किसान आन्दोलन के बहाने, वैचारिक ईमानदारी नहीं होने का शिकार हुआ आन्दोलन -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

The peasant movement that has been going on in the country for the last several days has become a victim of ideological dishonesty like some other movements in recent years.

किसान आन्दोलन के बहाने वैचारिक ईमानदारी नहीं होने का शिकार हुआ आन्दोलन -दिनेश मालवीय देश में पिछले कई दिनों से चल रहा किसान आन्दोलन हाल ही के वर्षों में कुछ दूसरे आंदोलनों की तरह वैचारिक बईमानी का शिकार हो गया. देश के भीतर इस आन्दोलन को लेकर दो स्पष्ट बात का विभाजन दिखाई दे रहा है. एक तरफ वे लोग हैं, जो एकतरफा इस आन्दोलन का अंध समर्थन कर रहे हैं. दूसरी तरफ लोग इसका खुलकर विरोध कर रहे हैं. दोनों के भीतर राजनैतिक और वैचारिक ईमानदारी का अभाव है. यदि किसान उनके लिए सरकार द्वारा लाये गये कानूनों का विरोध कर रहे हैं और उनको समाप्त करवाना चाहते हैं, तो आन्दोलन में खालिस्तान समर्थक नारे क्यों लगाए जा रहे हैं? योगराजसिंह जैसे लोग हिन्दुओं की माता-बहनों के बारे में अनुचित बातें क्यों कर रहे हैं? भारत के राष्ट्रध्वज का अपमान क्यों किया जा रहा है? सभी राजनैतिक दलों को इन कानूनों में सिर्फ खराबियाँ ही क्यों दिखाई दे रही हैं? उपरोक्त बातों से क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि यह निखासिल किसान आन्दोलन नहीं है. यदि इन कानूनों में कोई कमी है, तो उन्हें दूर करने के लिए सरकार तैयार है. लेकिन एकदम से उन्हें ख़त्म करने से कम किसी बात पर भी सहमत न होने की बात कहना हठधर्मी अधिक दिखाई देती है. इसमें आने वाले समय में पंजाब में होने वाले चुनाव का एजेण्डा भी दिखाई देता है. जो लोग इन कानूनों का समर्थन कर रहे हैं, वे भी वैचरिक रूप से निष्पक्ष प्रतीत नहीं होते. लेकिन उन्हें सिर्फ “अंधभक्त” कहकर खारिज नहीं किया जा सकता. हालाकि इनमें से अधिकतर को इन कानूनों के प्रावधानों के बारे में कुछ पता नहीं होगा. लेकिन किसान आन्दोलन में जो खालिस्तानी समर्थन और विरोधी बातें हो रहीं हैं, उसके कारण क़ानून के समर्थकों को बल मिल रहा है. किसानों के इस आन्दोलन के प्रति आम लोगों के मन में संदेह पैदा हो रहा है. यदि वास्तव में इसका सम्बन्ध किसानों के हितों के संरक्षण से है, तो फिर वो बातें क्यों हो रही हैं, जिनका किसानों और उनके हितों से कोई सम्बन्ध ही नहीं है?   किसानों के लिए बनाए गये कानूनों को यदि वापस भी ले लिया जाए, तो इसके दुष्परिणामों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती. यह एक नजीर बन जायेगी. कोई भी इस तरह आन्दोलन करके हठधर्मितापूर्वक किसी भी चीज को लागू करने या हटाने की मांग लेकर देश के मुख्य मार्गों को रोक देगा. क्या इससे देश अराजकता की ओर नहीं चला जाएगा? हमारे राजनैतिक दलों के लिए क्या राजनैतिक लाभ देश के हितों से ऊपर ही रहेंगे? किसी भी चीज का सिर्फ इसलिए विरोध किया जाएगा कि उसे वर्तमान सरकार कर रही है? किसी भी मुद्दे पर गुण-दोष के आधार पर विचार नहीं किया जाएगा? यदि ऐसा है, तो यह देश के लिए बहुत घातक है. किसान आन्दोलन से परे हटकर भी देश में जो राजनैतिक परिदृश्य दिखाई दे रहा है उससे बहुत निराशा होती है. ऐसा लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता. चुनाव में अपने साथ लाने के लिए कोई मुसलामानों से गुफ्तगू कर रहा है, कोई हिंदुत्व की दुहाई दे रहा है,  कोई दलितों में "दलितत्व" को उभार रहा है, कोई सवर्णों को एकजुट होने को कह रहा है, कोई किसानों को अपने साथ लाने के लिए किसी भी सीमा तक जा रहा है.  