भगवान विष्णु का स्वरूप : नारद जी ने बाताये नारायण के ये रहस्य


स्टोरी हाइलाइट्स

भगवान विष्णु का स्वरूप : नारद जी ने बाताये नारायण के ये रहस्य

भगवान विष्णु का स्वरूप वर्णन BY NARAD MUNI श्री विष्णु भगवान सर्वव्यापी, अनंत, निरंजन और अक्षर हैं। वे समस्त जल और थल में व्याप्त हैं। अपने ही प्रकाश से प्रकाशित श्री विष्णु ने ही प्रारंभ में अपने दक्षिण भाग से प्रजापति ब्रह्मा को, बायें भाग से अविनाशी विष्णु को और मध्य भाग से शिव को उत्पन्न किया | इस प्रकार अपने एक ही रूप से वे तीन भागों में विभक्त हो गए। इन्हीं तीन अंशों को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नाम से पुकारते हैं। ब्रह्म रूप में वे जगत की रचना करते हैं, विष्णु रूप में जगत के पालक है और शिव रूप में प्रलयंकारी हैं। उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय उन्हीं की शक्ति से संचालित होते हैं। नारायण की यह दिव्यशक्ति भावात्मक रूप में विद्या और अभावात्मक रूप में अविद्या के नाम से पुकारी जाती है। जब यह जगत विश्वरूप में विष्णु से भिन्न व्यवहार करता है तो यह अविद्या शक्ति प्रभावित होकर दुख का कारण बनती है। लेकिन जब ज्ञानवान और ज्ञान योग्य के बीच की बाधा मिट जाए, जगत और जगत के बनाने वाले में भेद मिट जाए और सब जगह विष्णु की सत्ता प्रकट होने लगे, वह समन्वित अवस्था विद्या का एक रूप है। भगवान विष्णु की शक्ति माया को उनसे भिन्न मानने पर वह अविद्या के रूप में दुःख का कारण होती है और अद्वैत मानने पर संसार भावना समाप्त हो जाती है। श्री विष्णु की शक्ति से निर्मित यह चलायमान जगत उन्हीं की लीला है उनसे भिन्न नहीं। जैसे एक ही आकाश भिन्न स्थानों पर भिन्न दिखलाई देता हुआ भी समग्रता में एक ही आकाश है, उसी प्रकार गुण भेद के कारण विष्णु भी जगत में भिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं लेकिन तत्त्व दृष्टि से यह सब कुछ उन्हीं का उन्हीं में है। उनकी सर्व व्यापकता श्री नारद पुराण में समान शक्तियां भी जगत व्यापी हैं। इन्हीं को प्रभाव भेद से लक्ष्मी उमा, सरस्वती, गिरिजा, अंबिका, दुर्गा, भद्रकाली, माहेश्वरी, चंडिका वैष्णवी, वाराही, शांभवी, ब्राह्मी, विद्या और अविद्या के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान महात्मा लोग भगवान् विष्णु की शक्ति को परा तथा प्रकृति कहते हैं। यही व्यक्त-अव्यक्त रूप में जगत में व्याप्त रहते हुए सृष्टि, स्थिति और प्रलय का कारण बनती है। भगवान् विष्णु ही इस प्रकार प्रकृति, पुरुष और काल रूप में जगत के सर्जक, पालक और संहारक होते हैं। मनुष्य विष्णु भगवान् का अपनी-अपनी भावना और भक्ति के अनुरूप ध्यान करते हैं। संपूर्ण विवादों से परे सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्द पर परमात्मा रूप विष्णु ज्ञान द्वारा ही गम्य हैं। त्रिगुणात्मा विष्णु सत्, रज, तप रूपी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मूर्त रूप में उत्पत्ति, पालन और विनाश का कारण बनते हैं। ये विष्णु ही उपाधि भेद से सबसे भिन्न और निरुपाधि रूप से सबसे अभिन्न दिखलाई पड़ते हैं। विश्व की रचना के निमित्त स्वयं नारायण विष्णु प्रकृति पुरुष और काल रूप में विभक्त हो जाते हैं। उनके पुरुष अंश में क्षोभ उत्पन्न होने से प्रकृति जन्म लेती है और प्रकृति से महत्, बुद्धि, अहंकार, इंद्रियां, पंचभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि,) उत्पन्न होते हैं और इसके पश्चात् ब्रह्माजी पशु-पक्षियों और तमोगुणी सृष्टि की रचना करते हैं। सृष्टि का प्रवर्तन करने के लिए देवों की रचना करते हैं। देवताओं की रचना के बाद ब्रह्माजी दक्ष आदि मानव पुरुषों का उत्पन्न करते हैं जिनसे आगे सृष्टि बढ़ने लगती है और फलस्वरूप मनुष्यों, देवताओं और दैत्यों का एक बड़ा समुदाय बन जाता है। विष्णु की सत्ता इन सब में है। इतना सब कुछ रचने के बाद ब्रह्माजी भूः, भुवः, स्वः, जनः, तपः और सत्य- सात लोकों की और अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल- सात पातालों की रचना करते हैं लोकों की स्थिति में एक के बाद एक क्रमश: और सर्वोपरि सत्यलोक है इसके विपरीत एक के बाद एक नीचे की ओर पाताल है। इसके पश्चात् वह लोकों के स्वामियों, पर्वतों, नदियों, लोकवासियां के आचार व्यवहार और वृत्ति आदि की रचना करते हैं। भूमंडल के बीच में स्थित मेरु पर्वत पर देवताओं का निवास है और लोक के अंत में लोका लोक पर्वत है। भूलोक में सात द्वीप हैं जिन्हें मशः जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रोंच, शाक और पुष्कर कहा जाता ये सभी द्वीप क्रमशः क्षार, इक्षु, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध, और जल के गरों से घिरे रहते हैं। ये सभी द्वीप और सागर एक-दूसरे से आगे क-दूसरे से दोगुने विस्तार के होते हैं। प्रत्येक द्वीप में एक कुल पर्वत ना है और पर्वतों के बाहरी भाग में नदियां यहां के निवासी देवताओं समान गुण वाले होते हैं। लवण सागर के उत्तर भाग में और हिमाचल पर्वत के दक्षिणी भाग जंबू द्वीप में भरत खंड स्थित हैं। यहां के निवासियों को किए गए कार्यों फल मिलता है। निवासी अपना नैमित्तिक कार्य करते हैं और उसका कल पाते हैं। इसी भूमि पर निवास करते हुए पुण्यों का संचय किया जा कता है। स्वर्ग और नरक भी यहां किए गए कार्यों के निमित्त ही मिलते देवता भी इस भूमि पर जन्म लेने के लिए तरसते है। वे मानते हैं कि यों के क्षीण होने पर जब वे सुख से वंचित हो जाएंगे तो भारतवर्ष में जन्म लेने पर दान, यज्ञ और तपस्या द्वारा विष्णु कृपा को पुन: अर्जित करके वे सदा के लिए मोक्ष के अधिकारी होते हुए मुक्त हो सकते हैं।