परिवार में अपनी बदहाली के लिए बुजुर्ग ख़ुद भी काफी हद तक दोषी -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

परिवार में अपनी बदहाली के लिए बुजुर्ग ख़ुद भी काफी हद तक दोषी -दिनेश मालवीय कुछ दिन पहले एक वृद्धाश्रम जाने का मौका मिला. वहाँ ऐसे बुजुर्ग रहते हैं, जिन्हें उनके बच्चे वहाँ छोड़ गये हैं या फिर वे बच्चों के साथ नहीं निभने के कारण वहाँ आकर रहने लगे हैं. वैसे तो उन्हें उस आश्रम में कोई तकलीफ नहीं है. उनका रूटीन तय है और खाने-पीने या इलाज आदि की कोई दिक्कत नहीं है. फिर भी उनमें से कुछ से बात करने पर बच्चों के साथ न रहने की उनकी मानसिक पीड़ा स्पष्ट झलक रही थी. मेरा मन खिन्न हो गया. मैं सोचने लगा कि लानत है ऐसे बच्चों पर जो अपने माता-पिता को जीवन के उस पड़ाव पर यहाँ दूसरों के भरोसे छोड़ देते हैं, जब उन्हें उनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है. या फिर ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी या होने दी जाती है कि उन्हें वृद्धाश्रम का मार्ग चुनना पड़ा. क्या इसी दिन के लिए उन्होंने बच्चों के लिए जीवनभर अनेक तरह के कष्ट सहे थे? फिर एक और ख़याल आया कि क्या इसमें सारा दोष बच्चों का ही है? पुराने लोगों के मुँह से सुना है कि मनुष्य जैसा करता है, उसे जीवन में वैसा ही भरना पड़ता है. मैं सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वृद्धाश्रम में रहने वाले ये लोग जब जवान थे, तो इन्होंने अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ बुरा व्यवहार किया हो, जिसका परिणाम आज इन्हें मिल रहा है? वरना क्या कारण है कि मैंने ऐसे भी परिवार देखे हैं, जहाँ बच्चे अपने बुजुर्गों को पलकों पर बैठा कर रखते हैं. उन्हें ज़रा भी तकलीफ नहीं होने देते. उनका देवतुल्य सम्मान करते हैं. लेकिन यह प्रश्न भी मन में आया कि क्या वृद्धाश्रम में रहने वाले सभी बुजुर्गों ने जवानी में अपने माता-पिता के साथ बुरा व्यवहार किया होगा? परन्तु बात इतनी सीधी भी नहीं है. जीवन दो दुनी चार के गणित से कब चलता है! यह भी हो सकता है कि इनमें से कुछ लोगों ने ऐसा न किया हो और कुछ मामलों में उनके बच्चे दोषी हों. अचानक मेरे दिमाग में एक बात आयी कि हमारे शास्त्रों में माता-पिता की सेवा को परम धर्म मानने पर इतना अधिक जोर क्यों दिया गया है? उन्हें ईश्वरतुल्य मानने को क्यों कहा गया है? इस बात पर हद से अधिक जोर क्यों दिया गया है? आखिर हम उस बात की ही ज्यादा चर्चा करते हैं जिसका अभाव होता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि पुराने समय से ही ऐसा चला आ रहा हो? चार सौ साल पहले संत तुलसीदास ने भी तो कहा है कि- “ सुत मानहिं मात पिता जब लौ, अबलानन दीख नहीं जब लौ”. और “ससुरार पियारि लगी जब ते, रिपु रूप कुटुम्बी भये तब ते”. यानी उस समय भी ऐसा होता था. अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी इस आशय के भाव सामने आते हैं. एक और बात मन में आयी कि अनेक मामलों में एक अवस्था के बाद माता-पिता संतानों को बोझ लगने लगते हैं. बेटा जब छोटा होता है, तब अपनी हर ज़रुरत के लिए माता-पिता पर निर्भर रहता है. उम्र बढ़ने के साथ उसकी उन पर निर्भरता कम होने लगती है. जवानी में वह आत्मनिर्भर हो जाता है. शादी के बाद पत्नी के प्रेम या मोह में पड़कर माता-पिता के प्रति उसका लगाव कम हो जाता है और किसी हद तक वह उनकी उपेक्षा तक करने लगता है. इससे माता-पिता के अहं को ठेस लगती है. स्त्रियों के मामले