और भी इसी तरह की बातें करके किसी तरह विभिन्न वर्गों के लोगों के एकमुश्त वोट पाना ही हर किसी का मकसद रह गया लगता है. इन्हीं बातों के चलते हम एक संगठित और मजबूत समाज बन ही नहीं पा रहे. जब भी समुदायों और वर्गों में कुछ सौमनस्य आने लगता है, सियासी लोग फौरन किसी न किसी बहाने वैमनस्य फैलाने में लग जाते हैं. हमारे नेताओं और दलों में इस प्रकार की दुष्प्रवृति कब से और किस प्रकार आयी इसका ठीक-ठीक तो नहीं पता, लेकिन  कुछ अंदाज तो है. आज़ादी के बाद कुछ वर्षों तक देश की राजनीति में धर्म, जाति जैसे फेक्टर नहीं थे. लेकिन उसके बाद यह एक आम चलन हो गया. फिर बाहुबली लोग आ गये, जिससे गुंडागर्दी और पैसे का नया फेक्टर जुड़ गया. इसके बाद मंडल आया और उसके जबाव में कमंडल आ गया. फिर दलित फेक्टर जुड़ गया और अब सवर्ण फेक्टर जुड़ने की कोशिश कर रहा है. धीरे-धीरे हम भारतीय न रह कर किसी जाति,  मजहब या वर्ग के समर्थक या विरोधी ही बन कर रह गए हैं. हमारे लिए अपनी राष्ट्रीय पहचान से पहले सामुदायिक और जातीय पहचान हो गयी. यह पहचान इतनी प्रबल हो गयी है कि हमारी राष्ट्रीय पहचान कभी-कभार किसी खास मौके पर ही जोर मारती है और उसके बाद फिर खो जाती है. डराने का काम भी खूब चल रहा है. मुसलामानों को हिन्दुओं से डराया जा रहा है, हिन्दुओं को मुसलामानों से डराया जा रहा है, दलितों को सवर्णों से डराया जा रहा है, सवर्णों को दलितों से डराया जा रहा है. इस तरह डरा-डरा कर सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं. इसके लिए कई तरह की झूठी बातें भी फैलाई जाती हैं. अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोगों को इस प्रकार की गतिविधयों में लिप्त होते देखा जा सकता है. सोचता हूँ कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए? लोगों को इस प्रकार की बातें करने वालों की नीयत को समझकर उनकी बातों  में नहीं आना चाहिए. उस पर जब वे ध्यान नहीं देंगे तो लोग ऎसी बातें करेंगे ही नहीं. सबको यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि हिन्दू, मुसलमान, दलित, सवर्ण, गरीब, अमीर, किसान, व्यापारी, नेता, सबको जीना और मरना इसी सरज़मीं पर ही है. मिलकर रह लो या लड़कर. किसी की भी बातों में आकर आपसी सम्बंध ख़राब न किये जाएँ. बनने में सदियाँ लग जाती हैं, बिगड़ने में पल नहीं लगता. सोचिये कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हमें कैसा समाज और देश छोड़ कर जाना है. आपस में लड़ने के बजाय पिछड़ेपन, गरीबी और बेरोजगारी से लड़ना शुरू किया जाए. पहले जो हो चुका वह हो चुका. उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता, लेकिन अब ऐसा न हो इसके लिए ज़रूर हम समझदारी दिखा सकते हैं.