मेरा गांव मेरा देश: ज्यादा के लालच में शहरों को भागते हैं, लौटते हैं तो खाली हाथ...


स्टोरी हाइलाइट्स

रोजी-रोटी की खातिर चौखट छोड़ गए थे। अब वापस लौटे तो उन्हीं गलियों से गुजरकर खेत की ओर निहार रहे हैं। सूनी पड़ी चौपालें मुखर हो उठी हैं। तय कर रहीं हैं

मेरा गांव मेरा देश: ज्यादा के लालच में शहरों को भागते हैं, लौटते हैं तो खाली हाथ... अभिषेक पाण्डेय, बरेली। रोजी-रोटी की खातिर चौखट छोड़ गए थे। अब वापस लौटे तो उन्हीं गलियों से गुजरकर खेत की ओर निहार रहे हैं। सूनी पड़ी चौपालें मुखर हो उठी हैं। तय कर रहीं हैं कि जिंदगी की गाड़ी किस कैसे दौड़ेगी। उप्र के बरेली जिले के ग्रामीण अंचल में 23 हजार प्रवासी अब तक महानगरों से लौट चुके हैं। हर गांव की कहानी एक जैसी है। जीवन का ताना- बाना नए सिरे से लिखा जाना है। गांव लौटे हैं तो इस उम्मीद में कि कम से कम यहां बेमौत तो नहीं मरेंगे। सिर छुपाने को घर है, और थोड़ी बहुत जमीन भी है। गुजर हो जाएगी। जीवन बच जाएगा। प्राथमिकता भी तो यही है। आगे जो होगा, देखा जाएगा। बीते 12 सालों में शहर की निजी कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी करने वाले प्रदीप शर्मा गांव के परिवेश को निष्फल मान चुके थे। लौटे हैं तो धारणा बदल गई है। खेत के पास बने कमरे में खुद को 21 दिन क्वारंटाइन रखा। समय पूरा होने के बाद बड़े भाई राजीव से मशविरा हुआ और खेत का रुख कर दिया। राजीव बताते हैं- मैं और प्रदीप कॉलेज के दिनों में जब पिताजी के साथ खेती करने जाते थे, तब हालत यह थी कि खेत में काम कराने को श्रमिक नहीं मिल पाते थे। खुद ही जुटना पड़ता था। गांव का मजदूर शहरों का रुख कर चुका था। लेकिन आज हालात उलट हैं। हमारे गांव में मार्च से ही लोगों का आना जारी था। जिनके पास जमीन है, वे खुद खेती में लग गए। जो भूमिहीन हैं, वे दूसरों के खेतों में काम करने लगे। बातचीत के बीच प्रदीप कह उठते हैं, शहर की नौकरी हालात पर निर्भर है मगर असल बुनियाद गांव ही है। इन खेतों में दोपहरी की धूप अपने सिर पर उतार लेने वाले किसान जड़ नहीं, चैतन्य हैं, जो जानते हैं कि वक्त की जरूरत क्या है। गेहूं की जगह गन्ना लगाने से कितना फायदा होगा, उन्हें पता है ...। प्रदीप और राजीव से बात करते हुए हम आम के बाग में पहुंच चुके थे। रखवाली कर रहे रामानंद के चेहरे की गहरी लकीरों में दबे अनुभव के सहारे मौजूदा हाल पर जानना चाहा। सवाल किया- अब तो गांव में सब लड़का लौटे आए हैं, पेट कहां से भरिहैं? जवाब आया- गांव में कोई भूखो मरो है कभऊ...। बात को संभालते हुए मैंने कहा, अच्छा चलौ जो बताबै कि फैक्ट्री तौ दस- बीस हजार रुपया हर महीना देती रही, खेती में इत्ते कहां धरे? जवाब था- ढाई सौ रुपया मजूरी है खेत में। मनरेगा के काम अलग से। रोटी अपने खेत में पैदा अनाज से मिलेगी। ज्यादा के लालच में शहरों को भागते हैं और लौटते हैं तो खाली हाथ...। बराबर में बैठे हरियाणा से आए प्रवासी सुनील की ओर लपकते हुए रामानंद बोले- तुअई बता, कित्ते बचाए के लाओ हुआं से (शहर से कितने पैसे बचा लाए)। जवाब आया- खाना खर्चा के बाद बचत कहां से होती। रामानंद इसी बात को सेतु बनाकर चलते जाते हैं। समझाते हैं कि यही गांव का गणित है। खेतों में अनाज पैदा हो रहा है। नकद कमाई के लिए गन्ने की खेती होती है। कृषि करने वाले लोग ही कहां बचे थे। अब लौटे हैं, तो गांव के हालात भी सुधरेंगे। जब कुछ बचत ही न हो सके तो शहर को भागना किस काम का। हां, पैसा बचा सको, तरक्की कर सको, तो ठीक। नहीं तो गांव की सेवा करो, आनंद से रहो...। वहां से उठकर हम गांव के पश्चिमी छोर पर पहुंचे। नौजवान राजा इंटर की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं। कस्बा में पढ़ने जाते हैं, मगर गांव को नहीं छोड़ा है। खाली वक्त में दुकान पर बैठते हैं। गांव में चहलपहल बढ़ने के सवाल पर जवाब देते हैं- जितने भी लोग बाहर से आए थे, सब गेहूं कटाई में लग गए थे। कमाई ठीक हो गई है, इसलिए दुकानदारी ठीक है। अब अगली फसल और पानी के इंतजाम पर जोर है। सुना है कि सरकार काम- धंधे के लिए लोन भी देगी...।