17 जनवरी 1601 असीरगढ़ पर धोखे से कब्जा किया था अकबर महान ने…
17 जनवरी 1601 असीरगढ़ पर धोखे से कब्जा किया था अकबर महान ने…
खून-खराबा, लूट सप्ताह भर चली
बचपन की पाठ्यपुस्तकों में मुगल बादशाह अकबर को महान पढ़ा था। उन पुस्तकों में कुछ उदाहरण भी थे। इस कारण अकबर को और समझने की जिज्ञासा सदैव बनी रही। आगे चलकर उनकी महानता की अनेक कहानियाँ पढ़ी। उनमें एक है मध्यप्रदेश में सतपुड़ा के शिखर पर बने असीरगढ के किले पर अकबर महान के कब्जे का विवरण, जो उन्होंने धोखे से किया था। कब्जे के बाद किले में लूट और हत्याकांड का सिलसिला एक सप्ताह तक चला। अकबर महान ने यह धोखा असीरगढ के सूबेदार बहादुर शाह फारुकी के साथ किया था। हालांकि फारूकी खानदान ने भी इस किले पर धोखा देकर ही कब्जा किया था| वही धोखा उनके सामने आया। असीरगढ का यह किला बुरहानपुर जिले में है। जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर की दूरी पर। जो संसार के प्राचीनतम पर्वतों में से एक सतपुड़ा के शिखर पर बना है। सतपुड़ा हिमालय से भी प्रचीन पर्वत है। उसी के शिखर पर यह यह किला बना है जिसकी गिनती दुनियाँ के अजेय किलों में की जाती है।
यह किला कब बना किसने बनाया? इसका निश्चित विवरण कहीं नहीं मिलता। फिर भी निर्माण कला बारहवीं सदी की है। हालाँकि किले की नींव और कुछ निर्माण ईसा पूर्व के भी लगते हैं। पुरातत्व विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्माण अति प्राचीन है। समय के साथ पुनर्निर्माण होते रहे हैं। इस कारण इसके अस्तित्व में विविधता है, हर युग की शिल्प कला झलकती है। स्थानीय नागरिकों में यह धारणा प्रबल है कि यह स्थान रामायण काल में भी समृद्ध था और पांडव काल में भी। किले में भगवान् गुप्तेश्वर मंदिर है। इस मंदिर के बारे में यह धारणा भी है कि यहां प्रतिदिन अश्वत्थामा पूजन के लिये आते हैं। इस मंदिर में कुछ आश्चर्य तो हैं जो लोग लोगों की जिज्ञासा का कारण हैं। और उन्ही से अश्वत्थामा की किंवदंती को बल मिलता है। असीरगढ़ के इतिहास के बारे में जो विवरण मिलता हैं वह इतिहासकार मोहम्मद कासिम द्वारा लिखित है। उनके अनुसार यह निर्माण बारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच हुआ। किले को आशा अहीर ने बनवाया था और उन्ही के नाम पर किले का नाम असीरगढ़ पढ़ा। पर आशा अहीर का भी अधिक विवरण नहीं मिलता। बहादुरशाह फारूकी के परिवार ने इन्हीं आशा अहीर से यह किला धोखा देकर पाया था। इतिहासकार मोहम्मद कासिम के विवरण के अनुसार दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक का एक सरदार था मलिक फारूकी।
दिल्ली के सत्ता संघर्ष में मलिक फारूकी अपने साथी सिपाहियों के साथ दिल्ली से दक्षिण की ओर चल दिया। उन दिनों बुरहानपुर और असीरगढ़ को दक्षिण का द्वार माना जाता था। दिल्ली के हर शासक ने असीरगढ़ पर हमला किया महीनों घेरा रहा, तोपें चलीं, पर कोई सफल न हो पाया। अधिकांश हमले बेकार हुये। इसका कारण किले की ऊँचाई है। उस युग में असीरगढ़ एक समृद्ध नगर हुआ करता था| जो बार बार के हमलों में पूरी तरह उजड़ गया और अब एक छोटा सा गाँव रह गया। मलिक फारूकी अपने दल के साथ असीरगढ़ आया। अपना कैंप नगर के बाहर लगाया। वह अपने साथ कुछ भेंट लाया था। उसने किलेदार आशा अहीर को खबर भेजी कि