क्या आप बुजुर्गों से झुंझलाकर बात करतें हैं -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

आज के समय में बूढ़े माता-पिता और दूसरे बुजुर्गों की एक सबसे बड़ी समस्या यह देखने में आती है

क्या आप बुजुर्गों से झुंझलाकर बात करतें हैं -दिनेश मालवीय आज के समय में बूढ़े माता-पिता और दूसरे बुजुर्गों की एक सबसे बड़ी समस्या यह देखने में आती है कि परिवार के लोग उनसे ठीक से बात नहीं करते. वे उन्हें छोटी-छोटी बात पर झिड़क देते हैं या झुंझलाकर बात करते हैं. इस उम्र में जाकर बुजुर्गों का मन इतना संवेदनशील और कोमल हो जाता है, कि वे इसे दिल पर लेकर मन ही मन दुखी होते रहते हैं. इसके विपरीत उनसे इस तरह बात करने वाले थोड़ी देर बाद इसे याद भी नहीं रखते. यह उनके लिए बहुत सामान्य बात होती है. इस सन्दर्भ में मुझे एक लघु फिल्म याद आती है, जो मैंने कुछ समय देखी थी. इसमें एक बूढ़े व्यक्ति का जवान बेटा छुट्टियों में घर आता है. वह बूढा उसे लेकर उसी उद्यान में जाता है, जहाँ वह बचपन में उसके साथ खेला करता था. वह एक बेंच पर बैठकर बच्चे की तुतलाहट भरी दुनिया भर की जिज्ञासाओं को शांत किया करता था. वह बूढ़ा अपने जवान बेटे के साथ उसी बेंच पर जाकर बैठ गया, जिस पर वे बचपन में बैठा करते थे. बूढ़े ने पेड़ पर बैठी एक चिड़िया की ओर इशारा करते हुए जवान बेटे से पूछा कि वह क्या है. बेटे ने जवाब दिया कि चिड़िया है. थोड़ी देर बाद बूढ़े ने फिर वही प्रश्न किया और बेटे ने वही जवाब दिया. ऐसा सात-आठ बार होने पर बेटे ने पिता को झिड़ककर कहा कि पापा आप मुझे इस तरह क्यों इरीटेट कर रहे हैं? बूढ़े ने मुस्करा कर कहा कि तुम सात-आठ बार में ही इरीटेट हो गये. बचपन में तुम मुझसे पच्चीसों बार यही ही सवाल करते थे और मैं मुस्करा कर उनका उतनी ही बार वही जवाब देता था. मुझे तुम पर झुंझलाहट नहीं होती थी, बल्कि प्यार आता था. जवान बेटा वह बातें याद कर ख़ुद को लज्जित महसूस करने लगा. आमतौर पर घर के बुजुर्गों के पास बहुत कुछ करने को नहीं होता. अधिकांश बुजुर्ग अतीत में जीते हैं. वे कुछ बहुत पुरानी बातें करते हैं, अनेक पुरानी घटनाओं का ज़िक्र करते हैं, अनेक पुराने रीति-रिवाजों और परम्पराओं को याद दिलाते हैं, घर के अनेक नए तौर-तरीकों से वह सहमत न होकर कुछ विपरीत बात कह देते हैं. लेकिन इसके पीछे उनकी कोई बुरी मंशा नहीं होती. उन्हें भी समय गुजारने के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है. उनमें यह सब भी शामिल है. अधिकांश घरों में आजकल ऐसा देखा जा रहा है कि घर के बच्चे बुजुर्गों के पास बैठना पसंद नहीं करते. उनके साथ उनका स्नेह होते हुए भी वे उनके साथ समय नहीं बिता पाते, उनके मन की बात नहीं सुन पाते और उनसे अपने मन की बात नहीं कह पाते. पढ़ाई-लिखाई भी ऐसी गलाकाट प्रतियोगिता का रूप ले चुकी है, कि बच्चों को भी इसके लिए पूरी तरह दोषी नहीं ठहराया जा सकता. ऐसी स्थिति में परिवार के बेटे-बहू आदि जो सदस्य हैं, वे इसकी पूर्ति कर सकते हैं.  बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या उनका अकेलापन या अकेलेपन का अहसास है. उनके साथ समय बिताकर हम इसे काफी हद तक दूर कर सकते हैं. उनके द्वारा कुछ ऐसी बात भी कह दी जाए, जो हमें अनुचित या बेमतलब लगे, तो भी उनसे हमें झुंझलाकर बात नहीं करनी चाहिए. सुन कर चुपचाप रह जाना चाहिए या उन्हें शान्ति से समझाना चाहिए. पहले के ज़माने में तो जवान बेटों की भी पिता या दादा तो दूर बड़े भाई तक पिटाई कर देते थे. आज ऐसा सोचना भी मुश्किल है. छोटों का अपने बड़ों के प्रति बहुत प्रेम और आदर होता था. अपने अकेलेपन को मिटाने के लिए मैंने तो अनेक वृद्ध स्त्रियों को गुड्डे-गुड़िया का खेल खेलते तक देखा है. वे बड़े जतन से उनके कपड़े सीती हैं. उनकी शादी तक करवाती हैं. यह उनके लिए समय गुजारने का बहुत अच्छा जरिया होता है. पुरुष भी बच्चों जैसी गतिविधियाँ करने लगते हैं. वे जानबूझ कर कुछ ऐसे काम करते हैं कि परिवार के सदस्यों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो. कभी-कभी वे परिवार की सहानुभूति और स्नेह पाने के लिए भी कुछ काम ऐसे करते हैं, जो परिवार के सदस्यों को परेशानी भरे लगते हैं, लेकिन इसके पीछे उनकी मंशा को समझा जाना चाहिए. हमें अपने बच्चों में ऐसे संस्कार डालना चाहिए कि वे अपनी काफी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय घर के बुजुर्गों के लिए निकालकर उनके साथ बिताएँ. इससे बच्चों का भावनात्मक विकास भी होता है. वे व्यक्तिवादी सोच के शिकार नहीं हो पाते. पहले संयुक्त परिवार में सारे परिवार के सदस्यों के भीतर ‘हम  भावना’ स्वाभाविक रूप से विकसित हो जाती थी. लेकिन अब एकल परिवारों में इसकी संभावना बहुत कम हो गयी है. हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपने ही एजेण्डा को लेकर चलता है. पहले एजेण्डा परिवार का होता था, व्यक्तियों का नहीं. खैर, अब पिछले समय में तो लौटा नहीं जा सकता. हालाकि अब बहुत लोग फिर से परिवार के साथ संयुक्त रूप से रहना चाहते हैं. लेकिन नए सामाजिक परिवेश में यह मूर्तरूप नहीं ले पाता. ऐसी स्थिति में कोशिश यह करनी चाहिए कि घर में जो बुजुर्ग हैं, उनके लिए और कुछ करें या न करें, कम से कम उनसे झुंझलाकर बात न करें. यही उनकी बहुत बड़ी सेवा होगी.