धर्म सूत्र : 17: जीव से जगदात्मा और ब्रह्म से पूर्ण-परब्रह्म की यात्रा : अतुल विनोद


स्टोरी हाइलाइट्स

जीवन की सच्चाई सुनने में बहुत कड़वी है लेकिन जानने के बाद यह मीठी गोली की तरह हो जाती है|क्योंकि सच्चाई हमारी आंखें खोलती है|

धर्म सूत्र : 17: जीव से जगदात्मा और ब्रह्म से पूर्ण-परब्रह्म की यात्रा  जीवन की सच्चाई सुनने में बहुत कड़वी है लेकिन जानने के बाद यह मीठी गोली की तरह हो जाती है|क्योंकि सच्चाई हमारी आंखें खोलती है| कितने लोग हैं जो इस संसार में एक सशक्त प्रारब्ध लेकर एंट्री करते हैं? यदि आंकड़ा निकाला जाए तो 99% लोग अपने पीछे एक ऐसा प्रारब्ध साथ लेकर इस जगत में पैर रखते हैं जो हमेशा उन्हें पीछे खींचता है| बमुश्किल हम लोग इस जीवन में अपना मार्ग बना  पाते हैं| पता नहीं कितने युगों का भार  हमारे साथ चलता है| जब हम बच्चे होते हैं तो हम सोचते हैं कि जो हम सोचेंगे वही होगा लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं तो पता चलता है कि हमारी इच्छाओं का पूरा होना “तय” नहीं है| कहीं न कहीं कोई दीवार खडी हो जाती है हम उस दीवार को तोड़ने की कोशिश में बार-बार टक्कर मारते हैं, यह सिलसिला चलता रहता है और आखिर में मृत्यु सामने खड़ी हो जाती है| हम सब ऐसी जगहों पर सुख और आनंद की खोज करते हैं जहां वास्तव में वह होते ही नहीं है| बार-बार हम नए नए उत्साह के साथ, मोटिवेशन के साथ प्रहार करते हैं, लेकिन बहुत कम बार सफलता हाथ लगती है| वास्तव में जो हमें मिलना होता है वह तो मिल ही जाता है यदि प्रारब्ध का भार बहुत ज्यादा नहीं है तो बहुत सारी चीजें अपने आप मिलती है| लेकिन उन्हें हम सुख नहीं मानते| क्योंकि वह सहज रूप से हमें हासिल होती हैं| हम खुद को स्वतंत्र मानते हैं लेकिन हम स्वतंत्र नहीं, बल्कि अपने प्रारब्ध के गुलाम हैं| हम सब अपने बच्चे को सुख समृद्धि और महान बनाना चाहते हैं, लेकिन किस की ख्वाहिश पूरी होती है? बड़े होकर वही बच्चे हमारे विपरीत हो जाते हैं| या तो हम भुलावे में ही जीते रहे| मोटिवेशन की आग जला जला कर उत्साह के साथ लगे रहें,  जो मिले उसे सफलता मान लें, जो ना मिले उसे दुर्भाग्य मान, आज को कैसे भी करके आनंद के साथ बिता कर, कल को भूल जाएं| यह भी एक तरीका है| लेकिन सच्चाई यह है कि लाइफ  हमेशा बदलती रहने वाली चीज है|  हम कहीं घूमने का प्रोग्राम बनाते हैं| प्रोग्राम के अनुसार हम घूमने निकल जाते हैं हमारे टूर से पहले हमारे अंदर कितनी आशाएं होती हैं,  उमंग होती है, उस घूमने की लिए उत्साह होता है| लेकिन हम देखते हैं कि कुछ दिन में हम उस खूबसूरत जगह पर घूम कर आ भी गए और फिर पीछे देखते हैं कि अरे यह तो एक सपने की तरह है| कहां तो हम घूमने जाने की तैयारी कर रहे थे| और कहां घूम कर आ भी गए| ऐसे ही अनेक पढ़ाव जिनके बारे में हम सोचते हैं, वह आते हैं और निकल जाते हैं|आने वाला कल बीता हुआ कल बनने में देर नहीं लगती| इसीलिए कहते हैं कि समय का पहिया बहुत तेज चलता है| कब बच्चे से बड़े हो जाते हैं| बड़े से वयस्क| वयस्क से बूढ़े पता ही नहीं चलता| यही सच्चाई है राम आये चले गए| बुद्ध आये चले गए| कृष्ण आये चले गए| महावीर आये चले गए| जो जो आए वह विदा हो गए क्योंकि वह उस व्यवस्था का हिस्सा बने जो सदैव परिवर्तनशील है| यदि इस दुनिया में मौजूद