एक समय था जब महिलाओं को मिलता था पुरुषों से ज्यादा सम्मान


स्टोरी हाइलाइट्स

प्राचीन, मध्य युग व आधुनिक युग में महिलाओं का स्थान:
  वैदिक युग में महिलाओं की क्या स्थिति थी? क्या प्राचीन काल में महिलाओं को पूजा जाता था? क्या महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर सकती हैं? महिलाओं को लेकर अलग अलग युगों में क्या नियम थे?
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता"

उक्त श्लोक से स्पष्ट है कि किसी भी समाज की खुशहाली का आधार उस समाज में महिलाओं के स्तर व उन्हें प्राप्त सम्मान से आँका जा सकता है. इतिहास गवाह है. कि जिन समाजों में महिलाओं को बराबरी अथवा उच्चतर दर्जा प्राप्त है, वे विकास व प्रगति की दौड़ में अपने समकालीनों से मीलों आगे रहे हैं नेपोलियन बोनापार्ट जैसे सेनानायक ने महिलाओं को शिशु व समाज दोनों की आनुषंगिक पाठशाला स्वीकारते हुए एक महान राष्ट्र के निर्माण में उनकी उपा देयता यूँ ही अकारण स्वीकार नहीं की थी|



भारतीय समाज में महिलाओं को प्राप्त स्थान को सामान्य रूप से प्राचीन, मध्य युग व आधुनिक के तीन आयामों में वर्गीकृत कर देखा जा सकता है.

यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि वैदिक युग समाज महिला सम्मान व सशक्तिकरण का स्वर्णयुग था. याज्ञवलक्य जैसे महाविद्वान् के पांडित्य के दंभ को शास्त्रार्थ की चुनौती देकर चूर करने वाली गार्गी सहित मैत्रेयी, घोषा, अपाला व लोपा मुद्रा जैसी विदुषियों की लम्बी श्रृंखला तत्कालीन युग में महिलाओं की समाज में गौरवशाली स्थिति बताने के लिए पर्याप्त है. स्वयंवर से लेकर उपनयन व अन्तिम संस्कार तक महिलाओं की सहभागिता के पर्याप्त प्रमाण प्राचीन ग्रन्थों में सर्वत्र उपलब्ध हैं.

कदाचित् महिला सम्मान के पराभव का आरम्भ उत्तर स्मृतिकालीन युग से माना जा सकता है. जब महिलाओं के जीवन का त्रिविमीय विभाजन कर उसे क्रमशः पिता, पति व पुत्र के अधीन कर दिया गया महिला सम्मान व स्वातंत्र्य समाप्ति का यह मात्र प्रथम सोपान था|

मध्य युग आते-आते महिलाओं की समाज में स्थिति व सम्मान उत्तरोत्तर पतन से भयावह स्थिति में पहुँच गया. विदेशी आक्रमण जन्य असुरक्षा ने बाल विवाह, सती प्रथा, जौहर व पर्दा प्रथा जैसी तमाम कुरीतियों को जन्म दिया वैदिक युग की स्वतंत्र स्वछन्द व उन्मुक्त नारी गृहकार्य में कैद होकर रह गई. रही सही कसर "ढोल, गंवार नारी" जैसे विशेषणों का प्रयोग करते हुए तुलसी जैसे मनस्वियों ने पूरी कर दी. इन सबके बावजूद दासता के अनंत तिमिराकाश में रजिया सुल्तान, दुर्गावती, जीजाबाई, कर्णवती व अहिल्याबाई जैसी कुछ रश्मियाँ अल्पकाल के लिए चमकीं अवश्य, किन्तु वे गिनती भर की ही थीं|

YesImWomen_Newspuranमध्य युग के अवसान के साथ ही नवयुग का आगमन ब्रिटिश दासता की सौगात तो अवश्य लेकर आया, किन्तु यूरोपीय पुनर्जागरण के सकारात्मक प्रभावों से भारतीय उपमहाद्वीप भी अप्रभावित न रह सका, महिलाओं को समाज में उनका खोया हुआ सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए सामाजिक व विधिक दोनों ही स्तरों पर राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती आदि समाज सुधारकों व लॉर्ड विलियम बैंटिंक जैसे गवर्नर जनरलों ने मिलकर गम्भीर प्रयास किए सती प्रथा उन्मूलन व शारदा एक्ट इसी के परिणाम थे|

इसी प्रकार महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में लिखा, "जब तक आधी मानवता की आँखों में आँसू हैं, मानवता पूर्ण नहीं कही जा सकती." इसी के साथ स्वतंत्रता व समानता पर आधारित लोकतांत्रिक मूल्यों की बयार ने भी महिलाओं को घर की दहलीज से निकालकर विश्व पटल पर स्थापित कर दिया. नीति नियामक स्तर पर यह भी महसूस किया गया कि बिना आधी आबादी की भागीदारी के किसी भी लोक हितकारी कार्यक्रम की शतप्रतिशत सफलता सुनिश्चत नहीं है. कई लब्धप्रसिद्ध लेखकों ने तो स्वयं को नारीवादी (Feminist) ही घोषित कर दिया.

साहित्यिक स्तर पर छायावादी युग के जयशंकर प्रसाद ने उद्घोषित किया- 

नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में। पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में।। 

महिला सशक्तिकरण के तमाम अभियानों और आन्दोलनों का ही परिणाम था कि 20वीं सदी के उत्तरार्ध ने सीरिमावो भंडारनायके, गोल्डा मायर, मार्गेट थैचर, इन्दिरा गांधी व बेनजीर भुट्टो जैसी वैश्विक विभूतियाँ देखीं, जिनकी अभूतपूर्व सफलताओं ने पूरे विश्व में महिलाओं का मान बढ़ाया. आगे चलकर तो विश्व पटल पर महिलाओं ने बहुत अच्छा मुकाम हासिल किया| 

किन्तु इसी तस्वीर का एक स्याह पहलू भी है. अपवादों को छोड़कर सत्ता और समाज में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी सामंती पितृसत्तात्मक मानसिकता व पुरुषोचित अहं को बहुत रास नहीं आई. महिलाओं के विरुद्ध दिनों-दिन बढ़ते अपराध के आँकड़े इसकी पुष्टि करते हैं. स्थिति इतनी चिन्ता जनक है कि बरबस कहना पड़ता है|

'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,

आंचल में है दूध और आँखों में पानी।"