प्रेरक कथा ..सतकर्म में मन क्यों लगाओ? प्रभु के गुणगान क्यों करो ?


स्टोरी हाइलाइट्स

जैसे यम के पुकारने पर जीवात्मा शरीर से बहार आ जाती है वैसे जब तक भगवान कृपा न करे तब तक हमको भक्ति की प्राप्ति नहीं होती और भक्ति प्रकाशित नही होती.....

प्रेरक कथा   जैसे यम के पुकारने पर जीवात्मा शरीर से बहार आ जाती है वैसे जब तक भगवान कृपा न करे तब तक हमको भक्ति की प्राप्ति नहीं होती और भक्ति प्रकाशित नही होती अंदर सुसुप्तावस्था में पड़ी रहती है और आत्मबोध नही होता। एक बहुत बड़ा आश्रम था उसके महंथ जी बहुत विद्वान थे।हजारो संत वहाँ रहते कथा चलती सतसंग होता कीर्तन होता भगवत् पूजा भी होती आतिथ्य भी होता। अब हुआ ये के उनमें से एक महात्मा जी का देहान्त हो गया।अब वो संत जब की मृत्योपरान्त उनका शव पड़ा है सामने और सब संत रो रहे है हाय रे ये तो मर गये हाय रे ये तो मर गए।लेकिन महंत जी मुस्कुरा रहे है।सबने महंत जी से कहा के आपको जरा भी करुणा नही आ रही बेचारे महात्मा जी चले गए ! महंत जी ने कहा ये बताओ ये जीवित कब थे ? तो बोले 5 मिनट पहले अभी जीवित थे और अब मर गए.. महंत जी ने कहा अच्छा जी ये बताओ आपने मरने वाले को देखा है ? तो संत बोले गोरे गोरे से थे साढ़े 3 हाथ के थे लंबी जटायें थी बड़ी बड़ी दाढ़ी थी। तो महंत जी बोले वो तो सामने पड़ा है फिर रोते क्यों हो ? फिर बोले अरे महाराज हम उसके लिए रोते है जो इसमें से निकल के चला गया तो फिर बोले वही तो पूछ रहा हूँ तुमको मालूम है कैसा था ? फिर बोले गोर गोर थे साढ़े 3 हाथ के थे लंबी जटायें थी बड़ी बड़ी दाढ़ी थी। तो महंत बोले अरे वो गोरा भी साढ़े 3 हाथ का भी लंबी दाढ़ी भी सब तुम्हारे सामने पड़ा है फिर रोते क्यों हो भाई ? बोले अजी हम उसके लिए रो रहे है जो निकल गया तो बोले निकलने वाले को ही पूछ रहे है तुमने देखा है कैसा था ? हज़ार उदहारण देकर भी हम नही बता सकते वो कैसा था ? जैसे चूल्हे पर बर्तन में हम पानी को रख देते है तो पानी गर्म हो जाता है तो प्रसन्नता होती है लेकिन घण्टे दो घण्टे बाद अग्नि को निचे से निकल दिया तो पानी वापस ठण्डा हो जाता है।अब हम यदि इसके लिए दुखी हो के पानी ठंडा हो गया तो यह तो नसमझी है।पानी तो तब तक गरम रहेगा जब तक उसको अग्नि गरम करती रहेगी। ऐसे ही शरीर को मरण धर्मा नाम दिया गया है शस्त्रों में।सिवाय मरने के शरीर कोई दूसरा काम करता ही नही है। गीता में गोविन्द कहते है.. "जातस्य ही ध्रुवोमृत्यु ध्रुवंजन्ममृत्स्य च ।" जिस दिन से हम जन्म लेते है मरना उसी दिन से प्रारम्भ होता है। ये मौत हमारे शरीर के साथ जन्म लेती है।शरीर का काम ही है मरना एक एक दिन शरीर मर ही तो रहा है ।पर ये सारी प्रक्रियाएँ शरीर की है मेरी नहीं है।क्यों की मैं तो शरीर हूँ ही नही तो देह का अभिमान कैसा ? भैया प्रभु ने बहुत बड़ी कृपा की है की मानव देह दिया है। तो इसको सतकर्म में लगाओ प्रभु के गुणगान में कीर्तन में लगाओ तो ही सार्थक है जीवन।