कृष्ण,श्रीकृष्ण की ओर !
श्रीकृष्णार्पणमस्तु-1
रमेश तिवारी
श्रीकृष्ण क्या थे। मिथक चमत्कार अथवा सत्य? यह मैं आप प्रिय पाठकों पर छोड़ता हूँ? किंतु आप भी तो अपना निर्णय, मान्य और सुनी सुनाई कथाओं और मेरी कही इस श्रृंखला को आत्मसात करने के बाद ही तो कर सकेंगे।
पिछले 5000 वर्षोंं मेँ श्रीकृष्ण पर इतना लिखा गया है कि उस में सत्य का अन्वेषण करना दुष्कर कार्य लगता है। खासकर तब, जबकि 125 वर्ष तक जीवित और ऊर्जावान रहे योगीराज को कुछ मनचले कवियों और विकृत लेखकों ने जिस हास्यास्पद स्वरूप में प्रस्तुत किया। वह अशोभनीय और सोचनीय है! कृष्ण एक किँवदन्ती हैं। हमने अधिकतर, श्रीकृष्ण के महाभारत के विक्रमशाली स्वरुप को ही सुना, पढा़ है।
परन्तु श्रीकृष्ण के इस स्वरुप का निर्माण हुआ कैसे! बालकृष्ण की बांसुरी, लकुटि, कांधे पर कंबल, ग्वालों की टोली, माखन की चोरी, राधिका का संग, सिर पर मोर का मोहक पंख, गले में बैजयंती माला, रास और नृत्य, यमुना में धमा चौकड़ी, यशोदा माता का अप्रितिम स्नेह, वात्सल्यमयी डाँट और बनावटी फटकार भी। कंस की क्रूरता के भय की परवाह किये बिना माखनचोर को नंद बाबा का संरक्षण और! आह्ह. दाऊ बलराम का वरदहस्त।
सत्य तो यह है कि जिन्होंने, श्रीकृष्ण को व्यवहारिक ज्ञान प्रदान किया। वे महान मल्ल थे, नंद के 8 भाइयों में से एक केलिनंद! जिन्होंने अखाडे़ गोदना सिखाकर श्रीकृष्ण को न केवल मल्ल युद्ध की शिक्षा दी वरन वृषभों को नाथने और उन्हें नियंत्रण में करने की अद्भुत कला भी सिखाई। इसी श्रम और गौरस के सेवन से पुष्ट स्नायु बने श्रीकृष्ण ने कंस के धनुर्यज्ञ में राज्याश्रित तोंदू मल्लों और हाथियों का वध करने में सफलता प्राप्त की। छरहरे और विद्युत तरंग से चंचल, दोनों किशोरों ने स्फूर्त होकर मथुरा को चकित कर दिया। आत्मविश्वास से भरपूर कृष्ण, बलराम ने मदमस्त हाथी कुबलयापीढ़़ तथा मुष्ठि और चांडूर नामक मल्लोँ को भूमिसात करके, उनका वध कर दिया।
फिर अन्य मल्लों जिनमें कंस के भाई भी सम्मिलित थे, को भी मार डाला। कृष्ण और बलराम को गोकुल में सिखलाई गयी मल्ल युद्ध की कला ही काम आई न! गायों का अमृत दुग्ध, माखन और दधि ही काम आया न! और दोनों किशोरों की अपरिमेय शक्ति, धनुर्यज्ञ मंडप में, कंस के अत्याचार से त्राण पाने की आकांक्षा रखने वाली पीडि़त मथुरा वासियों के मौन समर्थन ने भी, कृष्ण के मनोबल में वृद्धि की। और तत्क्षण ही उस तरुण की प्रत्युत्पन्न मति ने कलंक के प्रतीक कंस के मंचस्थ ऊंचे आसन पर छलांग लगादी। खड़ग उठाई। और कंस नामक उस नृशंस मातुल को नृशंसता पूर्वक मार कर गर्दन को धड़ से अलग कर दिया।
इतिहास में किसी ने न देखा होगा, किसी राजा का, वह भी अपने ही मातुल का, ऊपर से शक्तिशाली सम्राट जरासंध की पुत्रियों अस्ति और प्राप्ति के पति जैसा अंत! संभवतः यहीं से श्रीकृष्ण की अन्याय के खिलाफ क्रांति की शुरूआत हुई। दुष्टता के साक्षात प्रतीक कंस के निर्मूलन ने, संपूर्ण मथुरा जनपद ही नहीं आर्यावर्त में स्थित अठारह में से शेष अन्य सत्रह जनपदों में भी कृष्ण की कीर्ति पताका मानो स्वयं ही फहर गई। जन चर्चा ही आभा मंडल का निर्माण करती है। कृष्ण के साहस ने उन्हे रातों रात तारणहार बना दिया। अन्यायियों से त्राण दिलाने की क्षमता रखने वाला 'भगवान! है न? और भगवान होता क्या है?
मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो समाज में राजनीति में जनता ऊर्जा वान नेतृत्व के पीछे हो लेती है। ऐसे नेतृत्व को सर्वस्व मान लेती है। अब समाज में दो पक्ष हो गये। एक ऊर्जा के प्रतीक श्रीकृष्ण का और उनके पीछे खडी़ आशावान मथुरा की असहाय जनता का और दूसरा पक्ष जरासंध का और उसके भय से कांपती और बेबस, बेमन से खडी़ दिख रही जनता का। अब यहीं पर श्यामसुन्दर का एक महान बौद्धिक पक्ष भी उद्घाटित होता है। जिस शौर्य पूर्वक उन्होंनै कंस का वध किया, तब तो वे चाहते तो स्वयं ही राजा बन सकते थे! किंतु नहीं.! उनके मन में तो क्षण भर के लिए भी ऐसा विचार ही नहीं आया! महामानवों का यही लक्षण है। उन्होंने अपने मातामह उग्रसेन का ही राज्यारोहण किया। वे एक से एक ऐसे कदम उठा रहे थे, जिनसे जनता उनकी दीवानी होती जा रही थी।
हां एक बात और! उनके हर कदम से उनका आभामंडल विस्तृत होता जा रहा था। अपने दामाद के राज्य में रह रहे जरासंध के सैनिक यह सोचकर हताश हो रहे थे कि क्या वे भी मार दिये जायेंगे? और जरासंध के गुप्तचर.! वे तो भाग ही पडे़ थे। किंतु उस चमत्कारी किशोर वय कृष्ण ने आदेश जारी करवा कर सबको ढाढ़स बंधाया। सबके प्राणों की सुरक्षा की। और तो और उन सभी को अपनी मामियों सहित सम्मान से राजग्रृह (पटना) भिजवा दिया। कृष्ण की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी। किंतु उस प्रतिष्ठा वृद्धि से कुंठित शत्रुपक्ष में हताशा भी बढ़ रही थी। क्रिया की इस स्वाभाविक प्रतिक्रिया को हम आज भी देखते ही हैं न.! मित्रो आज बस यहीं तक। तब तक विदा।
धन्यवाद|
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