प्राणायाम का अर्थ, परिभाषा, भेद एवं महत्व


स्टोरी हाइलाइट्स

प्राण(PRANA) वह शक्ति है जो हमारे शरीर को ज़िंदा रखती है और हमारे मन को शक्ति देती है। तो 'प्राण' से हमारी जीवन शक्ति का उल्लेख होता है ....

प्राणायाम का अर्थ, परिभाषा, भेद एवं महत्व

प्राण(PRANA) वह शक्ति है जो हमारे शरीर को ज़िंदा रखती है और हमारे मन को शक्ति देती है। तो 'प्राण' से हमारी जीवन शक्ति का उल्लेख होता है और 'आयाम' से नियमित करना। इसलिए प्राणायाम का अर्थ हुआ खुद की जीवन शक्ति को नियमित करना।
प्राणायाम का अर्थ
प्राणायाम की परिभाषा
प्राणायाम के भेद
प्राणायाम का परिणाम
प्रकाश के आवरण का नाश
धारणा की योग्यता-
प्राणायाम का महत्व

प्राणायाम योग का एक प्रमुख अंग है। हठयोग एवं अष्टांग योग दोनों में इसे स्थान दिया गया है। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में चौथे स्थान पर प्राणायाम रखा है। प्राणायाम नियंत्रित श्वसनिक क्रियाओं से संबंधित है। स्थूल रूप में यह जीवनधारक शक्ति अर्थात प्राण से संबंधित है। प्राण का अर्थ श्वांस, श्वसन, जीवन, ओजस्विता, ऊर्जा या शक्ति है। ‘आयाम’ का अर्थ फैलाव, विस्तार, प्रसार, लंबाई, चौड़ाई, विनियमन बढ़ाना, अवरोध या नियंत्रण है। इस प्रकार प्राणायाम का अर्थ श्वास का दीर्घीकरण और फिर उसका नियंत्रण है।

प्राणायाम का अर्थ

प्राणायाम शब्द संस्कृत व्याकरण के दो शब्दों ‘प्राण’ और ‘आयाम’ से मिलकर बना है। संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्गपूर्वक ‘अन्’ धातु से हुई है। ‘अन’ धातु जीवनीशक्ति का वाचक है। इस प्रकार ‘प्राण’ शब्द का अर्थ चेतना शक्ति होता है। ‘आयाम’ शब्द का अर्थ है- नियमन करना। इस प्रकार बाह्य श्वांस के नियमन द्वारा प्राण को वश में करने की जो विधि है, उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो अश्टांग योग में वर्णित है। प्राणायाम का अर्थ प्राण का विस्तार करना। स्वामी विवेकानंद ने इसे प्राण का सयंमन करना कहा है। महर्षि पतंजलि प्राणायाम को एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया मानते हैं।

प्राणायाम की परिभाषा

उस आसन के स्थिर हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति का रुक जाना प्राणायाम है। प्राणायाम से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-

महर्षि व्यास- आसन जय होने पर श्वास या बाह्य वायु का आचमन तथा प्रश्वास या वायु का नि:सारण, इन दोनों गतियों का जो विच्छेद है अर्थात उभय भाव है, वही प्राणायाम है।
योगी याज्ञवल्क्य के अनुसार- प्राण और अपान वायु के मिलाने को प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम कहने से रेचक, पूरक और कुंभक की क्रिया समझी जाती है।

जाबाल दर्शनोपनिषद के अनुसार- रेचक, पूरक एवं कुम्भक क्रियाओं के द्वारा जो प्राण संयमित किया जाता है, वही प्राणायाम है।

त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद के अनुसार- सभी प्रकार के वृत्तियों के निरोध को प्राणायाम कहा गया है।
स्वामी ओमानन्द तीर्थ के अनुसार – बाहर की वायु का नासिका द्वारा अंदर प्रवेश करना श्वास कहलाता है। कोष्ठ स्थित वायु का नासिका द्वारा बाहर निकलना प्रश्वास कहलाता है। श्वास प्रश्वास की गतियों का प्रवाह रेचक, पूरक और कुम्भक द्वारा बाह्याभ्यान्तर दोनों स्थानों पर रोकना प्राणायाम कहलाता है।