हर चीज परिवर्तनशील है तो फिर ऐसी कौन सी चीज है जो परिवर्तित नहीं होती क्योंकि जो अस्तित्व में है वह अनअस्तित्व भी हो जाएगी| जो बनी है वह मिटेगी| इस संसार में मनुष्य की ही यह दुर्दशा नहीं है| यह दुर्दशा इस संसार में आने पर परब्रह्म की भी हो जाती है|  परब्रह्म स्वयं इस संसार में प्रवेश नहीं करता बल्कि उसकी मौजूदगी मात्र से ब्रह्म का सर्जन हो जाता है| ब्रह्म देश काल और परिस्थिति के अधीन है| ब्रह्म जैसे जैसे परिवर्तनशील होता जाता है वैसे वैसे नीचे के स्तरों में आता  जाता है| यहाँ गौर करिए ब्रह्म को हमने पूर्ण और परब्रह्म नहीं कहा है|  जहां पूर्ण- परब्रह्म है वहां पर ना तो परिवर्तन है ना देश है न काल है न निमित्त| लेकिन जहां पर ब्रह्म है वहां यह सब है|  ब्रह्म का विशुद्ध रूप परब्रह्म है परब्रह्म की मौजूदगी में जो ब्रह्म पैदा होता है उस ब्रह्म में गति है, उस ब्रह्म में परिवर्तन है, उस ब्रह्म में समय है, उस ब्रह्म में आकार है, उस ब्रह्म में उन्नति है, उस ब्रह्म में अवनति है| ब्रह्म में इच्छा, ज्ञान और क्रिया तीनों है| पूर्ण परब्रह्म ही सत्य है, पूर्णब्रह्म ही आत्मा है| पूर्ण ब्रह्म के नीचे जो भी कुछ होता है उसे माया ही कहा जाता है| इसलिए चेतना की परम अवस्था भी माया ही है| क्योंकि चेतना परिवर्तनशील है| चेतना के साथ उन्नति और अवनति जुड़ी हुई है| चेतना के साथ अवस्थाएं जुड़ी हुई हैं| खास बात यह है यह संसार पूर्ण ब्रह्म की इच्छा से पैदा नहीं हुआ| क्योंकि पूर्ण ब्रह्म जिसको हम परब्रह्म भी कहते हैं वह कोई इच्छा नहीं रखता| जिसकी इच्छा होगी वह पूर्ण ब्रह्म नहीं होगा वह ब्रह्म होगा| पूर्णब्रह्म में से  स्वतः  पैदा हुये ब्रह्म को ज्ञान होता है कि मैं अकेला हूं| इस ज्ञान से इच्छा पैदा  होती है बहुत होने की और बहुत होने की इच्छा से क्रिया होती है और उस क्रिया से इस ब्रह्मांड का सृजन होता है| इसे समझने की कोशिश कीजिए ब्रह्म की इच्छा के कारण ही यह जगत है| पूर्ण परब्रम्ह की नहीं| अब हम सोचेंगे कि पूर्ण ब्रह्म कि जब इच्छा है ही नहीं तो फिर यह ब्रह्म-जगत क्यों पैदा हुआ? अपने ऊपर आइए, हमारे अंदर जितनी भी गतिविधियां होती हैं, क्या वह हमारी इच्छा से होती है? हम इच्छा करें या ना करें, हमारे अंदर ब्लड का फ्लो होता रहता है| हमारे अंदर स्वाभाविक रूप से जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति की अवस्थाएं घटती रहती हैं| हम चाहे या ना चाहे हमारे अंदर अनंत प्रकार का जीवन फलता फूलता रहता है| न जाने कितने परजीवी, बैक्टीरिया, सेल, अपना अपना अस्तित्व हमारी इच्छा के होने या ना होने पर भी बनाए और बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं| कार्य और कारण का सिद्धांत पूर्ण ब्रह्म पर लागू नहीं होता| पूर्ण ब्रह्म की मौजूदगी ही पर्याप्त है ब्रह्म की सत्ता का उदय होने के लिए| हां ब्रह्म के साथ कार्य और कारण का सिद्धांत मौजूद होता है| इस पूर्णब्रह्म को पाना या इस में विलीन हो जाना ही मनुष्य का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए| क्योंकि इससे नीचे की अवस्थाएं हमेशा परिवर्तनशील रहेंगी| जैसे हम हैं वैसे ही ब्रह्म है जैसा पिंड है वैसा ही ब्रह्मांड है| जैसे इस दुनिया में मौजूद जीव जंतुओं में सृजन करने की अपार क्षमता होती है| जैसे