में तो ऐसा होता है कि बेटे की शादी के पहले वह घर की मालकिन होती हैं. उनकी बात क़ानून होती है. बहू आने पर उनकी स्थिति उतनी मजबूत नहीं रह जाती. यदि पति का निधन हो जाए तो, वह और अधिक कमज़ोर हो जाती है. बहू के अधिकार और प्रभाव में निरंतर बढ़ोत्तरी होती रहती है. समझदार स्त्रियाँ हालात से समझोता कर बेटे और बहू के मामलों में दखल नहीं देतीं और घर में भी बहुत अधिक अपनी चलाने की कोशिश नहीं करतीं. लेकिन ऐसा बहुत कम स्त्रियाँ कर पाती हैं. लिहाजा बहू से खटपट चलती रहती है. आखिर सत्ता के हाथ से निकल जाने का दुःख कम तो नहीं होता? वे बोखलाहट में राजनीति और कुटिलता पर तक उतर आती हैं. बहू और बेटे के बीच खाई पैदा करने की कोशिश करती हैं. वे चाहती हैं कि हर मामले में बेटा हमेशा उनका ही पक्ष ले. वे दूसरों के सामने बहू को खलनायिका के रूप में प्रस्तुत करती हैं. लिहाजा, घर की कलह बढती जाती है. दोनों के बीच में बेचारा बेटा पिसता रहता है.कुछ बेटे माँ को कुछ न कहकर पत्नी को डाँटते-फटकारते रहते हैं, तो कुछ माँ को ही बुरा-भला कह देते हैं. पिता के साथ भी ऐसा होता है. वह घर का मालिक रहा होता है. वह चाहता है कि बच्चे हमेशा उसे ऐसा ही मानते रहें. लेकिन बच्चों के बड़े होने पर और उनकी शादी होने और बच्चे हो जाने पर ऐसा नहीं हो पाता. लिहाजा पिता भी अपना खोया वर्चस्व दुबारा पाने के लिए बहुत से हथकंडे अपनाते रहते हैं. वृद्धाश्रमों में रहने वाले ऐसे अनेक पुरुष हैं जिनकी घर में बेमतलब दखलंदाजी और ख़राब व्यवहार के कारण बेटे उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ गये.  हमारे शास्त्रों में जीवन के तीसरे चरण में पुरुषों को वानप्रस्थ होने की सलाह इसीलिए दी गयी है. वे वन में तो नहीं जाएँ, लेकिन घर में ऐसे रहें कि जैसे हैं ही नहीं और अपने अनुभवों से परिवार और समाज के हित में काम करते रहें. किसी मामले में पूछे जाने पर या बिना पूछे भी सलाह तो दें, लेकिन उसे मनवाने पर जोर न दें. वानप्रस्थ  की अवधारणा मनुष्य के मनोविज्ञान पर आधारित है. अब प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति कैसे निर्मित की जाए कि बुजुर्गों को वृधाश्रम में रहने की ज़रूरत न पड़े. इसके लिए बच्चों में अच्छे संस्कार के बीच बहुत कम उम्र से ही आरोपित करने की ज़रुरत है. बच्चे माता-पिता का अनुकरण करते हैं. आप सिर्फ उपदेश देकर या ग्रंथों का हवाला देखर संस्कारित नहीं कर सकते. आपको उनके सामने अपने माता-पिता का सम्मान करने का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना होगा. बुजुर्गों को अपनी आयु और परिस्थति देखकर “दखलुद्दीन” बनने से बचना होगा. संतान को बड़े होने पर अपने ढंग से जीने की आज़ादी दें और जहाँ आवश्यक हो वहाँ शालीनता की परिधि में ही उन्हें परामर्श दें. ऐसा कभी नहीं हो सकता कि आप अपने माता-पिता के साथ बुरा व्यवहार करें और ख़ुद बूढ़े होने पर यह उम्मीद करें कि आपकी संतान आपको पलकों पर बैठाएगी.इस तरह आज बुजुर्गों की अधिकतर परिवारों में जो दुर्दशा है, उसके लिए वे स्वयं भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं. लेकिन बच्चों को एक बात याद रखनी चाहिए कि माता-पिता की बहुत-सी ऎसी बातों की अनदेखी की जाए, जो आपको अच्छी नहीं लगतीं. आखिर उन्होंने आपको जन्म देखर पाला-पोसा है. आप जो भी हैं, उसमें उनका सबसे अधिक योगदान है. उनके प्रति कृतज्ञ रहें और ऎसी स्थिति उत्पन्न न होने दें, कि उन्हें वृद्धाश्रम का रास्ता अपनाना पड़े.