"अधीक्षा " ब्रह्मांड के रहस्य-48 यज्ञ विधि-6


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ब्रह्मांड के रहस्य-48                          यज्ञ विधि-6

रमेश तिवारी 
हम यजमान को दीक्षित बनाने की प्रक्रियाओं पर चर्चा करते आ रहे हैं। विषय अति वैज्ञानिक है। किंतु उससे भी अधिक रुचिकर भी है। मैं पहले से ही कहता आ रहा हूंँ, और आज भी कह रहा हूँ, कि मनुष्य की गति केवल और केवल सूर्य से ही है। हमारा सपूर्ण विज्ञान सूर्य से ही प्रारंभ होता है और सूर्य पर ही समाप्त होता है।

ऋषियों ने सबसे पहले यह भी जाना कि पृथ्वी का पिंड, सूर्य से 21 करोड़ मील नीचे है। और यह भी कि सूर्य पृथ्वी से 13 हजार गुना बडा़ है, आकार में। ऋषियों की वह कौनसी पद्धति (पैमाइश) होगी, यह सब मापने की। हम समझ सकते हैं जैसे एक छोटे से नक्शे के आधार पर विशाल भू-भाग का नाप जोख किया जाता है। वैसे ही इन ऋषियों ने हमारे मष्तिक में स्थित सूर्य के आकार का अध्ययन कर लिया होगा। जैसा कि मनुष्य के शरीर का अध्ययन किया कि वह 84 अंगुल का होता है। 

जैसा कि हमारे शरीर का प्रत्येक प्राण (प्राणों के प्रकार, हम पहले लिख चुके हैं) साढे़ दस अंगुल का होता है। यह जो मनुष्य के माप की विधि है कि भी सूर्य के आकार की हैं। वह दोनों ओर से 84 अंगुल का ही होता है| चाहो तो एक सुतली को दोनों हाथों की उंगलियों से उंगलियों तक माप लो अथवा सिर से पांव तक 84 अंगुल ही होगी।

ब्रह्मांड के रहस्य-48 
हम यज्ञ में बनाये जा रहे, जिस यजमान को बार बार दीक्षित करने की बात करते आ रहे हैं, तो यह भी जान ही लें कि आखिरकार यह दीक्षा है क्या! इसका वास्तविक और गंभीर अर्थ क्या है। पहले हम यह भी तो समझ लें कि यह दीक्षा है क्या? ब्राह्मण ग्रंथ कहते हैं कि दीक्षा तो धीक्षा का नाम है। धीक्षा अर्थात् गंभीरता, प्रेक्षा या चिंता। 

"स वै धीक्षते। वाचे हि धीक्षते। यज्ञाय ही धीक्षते। यज्ञो हि वाक्। धीक्षते ह वै नामैतत् यद् दीक्षित इति"।

अधीक्षिते का अर्थ है गौर करना। जैसे स्नान करते समय जल में डुबकी लगा कर तह तक थाव लेना। 'इदं कर्तव्यम्, इदं न कर्तव्यम्। इदं भोक्तव्यम्, इदं न भोक्तव्म। तत्र गंत्वयम्। तत्र न गंतव्यम्। इसी का नाम अधीक्षा कहलाता है। प्रेक्षापूर्वक, चिंता से काम करना ही अधीक्षा कहलाता है। व्यवहार में, कार्यालय अधीक्षक को ही लें। अधीक्षक कुशल होता है। जिम्मेदार होता है। तो यज्ञ में यह यजमान भी अधीक्षा करता है। हर काम सोच समझकर करता है। इसी अभिप्राय से कहते हैं। स वै धीक्षते। अधीक्षक का अ लुप्त हुआ समझो। इसकी यह धीक्षा (गंभीरता, प्रेक्षा) वाक् (वाणी) के लिए है। वाक् स्वरूप यज्ञ के लिये ही वह दीक्षित बनता है। वाक् ही तो यज्ञ है। बस धीक्षित ही का नाम "दीक्षित" समझना चाहिए। चूंकि देवता परोक्षप्रिय हैं, अबएव इस यजमान को धीक्षित न कहकर दीक्षित कहिये।

दीक्षा की इस वैज्ञानिक चर्चा के साथ ही हम यज्ञोपवीत और कृष्णाजिन (मृग चर्म) दीक्षा की बात भी कर लें। मानव धर्म दो प्रकार का है। प्राकृतिक और सांसारिक। प्राकृतिक धर्म है- भोजन करना, विसर्जन करना। यह मनुष्य किसी से सीखता नहीं है। किंतु सांसारिक धर्म है- वेद पढ़ना, यज्ञ करना, करवाना आदि। अब सांसारिक धर्म के भी दो प्रकार हैं- साधारण और असाधारण। हमको मर्यादा में रहना है। खान-पान, रहन-सहन, किससे संबंध रखें, किससे न रखें, और विधि निषेधात्मक आज्ञा मानना, यह सब असाधारण धर्म है। "यज्ञोपवीत" इस असाधारण धर्म का प्रतीक है। मर्यादाओं का सूचक। तो जो सोमयाग (यज्ञ की मर्यादा की स्थापना) है। जो सोमयाग करना चाहता है। उसको पहले यज्ञ समर्पण के लिए सोमयाग में अधिकार प्राप्त करने के लिये दीक्षा लेना पड़ती हैं। यह आवश्यक है तभी आपको दीक्षा मिलेगी। वीजा मिलेगा।

तो यजमान को सोमयाग अधिकार प्राप्त करने के लिये पहले तो कृष्णामृग चर्म (कृष्णाजिन दीक्षा) लेनी होगी। "कृष्णाजिन दीक्षा" है क्या? मृग चर्म को कृष्णाजिन कहते हैं। महान साधु संत मृग चर्म पर ही आसन लगाते हैं। ऐसा क्या है मृग चर्म में। ग्रंथ बताते हैं कि मृग चर्म में दोनों लोकों पृथ्वी और स्वर्ग का प्रतिनिधित्व है- यजमान को देवताओं से बद्ध करना है।

किंतु यह मृगचर्म भी तो दो होना चाहिए। दोनों ही चर्म एक दूसरे से बद्ध हों। सिले हुए हों। क्योंकि मृग चर्म सफेद, सुनहरा (बभ्रू, भूरा-सा) और काला, तीन रंगों का होता है। कारण यह कि काला और सफेद रंग जहां मिलता है, वहां का चर्म सुनहरा, भूरा होता है। यही महत्वपूर्ण राज है! मृगचर्म का जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे। आज बस यहीं तक। तब तक विदा। 
                                            धन्यवाद|