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार – प्राणायाम सांस खींचने, उसे अंदर रोके रखने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रिया पद्धति है। इस विधान के अनुसार, प्राण को शरीर में संचित किया जाता है।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार प्राणायाम क्या है ? शरीर स्थित जीवनीशक्ति को वश में लाना। प्राण पर अधिकार प्राप्त करने के लिए हम पहले श्वास-प्रश्वास को संयत करना शुरू करते हैं क्योंकि यही प्राणजय का सबसे सख्त मार्ग है।

स्वामी शिवानन्द के अनुसार- प्राणायाम वह माध्यम है जिसके द्वारा योगी अपने छोटे से शरीर में समस्त ब्रह्माण्ड के जीवन को अनुभव करने का प्रयास करता है तथा सृष्टि की समस्त शक्तियाँ प्राप्त कर पूर्णता का प्रयत्न करता है।

अत: प्राणायाम अर्थात प्राण का आयाम जोड़ने की प्राण तत्व संवर्धन की एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें जीवात्मा का क्षुद्र प्राण ब्रह्म चेतना के महाप्राण से जुड़कर उसी के तुल्य बन जाए।

प्राणायाम के भेद महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम के मुख्यत: तीन भेद बताए हैं-

बाह्याभ्यनन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभि: परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्म:।। पांतजल योग सूत्र 2/50

अर्थात (यह प्राणायाम) बाह्य वृत्ति, आभ्यान्तर वृत्ति और स्तम्भ वृत्ति वाला (तीन प्रकार का) होता है। देश, काल और संख्या के द्वारा देखा जाता हुआ विशाल एवं हल्का होता है। उपरोक्त तथ्यों को हम निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट कर सकते हैं-

बाह्य वृत्ति (रेचक)- प्राणवायु को नासिका द्वारा बाहर निकालकर बाहर ही जितने समय तक सरलतापूर्वक रोका जा सके, उतने समय तक रोके रहना ‘बाह्य वृत्ति’ प्राणायाम है।
आभ्यान्तरवृत्ति (पूरक)- प्राणवायु को अंदर खींचकर अर्थात श्वास लेकर जितने समय आसानी से रूक सके, रोके रहना आभ्यान्तर वृत्ति है, इसका अपर नाम ‘पूरक’ कहा गया है।
स्तम्भ वृत्ति (कुम्भक)- श्वास प्रश्वास दोनों गतियों के अभाव से प्राण को जहाँ-तहाँ रोक देना कुम्भक प्राणायाम है। प्राणवायु सहजतापूर्वक बाहर निष्कासित हुआ हो अर्थात जहाँ भी हो वहीं उसकी गति को सहजता से रोक देना स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है।

प्राणायाम के इन तीनों लक्षणों को योगी देश, काल एवं संख्या के द्वारा अवलोकन करता रहता है कि वह किस स्थिति तक पहुँच चुका है। देश, काल व संख्या के अनुसार, ये तीनों प्राणायामों में से प्रत्येक प्राणायाम तीन प्रकार का होता है-

देश परिदृष्ट- देश में देखता हुआ अर्थात देश से नापा हुआ है अर्थात प्राणवायु कहाँ तक जाती है। जैसे- (1) रेचक में नासिका तक प्राण निकालना, (2) पूरक में मूलाधार तक श्वास को ले जाना, (3) कुम्भक में नाभिचक्र आदि में एकदम रोक देना।
काल परिदृष्ट- समय से देखा हुआ अर्थात समय की विशेष मात्राओं में श्वास का निकालना, अन्दर ले जाना और रोकना। जैसे- दो सेकण्ड में रेचक, एक सेकण्ड में पूरक और चार सेकण्ड में कुम्भक। इसे हठयोग के ग्रंथों में भी माना गया है। हठयोग के ग्रंथों म पूरक, कुम्भक और रेचक का अनुपात 1:4:2 बताया गया हैें।
संख्या परिदृष्ट:- संख्या से उपलक्षित। जैसे- इतनी संख्या में पहला, इतनी संख्या में दूसरा और इतनी संख्या में तीसरा प्राणायाम। इस प्रकार अभ्यास किया हुआ प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म अर्थात लम्बा और हल्का होता है।

इन तीन प्राणायामों के अतिरिक्त महर्षि पतंजलि ने एक चौथे प्रकार का प्राणायाम भी बताया है-

