कृष्ण की सार्थकता.......................श्रीकृष्णार्पणमस्तु -18


स्टोरी हाइलाइट्स

कृष्ण की सार्थकता..श्रीकृष्णार्पणमस्तु -18 meaning-of-krishna-sri-krishna...................................................

कृष्ण की सार्थकता                                             श्रीकृष्णार्पणमस्तु -18 रमेश तिवारी  कृष्ण के जीवन में प्रत्येक क्षण का सम्मान था। समय का सदुपयोग। समयानुकूल निर्णय। समुचित दंड। समान व्यवहार और समान अधिकार के वे पक्षधर थे। यद्यपि वे स्वयं तो दीर्घकाल तक व्यक्तिगत वैर का शिकार रहे। किंतु समय समय पर उन्होंने अपने शत्रुओं को भी अभय देकर समाज को उदार रहने का संदेश दिया। कौन्डिन्यपुर में स्वयंवर तो स्थगित हो गया। सामान्य जन कृष्ण के चातुर्य के गीत भी गाने लगे । किंतु कृष्ण! वे असहज थे। षड़यंत्र कारी की चुप्पी में उन्हें किसी भावी संकट की बू आ रही थी। जरासंध जैसे अभिमान पुरूष के दंभ और दर्प की कल्पना से वह थरथरा गये। मथुरा पहुंच कर बस यही सोच कर चिंतित रहते। अपनी इस प्रगल्भता को वह विजय की संज्ञा दें अथवा किसी भावी का संकेत माने। उनके सदैव स्मित मुख की उदासी छिपी न रह सकी। उद्धव, दाऊ, माता देवकी, वसुदेव, राजा उग्रसेन और मित्र सात्यिकी में से कोई भी इस उदासी के रहस्य को नहीं जान सका। वे स्वयं भी यह निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि भविष्य में होने वाले जरासंध के प्रकोप को कैसे निष्प्रभावी बनाया जा सकेगा। कौन्डिन्यपुर में सौभराज शाल्ब से घंटों हुई जरासंध की गुप्त वार्ता क्या थी? फिर उस वार्ता में भीष्मक, दामघोष, विंद, अनुविंद, रुक्मी, शिशुपाल, शिशुपाल तक को सम्मिलित न करके सम्राट क्या संदेश देना चाहते थे। इसी बीच कृष्ण को विचलित करने वाली एक और सूचना आई! हस्तिनापुर से विदुर ने भी भीम के माध्यम से एक सूचना मथुरा से साझा की। भीम का अचानक यह कहते हुए मथुरा में पहुंचना कि वह दाऊ से गदायुद्ध की शिक्षा लेने आया है। यह बात कृष्ण को पच नहीं रही थी। फिर भीम ने ही कृष्ण को बताया- विदुर ने कहलवाया है शाल्ब के माध्यम से आर्यावर्त पर प्रथम विदेशी आक्रमण का आमंत्रण दैत्य कालयवन को भेजा जा चुका है। कृष्ण का सोचना था कि कालयवन का नाम सुनते ही मानो यादवों के तो प्राण ही निकल जायेंगे। अत: अब उन्हें आवश्यक प्रतीत हुआ कि यादव सभा को आमंत्रित किया ही जाये। महाराज उग्रसेन द्वारा आहूत सभा में कृष्ण ने स्वयंवर भाग एक से लेकर कालयवन के आक्रमण की सूचना पर प्रकाश डाला। बहुत विरोधाभाषी वक्तव्य आये। कुछ यादव तो अति उत्साह में कहने लगे। युद्ध करेंगे। परन्तु वरिष्ठ और गंभीर यादव जानते थे कि अब यादवों का भस्मीभूत होना अपरिहार्य हो गया है। कृष्ण का विरोध बढऩे लगा। कृष्ण ने हल निकाला -एक मार्ग है। हम मथुरा ही त्याग दें। क्यों न सौराष्ट्र भाग चलें। हमारे जीवित बचने का यही एक मार्ग है। कालयवन के भय से कुछ दिन तो मथुरा बेचैन रही। महिला, बालक, युवा और पुरुष जो कृष्ण को देखकर हर्षोन्मत्त रहते थे। अब वे भी उनकी आलोचना करते नहीं थक रहे थे। अरे कृष्ण ने तो मरवा ही दिया। कृष्ण अपने जीवन के सबसे अलोकप्रिय प्रसंग में फंस चुके थे। फिर अचानक एक रात्रि! कृष्ण अदृश्य हो गये। मथुरा का रहा सहा धैर्य भी जाता रहा। उदास, निराश और दुर्दांत शत्रु के आक्रमण से भयभीत मथुरा मानो मृत समान ही गयी। सभी बेचैन। जो यादव नायक कृष्ण के संबंध में अपशब्द कहने लगे थे, वे ही अब कहते! अब तो कृष्ण ही राह दिखा सकता है। सबने निर्णय लिया। कृष्ण को ढूंढा़ जाये। कृष्ण के बिना जीवन अधूरा है। तारण हार से कुछ दिनों तक गंभीर आलोचना के पात्र बने कृष्ण के अभाव ने अनुभूति करा दी कि मार्गदृष्टा हर कोई नहीं हो सकता। और कुछ दिनों पश्चात! एक रात्रि में कृष्ण फिर मथुरा में दृश्य हो गये। यादवों की प्रसन्नता का पारावार न रहा। कृष्ण से पूछताछ। होने लगी- कहां, क्यों और किस कारण गए थे। कृष्ण तुम जो कहोगे, हम वही करेंगे। फिर तो कृष्ण के निर्देशानुसार यादव जन मथुरा छोड़ सौराष्ट्र की शरण में चल पड़े। यहां हम यह भी जान लें कि यादव गण सौराष्ट्र ही क्यों गये ? बलराम की पत्नी रेवती (ककुद्धिन की पुत्री) सौराष्ट्र की थीं। एकमात्र संतान थीं। वृद्ध राजा वैसे भी अपना राज्य जामाता बलराम को सौंपना चाहते थे। कृष्ण ने बलराम, उद्धव और सात्यिकी के नेतृत्व में सोमवार का दिन प्रस्थान के लिए तय किया। आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा। धन्यवाद।