उसके परिवार और परिवार की महिलाओं की जान खतरे में है। शरण चाहिए। उदार आशा अहीर ने परिवार की सुरक्षा का आश्वासन दिया और किले के दरवाजे खोल दिये। मलिक फारूकी ने कुछ डोले भेजे और कहा कि इनमें बहन बेटियाँ हैं। आशा अहीर ने अपने पुत्रों को उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी। जैसे ही डोले किले के भीतर पहुँचे उन डोलों में से सैनिक निकल पड़े। उन्होंने सबसे पहले आशा अहीर के पुत्रों को मार डाला और मलिक फारूकी ने आशा अहीर को। इस तरह मलिक फारूकी ने किले पर कब्जा कर लिया। लूट हत्या बलात्कार का सिलसिला चला। किले के भीतर वही जीवित बचा जिसने इस्लाम कबूला बाकी सब मार डाले गये। मंदिर तोड़ दिये गये। उन्हे रूपान्तरण करके मस्जिदों में बदल दिया गया। आज भी वहां मस्जिदों में मंदिरों की नक्काशी के पत्थर देखे जा सकते हैं। जिस सूबेदार बहादुर शाह फारूकी से बादशाह अकबर ने किला छीना वह इस मलिक फारूकी का वंशज था।
अकबर ने 1600 में दक्षिण का रुख किया। उसकी फौज कहर बरपाती हुई असीरगढ़ पहुँची। किले पर कोई छै माह तक घेरा पड़ा रहा लेकिन सफलता नहीं मिली और न बहादुरशाह विचलित हुआ। इसका कारण यह था कि किले के भीतर राशन पानी का पर्याप्त प्रबंध था। फारुखी भीतर सुरक्षित रहा। जब तोप के गोले भी बेअसर हुये तब अकबर ने चाल चली उसने कीमती भेंट भेजकर दोस्ती का संदेश दिया और कहा कि वे लौट रहे हैं जाते जाते दोस्ती का हाथ मिलाना चाहते हैं। साथ दावत करना चाहते हैं। फारुखी को यकीन हो इसके लिये अकबर ने तोपखाना रवाना कर दिया था। इस संदेश पर फारुकी ने कोई एक सप्ताह विचार किया। और पता लगाया। उसे सूचना मिली कि न केवल तोपखाना बल्कि आधी फौज भी वापस हो चुकी है। उसने दोस्ती का पैगाम कबूल कर लिया और अपने परिवार सहित दावत करने अकबर के कैंप में आ गया। वह 17 जनवरी 1601 की तिथि थी। वह दोपहर में आया। अकबर ने स्वागत किया। साथ भोजन की दावत हुई और बातचीत के लिये दूसरे पांडाल में गये । वहां पहले से यह प्रबंध था कि कौन कहाँ बैठेंगे । सब लोग निर्धारित आसन पर बैठकर बातें करने लगे। तभी अचानक फारुकी और उसके बेटों पर पीछे से हमले हुये और पकड़ लिये गये। इसके साथ ही मुगल घुड़सवार किले में दाखिल हुये। बंदी के रूप में फारूकी के दो बेटों को साथ ले जाया गया। एक बेटा और फारुकी को नीचे ही बंदी रखा गया। वहां घोषणा हुई कि यदि किसी ने विरोध किया तो फारुकी और उसके पूरे खानदान को कत्ल कर दिया जायेगा। यह सुनकर सब लोग सिर झुका कर खड़े हो गये। सैनिकों ने सबसे पहले शस्त्रागार पर कब्जा किया फिर जनानखाने पर फिर धन पूछा गया । जनानखाने और वफादारों को अकबर महान के सामने प्रस्तुत किया गया। पुरूषों को कत्ल करने का हुक्म हुआ और महिलाएं सैनिकों को भेंट कर दी गयी। असीरगढ़ के इस किले पर 17 जनवरी 1601 से 1760 तक मुगलों का कब्जा रहा । 1760 में मराठों ने इस किले पर अपना आधिपत्य किया। जो मंदिर असीरगढ़ में आज दीख रहे हैं उनका जीर्णोद्धार मराठा काल में ही हुआ। किले पर मराठों का आधिपत्य 1760 से 1819 तक रहा । इसके बाद यह किला कुछ वर्षों तक वीरान यहाँ फिर 1904 में किले पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया। किले में अनेक शिलालेख हैं जो अधिकांश मुगल काल के हैं । रमेश शर्मा भोपाल से........