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थ:।। पांतजल योग सूत्र 2/51

अर्थात अंदर बाहर के विषय को फेंकने वाला चौथा प्राणायाम है।
बाह्य आभ्यान्तर प्राणायाम पूर्वक अर्थात इनका पूर्ण अभ्यास होने पर प्राणायाम की अवस्था विशेष पर विजय करने से क्रम से दोनों पूर्वोक्त प्राणायामों की गति का निरोध हो जाता है, तो यह प्राणायाम होता है।

यह चतुर्थ प्राणायाम पूर्व वर्णित तीनों प्राणायामों से सर्वथा भिन्न है। सूत्रकार ने यहॉं यही तथ्य प्रदर्शित करने के लिए सूत्र में ‘चतुर्थ पद’ का प्रयोग किया है। बाह्य एवं अन्त: के विषयों के चिंतन का परित्याग कर देने से अर्थात इस अवधि में प्राण बाहर निष्कासित हो रहे हों अथवा अंदर गमन कर रहे हों अथवा गतिशील हों या स्थिर हों, इस तरह की जानकारी को स्वत: परित्याग करके और मन को अपने इष्ट के ध्यान में विलीन कर देने से देश, काल एवं संख्या के ज्ञान के अभाव में, स्वयमेव प्राणों की गति जिस किसी क्षेत्र में रूक जाती है, वही यह चतुर्थ प्राणायाम है। यह सहज ही आसानी से होने वाला

राजयोग का प्राणायाम है। इस प्राणायाम में मन की चंचलता शांत होने के कारण स्वयं ही प्राणों की गति रूक जाती है। यही इस प्राणायाम की विशेषता है।

इसके अतिरिक्त हठयोग के ग्रंथों में प्राणायाम के आठ प्रकार लिते हैं। हठयोग में प्राणायाम को ‘कुम्भक’ कहा गया है। ये आठ प्रकार के प्राणायाम या कुम्भक हैं-

(i) हठप्रदीपिका के अनुसार– सूर्यभेदन, उज्जायी, सीत्कारी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूच्र्छा तथा प्लाविनी ये आठ प्रकार के कुम्भक हैं।

सूर्यभेदनमुज्जायी, सीत्कारी शीतली तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूच्र्छा, प्लाविनी त्यष्टकुम्भका:।। 2/44

(ii) घेरण्ड संहिता के अनुसार- केवली, सूर्यभेदी, उज्जायी, शीतली, भस्त्रिका, भ्रामरी, मूच्र्छा तथा केवली ये आठ कुम्भक हैं।

सहित: सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूच्र्छा, केवली चाष्टकुम्भका:।। 4/66

प्राणायाम का परिणाम

प्राणायाम मन पर नियंत्रण, मानसिक स्थिरता, शांति तथा एकाग्रता विकसित करने की पद्धति है। इसके अभ्यास से ध्यान के अभ्यास में आसानी होती है। प्राणायाम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का विकास करना संभव होता है। इसके साथ ही प्राणायाम का अभ्यास द्वारा शट्चक्रों के जागरण में सुविधा होती है तथा प्राणायाम अनेक प्रकार के रोगों के निवारण में सहायक होता है। महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम के दो फल बताये हैं जो इस प्रकार हैं-

प्रकाश के आवरण का नाश

प्राणायाम से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं। प्राणायाम से पाचन शक्ति, वीर्य शक्ति, प्रत्यक्ष ज्ञान और स्मरण शक्ति बढ़ती है। इससे मन शरीर के बंधन से मुक्त होता है, बुद्धि प्रखर होती है, आत्मा को प्रकाश मिलता है। महर्षि पतंजलि प्राणायाम के फल को स्पष्ट करते हुये बताते हैं कि-

तत: क्षीयते प्रकाशावरणम्।। पांतजल योग सूत्र 2/52

अर्थात उस प्राणायाम के अभ्यास से प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाता है। प्राणायाम के फल से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने इस सूत्र के सन्दर्भ में जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-

महर्षि व्यास के अनुसार- प्राणायामानभ्यस्यतोSस्य योगिन: क्षीयते विवेकज्ञानावरणीयं कर्म।। योगभाष्य 2/52 अर्थात प्राणायाम अभ्यासकारी योगी के विवेकज्ञान का आवरणभूत कर्म क्षीण होता है।

पंचशिखाचार्य के अनुसार – तपो न परं प्राणायामात्ततो विशुद्धिर्मलानां दीप्तिश्च ज्ञानस्थे। अर्थातप्राणायाम से बढ़कर कोई तप नहीं है, उससे मन धुल जाते हैं और ज्ञान का प्रकाश होता है।

महर्षि घेरण्ड के अनुसार –  नाड़ी शुद्धिष्च तत: पष्चात्प्राणायामं या साधयेत्। घेरण्ड संहिता 5/2 अर्थात नाड़ियों की शुद्धि के लिए प्राणायाम करना चाहिए।

हठप्रदीपिका के अनुसार – प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत्। अर्थात हठप्रदीपिका 2/16
उचित रीति से प्राणायाम का अभ्यास करने से सभी रोगों का नाश होता है।

हठप्रदीपिका में आगे कहा गया है- ब्रह्मादयोSपि त्रिदशा: पवनाभ्यासतत्परा: अभूवन्नन्तकभयात् तस्मात् पवनमभ्यसेत्।। हठप्रदीपिका 2/39 अर्थात बह्मा आदि देवता भी काल के भय से प्राणायाम के अभ्यास में लगे रहते हैं इसलिए सबको प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।

आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार – क्लेशादि संचित कर्मों का पर्दा प्राणायाम के अभ्यास द्वारा शनै:-शनै: दुर्बल होते-होते क्षीणता को प्राप्त हो जाता है तब योगी का विवेकज्ञान रूपी प्रकाश सूर्य के सदृश्य प्रकाशित हो जाता है। अत: योगी साधक को प्राणायाम का नियमित अभ्यास आत्मिक उत्थान हेतु सतत करते रहना चाहिए।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार – चित्त में स्वभावत: समस्त ज्ञान भरा है। वह सत्व पदार्थ द्वारा निर्मित है, पर रज और तम पदार्थों से ढंका हुआ है। प्राणायाम के द्वारा चित्त का यह आवरण हट जाता है।यह आवरण हट जाने से, हम मन को एकाग्र करने में समर्थ होते हैं।

धारणा की योग्यता- महर्षि पतंजलि प्राणायाम के दूसरे फल को स्पष्ट करते हुये बताते हैं कि-

धारणासु च योग्यता मनस:।। पांतजल योग सूत्र 2/53

अर्थात समस्त धारणाओं में मन की योग्यता होती है। प्राणायाम के फल से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने इस सूत्र के सन्दर्भ में जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-

महर्षि व्यास के अनुसार – प्राणायाम के अभ्यास से ही धारणा करने की योग्यता बढ़ती जाती है। इसमें ‘प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य’ सूत्र भी प्रमाण है।
आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार – प्राणायाम के दीर्घकालीन नियमित अभ्यास से ही मन में धारणा की योग्यता आ जाती है। प्राणायाम में सतत आध्यात्मिक देश की भावना करनी पड़ती है। इस प्रकार से करते रहने से चित्त को उन देशों में प्रतिष्ठित करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है।
प्राणायाम का महत्व प्राण के नियंत्रण से मन भी नियंत्रित होता है क्योंकि प्राण शरीर व मन के बीच की कड़ी है। प्राणायाम से चित्त की शुद्धि होती है और चित्त शुद्ध होने से अनेक तर्कों, जिज्ञासुओं का समाधान स्वयमेव हो जाता है। इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन पर अंकुश प्राण का रहता है। इसलिए जितेन्द्रिय बनने वाले को प्राण की साधना करनी चाहिए। इस प्रकार प्राणायाम वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम प्राणों का नियमन, नियंत्रण, विस्तार एवं शोधन करते हैं। चित्त शुद्ध होता है और चित्त शुद्ध होने पर ज्ञान प्रकट होता है जो योग साधना का प्रमुख उद्देश्य है। प्राणायाम के प्राण का विस्तार एवं नियमन होता है और प्राण मानवीय जीवन में विशेष महत्व रखता है। प्राण की महत्ता सर्वविदित है और प्राणायाम प्राण नियंत्रण की प्रक्रिया है। अत: प्राणायाम का योग में महत्वपूर्ण स्थान है।