़ों द्वारा खींची जाती रहती है और त्वचा और  प्रश्वास द्वारा बाहर निष्कासित की जाती रहती है। इस चक्र का विकास विस्तार ही सक्रिय और  तेजस्वी-मनस्वी life  का चिह्न है और इसकी विकृति ही निष्क्रियता और  रुग्णता की परिचायक है।
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