तत्व-प्राप्ति में निषेधात्मक साधन मुख्य है । किसी भी साधक को 3 बातों को स्वीकार कर लेना आवश्यक है -


स्टोरी हाइलाइट्स

मैं शरीर नहीं हूँ :- मैं चिन्मय सत्तारूप हूँ, शरीर रूप नही हूँ । हमारी सत्ता (होनापन) शरीर के अधीन नहीं है । शरीर के साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं,....

तत्व-प्राप्ति में निषेधात्मक साधन मुख्य है । किसी भी साधक को 3 बातों को स्वीकार कर लेना आवश्यक है - १. मैं शरीर नहीं हूँ :- मैं चिन्मय सत्तारूप हूँ, शरीर रूप नही हूँ । हमारी सत्ता (होनापन) शरीर के अधीन नहीं है । शरीर के साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । शरीर को अपना मानना मूल दोष है, जिससे संपूर्ण दोषों की उत्पत्ति होती है । जन्मना मरना हमारा धर्म नहीं है प्रत्युत शरीर का धर्म है । २. शरीर मेरा नही है :- अनंत ब्रह्माण्डों में तिनके जितनी वस्तु भी हमारी नही हैं फिर शरीर हमारा कैसे हुआ ? शरीर संसार के व्यवहार (कर्तव्यपालन) के लिए अपना माना हुआ है । यह वास्तव में अपना नही है । शरीर सर्वथा प्रकृति का है । शरीर पर हमारा कोई वश नहीं चलता । हम अपनी इच्छा के अनुसार शरीर को बदल नही सकते, बूढ़े से जवान तथा रोगी से निरोग नहीं बन सकते । जिस पर वश न चले उसको अपना मान लेना मूर्खता ही है । ३. शरीर मेरे लिए नही हैं :- शरीर आदि वस्तुएँ संसार के काम आती हैं, हमारे काम नहीं। शरीर केवल कर्म करने का साधन है और कर्म केवल संसार के लिए ही होता है । शरीर परिवार, समाज अथवा संसार की सेवा के लिये है अपने लिये है ही नहीं । महिमा शरीर की नही, प्रत्युत विवेक की है । आकृति का नाम मनुष्य नहीं है प्रत्युत विवेक-शक्ति का नाम मनुष्य है । By Adham Shiromani