ओंकार त्रयी- विद्या का सार


स्टोरी हाइलाइट्स

देवताओं ने मृत्यु से बचने के लिए विद्या- त्रयी अर्थात ऋक , यजु: और साम की गुहा का आश्रय लिया , परन्तु वहां भी मृत्यु ने देवताओं का पीछा नहीं छोड़ा ।

ओंकार त्रयी- विद्या का सार

Omkar-newspuran देवताओं ने मृत्यु से बचने के लिए विद्या- त्रयी अर्थात ऋक , यजु: और साम की गुहा का आश्रय लिया , परन्तु वहां भी मृत्यु ने देवताओं का पीछा नहीं छोड़ा । तब देवता वहां से भागे तथा वे ओंकार की शरण में आये । ओंकार वेद-त्रयी से बड़ा गढ़ है , वह शत्रु के लिए दुर्गम और असाध्य है। वहां मृत्यु का प्रवेश असम्भव है। अत: देवता अमर हो गये।
इसीलिए उपनिषदों में ऋषियों ने उपदेश दिया कि जो मृत्यु के भय से छूटना चाहते हैं , उन्हें ओंकार की उपासना करनी चाहिए। यह कथा छान्दोग्योपनिषद में वर्णित है। ओंकार त्रयी- विद्या का सार है। ओंकार की विद्या अविनाशी है, अमृतत्व और ब्रह्मपद को प्रदान करने वाली है।ओंकार सभी रसों में सर्वश्रेष्ठ है, अर्थात सात छलनियों में छना ' रसशेखर ' है । ओंकार को ' प्रणव ' अर्थत: उत्तम ढंग से की गयी स्तुति ही कहा जाता है। ओंकार ध्वनि ही 'परमब्रह्म ' की वाचक है। उद्गीथ का अर्थ है -- उत्तम गायन , यह भी ओंकार का दूसरा नाम है । ॐ की ह्रदय से उपासना की जाती है ।

ओंकार प्राण का प्रतीक है , वाणी और प्राण का संयोग ओंकार से हुवा है । प्राण ही प्रणव है , प्राण और सूर्य दोनों ही समान हैं । प्राण को ' अंगिरस ' अर्थत: अंगों का सार कहा गया है। अंगिरस ऋषि को इस रस की प्राप्ति हो गयी थी। बृहस्पति ने उद्गीथ के रूप में उपासना की थी । संत ज्ञानेश्वर कहते हैं कि ओंकार कि तीनों मात्राएँ जब मिलकर एकाकार होती हैं , तब उसमें सारे वेद समा जाते हैं। उस ओंकार रूप में आदि बीज की उसी रूप में वे गणपति को प्रणाम करते हैं।

अ + उ+ म इन तीनों की संधि से ओंकार बना है। ये तीन वर्ण तीन मात्राएँ कहलाती हैं ।इन तीन मात्राओं के अलग - अलग क्षेत्रों में अलग - अलग अर्थ होते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड तीन मात्राओं में विभक्त है। 'अ' अक्षर जगत की अवस्था में उत्पत्ति , अक्षर - उच्चारण में मुंह का खुलना , शरीर - अवस्था में जागृत , लोक में पृथ्वी , लोक-- देवता अग्नि , कर्म -- इन्द्रिय -कर्म तथा उपलब्धि में ऐश्वर्य है । ' उ ' अक्षर जगत की अवस्था में विस्तार , उच्चारण में मुंह का विस्तार , शरीर अवस्था में स्वप्न , लोक में अन्तरिक्ष , लोक - देवता -- वायु , कर्म में मानसिक तथा उपलब्ब्धि में यश, उन्नति और तेज है । ' म ' अक्षर जगत की अवस्था में प्रलय, उच्चारण में मुंह बंद , शरीर अवस्था में सुषुप्ति लोक में द्युलोक , लोक- देवता में सूर्य - आदित्य , कर्म में वैदिक कर्म - आध्यात्मिक तथा उपलब्धि में ब्रह्म - साक्षात्कार है । ओंकार की अर्द्ध मात्रा -- उपर्युक्त तीनों मात्राओं में सम्पर्क एवं समन्वय स्थापित करती है । यह सहिष्णुता और प्राणी - मात्र में ईश्वरीय - भावना जागृत करती है। वह ज्ञान द्वारा ज्योतित , पाप - पुण्य से अलिप्त शांत आत्मा की प्रतीक है ।

'ॐ शांति: शांति: शांति: ' बोलने का यही अर्थ है कि तीनों लोकों में त्रय - तापों से शांति हो, सभी धर्मों से ऊपर की स्थिति हो। आना - जाना , लेना - देना , जीवन - मरण , इच्छा - अनिच्छा के लुप्त होने पर मात्र शांति ही शेष रहे । ओंकार -हीन मंत्र पंगु माने जाते हैं, ओंकार पूर्वक किया गया कार्य ही सात्विक माना जाता है।
ओंकार हमारे प्रारंभ किए गये कार्यों कों निर्विघ्नता से सफल होने में सहायता करता है। ओंकार की उपासना से यज्ञ , दान और तप बंधक न होकर मोक्ष - दायक हो जाते हैं। यदि कर्मों के प्रारंभ में ॐ तत्सत का प्रयोग किया जाता है तो उस कर्म से मोक्ष की प्राप्ति सहज रूप से हो जाती है ।