हमारा अपना एक ब्रह्मांड है वैसे ही ब्रह्म का एक ब्रह्मांड है| हमारा शरीर का ब्रह्मांड हमारे अंतर्गत है ऐसे ही ब्रह्म का ब्रह्मांड ब्रह्म के अंतर्गत है| पूर्ण ब्रह्म इन प्रक्रियाओं  में व्याप्त होते हुए भी पूरी तरह निरव्याप्त है| हम सब ब्रह्म का हिस्सा है इसलिए हम सबका एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है| इस जगत में छोटा से छोटा कण भी स्वतंत्र नहीं है उस कण के ऊपर एक बड़ा कण है बड़े के ऊपर बड़ा है और ऐसे सीरीज चलती जाती है| कोई भी सत्ता स्वतंत्र नहीं उसके उपर एक ना एक सत्ता मौजूद रहती ही है| हर एक किसी न किसी के अंतर्गत है| पूर्ण ब्रह्म किसी सीरीज का हिस्सा नहीं है सब में होते हुए भी वह पूर्णत मुक्त है स्वतंत्र है अकारण है| उसी मुक्त अवस्था को जानना और पाना हम सब का लक्ष्य है| हम सबके दिमाग में एक सवाल आता है कि जो पूर्ण ब्रह्म इच्छा रहित है, हर चीज से परे है, हर बात के पार है, उससे कैसे ब्रह्मा की उत्पत्ति हो जाती है? क्योंकि बिना कारण उत्पत्ति नहीं हो सकती? तो क्या पूर्ण ब्रह्म भी किसी कारण से बंधा हुआ है? कारण से बंधने से पूर्ण ब्रह्म पूर्ण नहीं रहेगा| क्योंकि कारण से जुड़ते ही कार्य शुरू हो जाता है| और जो कार्य करता है वह परिवर्तनशील हो जाता है और जो परिवर्तनशील हो जाता है वह नष्ट भी हो जाता है| कार्य कारण का सिद्धांत ब्रम्हा पर लागू होता है पूर्ण पर ब्रम्हा पर नहीं| वो सब नियमों के पार है इसलिए तो पूर्ण और पर है|  सवाल यह है कि यदि हमने उस पूर्णब्रह्म को जान लिया तो क्या वह पूर्ण ब्रह्म रह जाएगा? बिल्कुल नहीं पूर्ण ब्रह्म इस मन के द्वारा जाना नहीं जा सकता| जैसे ही पूर्ण ब्रह्म को जान लिया जाएगा वैसे ही वह ब्रह्म हो जाएगा क्योंकि “मन” की सीमाओं में जो आ गया,  हमारे द्वारा निर्मित शब्दों में जो समा गया,  हमारी व्याख्याओं के जरिए जो व्याख्यित हो गया वह हमारे समान ही एक परिवर्तनशील जीव हो गया| फिर पूर्ण ब्रह्म को कैसे जाना जाएगा? क्योंकि मनुष्य तो मन ही है? निश्चित ही मन के मौजूद रहते पूर्ण ब्रह्म को नहीं जाना जा सकता? दरअसल पूर्ण ब्रह्म के अतिरिक्त पूर्ण ब्रह्म को कोई दूसरा जान ही नहीं सकता| जब मन पूरी तरह गिर जाएगा तब पूर्ण ब्रह्म स्वतः ही उपस्थित हो जाएगा| फिलहाल तो हम पूर्ण ब्रह्म को समझने की कोशिश कर सकते हैं, उसे जानने की कोशिश कर सकते हैं, उसे पूर्ण ब्रह्म का एक अंश मात्र भी मन टटोल पाए तो मन के गिरने की यात्रा शुरू हो जाती है| मिट्टी पानी के संपर्क में आ जाए तो धीरे-धीरे गलने लगती है, ऐसे ही मन पूर्ण ब्रह्म के सामने उपस्थित हो जाए तो वह खुद ही गिरने लगता है| अब यहाँ कुछ लोग डर सकते हैं कि मन गिरा तो बचेगा क्या? मन के गिरने का अर्थ है असत्य का गिरना| जब असत्य गिर जायेगा तो सिर्फ सत्य ही शेष बचेगा| मन वो सारे काम करता रहेगा जो स्वाभाविक हैं लेकिन वो सब कार्य दैवीय स्वरूप बन जायेंगे| मन अपने वास्तविक स्वरुप में परिवर्तित होने लगेगा|  जब पूर्ण मुक्ति का क्षण आएगा तो मन की सत्ता पूरी तरह खत्म हो जाएगी| वो अवस्था पूर्ण ब्रह्म की ही अवस्था होगी यदि वो प्राप्त हो गयी तो फिर सब कुछ गिरने से डरना क्या? लेकिन चिंता न करें| आप मरेंगे नहीं क्यूंकि शरीर अपनी आयु पूरी करता ही है| दरअसल पूर्ण ब्रह्म हम सबसे