गुजरात के सूरत और बिहार के भागलपुर दोनों में स्थित है मंदराचल पर्वत


स्टोरी हाइलाइट्स

बिहार के भागलपुर के पास भी स्थित है एक मंदराचल पर्वत आज के समय के अनुसार अगर समुद्र मंथन को Life Management के नजरिए से देखें तो हम पाएंगे कि सीधे-सीधे किसी को अमृत (परमात्मा) नहीं मिलता।  इस युग में अमृत पाना कोई जल पीने जैसा नहीं है  कि आपको कहीं से अमृत से भरा हुआ एक  कलश मिल जायेगा | अमृत पाना मतलब अपने मन के विकारों को दूर करना और अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना। समुद्र मंथन में 14 नंबर पर अमृत निकला था। इस 14 अंक का अर्थ ये है 5 कमेन्द्रियां, 5 जनेन्द्रियां तथा अन्य 4 हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इन सभी पर नियंत्रण करने के बाद में परमात्मा प्राप्त होते हैं। देवताओं और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन की कथा हम सभी जानते हैं और इस कथा को हमने धारावाहिक के माध्यम से देखा भी है । समुद्र मंथन में  देवता व असुरों ने नागराज वासुकि की नेती बनाकर मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र को मथा था। जैसा की मथने में एक तरफ देवता थे तो दूसरी तरफ राक्षस थे तो ये दोनों बारी -बारी से नागराज वासुकि की नेति को खींच रहे थे | समुद्र मंथन से ही लक्ष्मी, चंद्रमा, अप्सराएं व भगवान धन्वन्तरि अमृत लेकर निकले थे। आर्कियोलॉजी और ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने सूरत जिले के पिंजरात गांव के पास समुद्र में मंदराचल पर्वत होने का दावा किया है । आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी के अनुसार बिहार के भागलपुर के पास स्थित भी एक मंदराचल पर्वत है और गुजरात के समुद्र में पाया गया यह पर्वत भी बिहार में स्थित पर्वत का हिस्सा लग रहा है। अलग - अलग स्थान पर पाए जाने वाले इन दोनों पर्वतों का निर्माण एक ही तरह के ग्रेनाइट पत्थर से हुआ है। एक ही पत्थर से निर्माण होने के कारण बोला जा सकता है के दोनों पर्वत एक ही है | जबकि आमतौर पर ग्रेनाइट पत्थर के पर्वत समुद्र में नहीं मिला करते। इसलिए गुजरात के समुद्र में मिला यह पर्वत शोध का विषय है।समुद्र में मिले पर्वत के बीचोंबीच नाग आकृति भी मिली है। पर्वत पर नाग आकृति मिलने से ये दावा और भी पुख्ता होता है। साथ ही दोनों जगह पाए जाने वाले पर्वत का ही इस्तमाल समुद्र मंथन में हुआ होगा | जानिए समुद्र मंथन की पूरी कथा एक बार दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ शिवजी के दर्शनों के लिए कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले और उन्होंने दुर्वासा ऋषि को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। दुर्वासा ऋषि ने इन्द्र को आशीर्वाद के रूप में  विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। तुरंत ही  इन्द्र का परित्याग कर दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया। यह देख दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही और उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के कारण  लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और अपना परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की पास उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’ इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। देवगण भगवान विष्णु से बोले । भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’ भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं।  वे देवगण से बोले—‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि इसी से तुम्हारा कल्याण हो सकता है । दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसके पिने से मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार देवगण दैत्यराज बलि के पास समुद्न मंथन का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया। समुद्र मंथन करने के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे।