पद छोड़ने के बाद ही जागती है क्या अंतरात्मा की आवाज -सरयूसुत मिश्रा


स्टोरी हाइलाइट्स

चुनाव नजदीक आते ही राजनेताओं की अंतरात्मा जाग जाती है. सत्ता की आकांक्षा और आवाज अंतरात्मा को ही बदल देती है. .....

बदलती आस्था और बदलता राजनीतिक समाज -सरयूसुत मिश्रा चुनाव नजदीक आते ही राजनेताओं की अंतरात्मा जाग जाती है. सत्ता की आकांक्षा और आवाज अंतरात्मा को ही बदल देती है. पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवनीत सिंह सिद्धू ने इस्तीफा देते हुए लिखा है कि चरित्र में गिरावट समझौते से शुरू होती है. पंजाब के भविष्य और कल्याण के मुद्दे पर कभी समझौता नहीं करूंगा.राजनेताओं में बनावटीपन और पाखंड का इससे बड़ा कोई उदाहरण क्या हो सकता है? कोई भी व्यक्ति जब किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है, तो क्या वह उस दल की विचारधारा और नीतियों से समझौता नहीं करता? अगर यह मान लिया जाए कि राजनीतिक दल में आना-जाना विचारधारा के लिए नहीं सत्ता के लिए होता है ,तब भी दल की विचारधारा के अंतर्गत काम तो करना ही पड़ता है. सिद्धू पहले भाजपा में थे. भाजपा के सांसद और पूरे देश में स्टार प्रचारक हैं. वह राजनीति के साथ टीवी के कार्यक्रम भी करते हैं. उनकी भाषा शैली और प्रस्तुति ही उनकी राजनीतिक ताकत है. इसी के सहारे यहां तक की राजनीतिक यात्रा की है. यह भी याद रखा जाना चाहिए कि, राहुल गांधी को “पप्पू” सबसे पहले सिद्धू ने ही कहा था. आत्मा की आवाज जिसने सुन ली या जिसमें उसको सुनने की कला विकसित हो गई तो फिर क्या वह छुद्र राजनीतिक उठापटक में पड़ेगा. ऐसा संभव ही नहीं है. लेकिन आजादी के बाद से ही अनेक कोई राजनेता सरकार गिराने अथवा सरकार बनाने के लिए कमजोर बहुमत होने पर अंतरात्मा की आवाज पर लोकसभा और विधानसभा में मतदान का आवाहन करते रहे हैं. इन राजनेताओं के लिए तो सत्ता की कुर्सी ही आत्मा की आवाज होती है. इंसान अपनी व्यवसायिक गतिविधियों में ही अपना पूरा जीवन लगा देता है. भारत की राजनीति आज भाजपा और भाजपा के विरोध पर टिक गई है. राजनीति में एक तरफ भाजपा है तो दूसरी तरफ बाकी दलहैं, जो भाजपा से असंतुष्ट हो भाजपा को गाली दे उसका दूसरे दल स्वागत करने के लिए तत्पर रहते हैं .सिद्धू के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने भाजपा छोड़ी और भाजपा को गालियाँ देना शुरू किया तो कांग्रेस ने उन्हें हाथों हाथ ले लिया. पंजाब में मंत्री पद दिया गया. मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से विवाद के बाद सिद्धू कांग्रेस में रहते हुए अपनी राजनीति चलाते रहे. चुनाव के समय कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया. बाद में उन्हीं के दबाव में कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया. सिद्धू यहां तक तो फायदे में रहे, लेकिन नया मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल गठन में कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू की एकतरफा नहीं मानी, तो रूठ गए. सिद्धू के पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं है. आम आदमी पार्टी को पंजाब में एक नेता की जरूरत है. इस पूरे उलटफेर में कांग्रेस ने बहुत कुछ खोया है. अपने विश्वस्त पुराने नेता अमरिंदर सिंह को अपमानित कर हटाया. जिसे नया नेतृत्व दिया वह उनके काबू में नहीं आ रहा है. अमरिंदर सिंह का अगला कदम भी कांग्रेस को ही नुकसान पहुंचाएगा. राजनीति का एक दौर था जब जनता के बीच संघर्ष और सेवा से तपे तपाये नेता राजनीति में आगे आते थे. अब राजनीति सेवा तो बची नहीं है. अब तो व्यक्ति अपराध, फिल्मों, नौकरी में सेना में कहीं भी अपना नाम कमा ले, तो राजनीति में उसको आगे लाने के लिए दल खड़े रहते हैं. यह कोई नहीं देखता कि उस व्यक्ति का जनसेवा का क्या रिकॉर्ड है. जेएनयू के पूर्व विद्यार्थी संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार और गुजरात के जिग्नेश मेवाड़ी और हार्दिक पटेल भी कांग्रेस से जुड़ गए हैं. इन सब ने जनसेवा में नाम नहीं कमाया है. कन्हैया कुमार वह व्यक्ति हैं, जिसने “भारत टुकड़े-टुकड़े होंगे” का नारा बुलंद किया था. उसने इसी बात के लिए देश में प्रचार हासिल किया और आज आजादी की पार्टी में शामिल हो गया. फूलन देवी ने नरसंहार किया था लेकिन उन्हें भी सपा ने सांसद बनाया. राजनीति में भले ही यह प्रवृत्ति अभी चल रही है लेकिन आगे चलकर इससे देश को नुकसान हो सकता है. राजनीति में पक्ष और विपक्ष की एक मर्यादा होती है, लेकिन आज सारी मर्यादा टूट रही है. विकास और राष्ट्र की सुरक्षा भी हल्की राजनीति का शिकार हो रही है. राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर भी विपक्षी दल के स्वर विरोधी दिखाई पड़ते हैं. क्या देश की बुनियादी मुद्दों पर पूरे देश के राजनीतिक दल एकमत नहीं हो सकते? बिल्कुल हो सकते हैं. लेकिन यह तभी हो सकता है, जब राजनीति सेवा के लिए हो. वर्तमान हालात चिंताजनक हैं. देश के आंतरिक लोग ही मामलों में आंतरिक और बाहरी तत्व के समर्थक के रूप में दिखाई पड़ते हैं. लोकतंत्र के नाम पर आंदोलन देश विरोधी कार्य कब करने लगते हैं, यह पता लगाना कठिन हो जाता है. सिद्धू ने राजनीति में आजकल चल रहे हथकंडों को ही सिद्ध किया है. सरकारों के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी को राजनीतिक दल के खिलाफ स्थापित किया जाना जरूरी है. राजनीतिक दल और राजनेता आनंद उठा रहे हैं. सरकार में रहे या नहीं रहे, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. दूसरों की सेवा के लिए काम करने वाले जब बुरे दौर में होते हैं तो आसानी से हाथ मिला लेते हैं और आजकल तो ऐसी घटनाएं आम हो गई हैं. कहीं विपक्ष लड़ते हुए दिखाई पड़ता है क्या? जन सेवा में संघर्ष और सेवा के लिए समर्पित व्यक्ति को ही राजनीति में प्रवेश मिले और उसकी काबिलियत प्रमाणित होने पर आगे आने का मौका मिले तभी राजनीति में स्वाभाविक विकास होगा और देश सिद्धू जैसे अप्रत्याशित राजनेता और ऐसी घटनाओं से राजनीति बच सकेगा. ये भी पढ़ें: बिगड़े अधिकारियों पर चाबुक का प्रहार आवश्यक, आचार्य चाणक्य के सूत्र से आएगा सुशासन – सरयूसुत मिश्रा