अलग है ही नहीं| हम सबके अंदर होते हुए भी वह हम सब से बाहर क्यों है? ऐसा कुछ भी नहीं है जो पूर्ण ब्रह्म नहीं है| हम जो भी जानते हैं उस पूर्ण ब्रह्म के माध्यम से ही जानते हैं| जिसके माध्यम से जानते हैं, जिसके आधार पर जानते हैं और जिसके  होने के कारण अस्तित्व में हैं| तो क्या वो हमारा कारण है? निश्चित ही उसके कारण ही हम हैं| लेकिन उसका कोई कारण नहीं  उस पूर्ण ब्रह्म को हमारी बुद्धि और मन कैसे व्याख्यित कर सकता है? क्योंकि व्याख्या के लिए पृथक सत्ता चाहिए| जो पृथक है ही नहीं जिस के अलावा कुछ है ही नहीं उसे शब्दों में कैसे पिरोया जा सकता है? हमारा जानना भी उसी के अंतर्गत है और हमारा न जानना भी उसी के अंतर्गत है| हमारा ज्ञान भी वही है और हमारा अज्ञान भी वही है| हमारे शब्द भी वही है और शब्दों से पार जो है वह भी वही है| तो फिर उसे शब्दों में कैसे समेटा जा सकेगा? उसे ज्ञान में कैसे सीमित किया जा सकेगा? फिर हम कैसे उसे पुकारेंगे? बस हम यही कह सकते हैं कि तू ही है तू ही है बस तू ही है इसके अलावा और कोई भाषा है ही नहीं| पूर्ण ब्रह्म को कैसे जाना जाएगा? क्योंकि वह तो जानने में भी है, न जानने में भी है| जो जानने न जानने के पार होगा उसमे भी वही है| हम उसे शब्दों में पिरोएंगे तब भी ऐसे अनंत शब्द शेष रह जाएंगे जिनमें भी वह है| हम उसे आकृति में बांधेंगे तो इसके अलावा भी बहुत कुछ शेष रह जाएगा जिसमें वही है वही है वही है| हम कहते जाएंगे लेकिन फिर भी हम उसे व्याख्या का विषय नहीं बना पाएंगे| इन सब बातों से हमें यह लगेगा कि हम अलग हैं और वह अलग है उसके होने के कारण हम पैदा हुए? लेकिन फिर भी वह हमसे अलग नहीं है| जब हम समय की कल्पना करते हैं तो उसमें एक पॉइंट स्टार्टिंग पॉइंट होता है दूसरा लास्ट पॉइंट होता है| जब हम किसी स्थान की कल्पना करते हैं तो वहां कुछ ना कुछ मौजूद होता है| लेकिन जो शुरुआत के पहले भी रहे और शुरुआत के बाद भी रहेगा तो उसकी कल्पना कैसे करेंगे| जो दृश्य में भी है और अदृश्य में भी है उसे आप कैसे देख पाएंगे| जहां जहां कुछ नहीं है वहां भी वह है| उस अनंत पूर्ण ब्रह्म को हम आंखों में कैसे समझ पाएंगे? उसे समझने और जानने का सवाल ही पैदा नहीं होता| बस अपने आपको मिटा दो वह तो मौजूद है ही| अपने आपको मिटाने में घबराहट होती है, संशय होता है तब भी इस यथार्थ को ध्यान में रखो कि हमारा अंतिम आधार वही है और हम उसी के पुजारी हैं| छोटे से एक कोशिय जीव से शुरू हुई हमारी यात्रा मनुष्य तक की यात्रा में पहुंच चुकी है| बस यहां वह मौका है जब हम इस यात्रा को यहीं रोक सकते हैं| हमारा संकल्प हो कि अब हमारी यात्रा खत्म होनी चाहिए| यही संकल्प प्रकृति की सभी बाधाओं को तोड़ देगा और उसके और हमारे बीच के समस्त बंधनों को| चाहे वह मन ही क्यों ना हो उन्हें काट देगा| विजय बाहर हासिल नहीं होती विजय अपने अंदर ही मिलती है| स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि इस जीत को हासिल करने की एक ही प्रक्रिया है स्वयं के माध्यम से स्वयं को ही पूर्ण बनाना| स्वयं को पूर्ण बनाने की प्रक्रिया में एक क्षण को आता है जब इस प्रक्रिया की कमान स्वयं एक शक्ति अपने हाथों में ले लेती है| बस फिर सब सहज हो जाता है| atulyam Latest Hindi News के लिए जुड़े रहिये News Puran से.