भारतीय साहित्य में परातंत्र साधना


स्टोरी हाइलाइट्स

भारतीय साहित्य में परातंत्र साधना तन्त्र शास्त्र के अनुसार तन्त्र का मूल कोई पुस्तक नहीं है। यह अपौरुषेय ज्ञान है। तन्त्र मत में परा वाक् ही अखण्ड आगम है। पश्यन्ती में यह स्वयं प्रकाश रूप है, यही साक्षात्कार की अवस्था है। दूसरे में ज्ञान मध्यमा में उतर कर शब्द का आकार लेता है, यहीं विभिन्न शास्त्र एवं गुरु परम्परा प्रकट होती है। बैखरी में यह ज्ञान स्थूल रूप धारण करता है। अतः वेद और तंत्र की मौलिक दृष्टि एक ही है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी भारतीय संस्कृति के बारे में विचार करने से लगता है कि दोनों साधना धाराओं का घनिष्ठ सम्बन्ध था ऐसी प्रसिद्धि है कि बहतेरे देवताओं ने तांत्रिक साधना के प्रभाव से ही सिद्धि प्राप्त की थी। तान्त्रिक साधना का परम आदर्श था शाक्त-साधना। इस साधना का लक्ष्य है महाशक्ति जगदम्बा की मातृरूप में उपासना करना या शिवोपासना। श्री शंकराचार्य एक और जैसे वैदिक धर्म के संस्थापक थे, वैसे ही दूसरी ओर वह तांत्रिक धर्म के प्रचारक और उपदेष्टा थे। श्री शंकर की तांत्रिक रचनावली में 'प्रपंचसार' प्रधान है, इसके बाद ही 'सौन्दर्य लहरी' आदि हैं। सोम या उमासहित अर्थात् शिव शक्ति युगल, विश्वामित्र आदि की संसार सृष्टि का वर्णन शास्त्र में है। तांत्रिक अध्यात्म दृष्टि का लक्ष्य इसी परिपूर्ण अवस्था को पाना है, मात्र स्वर्गलोक, ऊर्ध्वलोक और लोकान्तरों में गति अथवा कैवल्य या निरंजन भाव की प्राप्ति का पद पाना नहीं। मनुष्य मात्र ही इस अवस्था पाने को सक्षम है। यही तांत्रिक संस्कृति का अवदान है। पं गोपीनाथ