दृढ़ संकल्प की धनी थी क्रांतिकारी इंदुमती


स्टोरी हाइलाइट्स

दृढ़ संकल्प की धनी थी क्रांतिकारी इंदुमती
राजस्थानी मूल की इंदुमती सिंह का जन्म चटगांव में हुआ था। इनके पिता श्री गुलाबसिंह राजस्थानी राजपूत थे. वे बंगाल में आकर बस गए थे. इस समय सारा देश ही ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संघर्षरत था। बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का गड़ ही बन गया था।  विचार के लोगों ने स्त्री-पुरुषों को क्रांति के पथ पर लाने के लिए अलग-अलग नामों से दल' 'संघ' तथा समितियाँ बना रखीं थीं। इंदुमती का भाई अनंत सिंह सूर्यसेन दा के साथियों में से एक था, जिसने पुलिस से मुठभेड़ होने से पहले ही आत्मसमर्पण कर दिया था। ऐसे अस्थिर और दुर्बल चरित्र के युवक की बहन इंदुमतो ने उससे आयु में छोटी होते हुए भी अधिक दृढ़ता का परिचय दिया और केवल क्रांतिकारियों की सहायता करने के आरोप में पुलिस की यातनाएं सहने के साथ 6 वर्ष की लंबी सजा भी भोगी। 


इंदुमती की शिक्षा साधारण ही हुई थी। वह बाल्यकाल से ही क्रांतिकारी गतिविधियों से प्रभावित और परिचित होने लगी थी. समय और अवस्था के अनुसार वह कल्पना दत्त तथा प्रीतिलता वादेदार आदि क्रांतिकारी युवतियों के संपर्क में आ गई थी और चटगांव के प्रशिक्षण क्लब की सक्रिय सदस्य थी। उसने क्रांतिकारी गतिविधि तथा क्रिया-शैली का पूर्ण रूप से प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था। वह किसी भी प्रकार का कार्य करने के लिए उत्सुक ही नहीं, पूरी तरह तैयार थी। अतः जब 'चटगाँव शस्त्रागार' पर हमला करने की योजना बनी और उसका भाई अनंत सिंह उस के लिए जाने लगा। वह भी इस एक्शन में सहभागी बनना चाहती थी। लेकिन उसके भाई अनंतसिंह ने उसे इसकी आज्ञा नहीं दी। यद्यपि इंदुमती के यह पूछने पर कि आप लोग कहाँ के लिए तैयार हो रहे हैं? उसने बता दिया कि हम चटगाँव में ब्रिटिश राज्य का अंत करने के लिए हमारी 'रिपब्लिकन आर्मी' आज रात चटगाँव के शस्त्रागार पर अधिकार करके, वहाँ से 'यूनियन जैक' उतार कर तिरंगा फहराएगी। 

इंदुमती सिंह के आग्रह करने पर अनंत सिंह ने बताया कि अभी तो इस एक्शन में प्रीतिलता ही साथ जा रही है। दूसरी बहनों का नंबर बाद में आएगा। भाई के इस उत्तर के जवाब में उसने अपनी कुशलता तथा दृढ़ता के संबंध में बहस करते हुए बताया कि मास्टर दा (सूर्यसेन) उसकी शक्ति तथा क्षमता से परिचित हैं और वह स्वयं भी इस एक्शन का लड़ाई के लिए पूरी तरह प्रशिक्षित है। भाई अनंतसिंह जब किसी प्रकार उसे उस एक्शन में शामिल करने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब वह मजबूरी में अपना मन मसोस कर गई। इस एक्शन में अनंत सिंह ने आत्मसर्मपण कर दिया और उसके कुछ साथी बंदी बना लिए गए।

इन बंदी क्रांतिकारियों के मुकदमें की पैरवी के लिए चंदा एकत्रित करने के काम को इंदुमती सिंह ने अपने हाथ में लिया। उन्होंने बंगाल के कोने-कोने में जाकर लोगों से प्रार्थना की और उनके सामने झोली फैलाई उन्होंने दुस्साहस भरा अभूतपूर्व कार्य यह किया कि कलकत्ता के लाल बाजार के थाने पर जाकर पुलिस वालों को लानत-मलानत दी कि वे सिर्फ अपना और अपने बच्चों को पेट भरने के लिए, देशभक्ति पर हो रहे अत्याचार में भागीदार बन रहे हैं। यह कहकर उन से भी कुछ धन लाने में सफल हो गई इस के लिए उन्होंने बंगाल से बाहर जाकर, दूसरे प्रांतों से भी धन संग्रह किया। 

ब्रिटिश सरकार इसे कब बर्दाशत कर सकती थी। अत: 15 दिसंबर 1931 को उन्हें बंदी बना लिया गया। उस समय क्रांतिकारियों तथा उनसे सहानुभूति रखने वालों के साथ जैसा व्यवहार होता था, उनके साथ भी वैसा ही किया गया। और अंत में बिना मुकदमा चलाए; क्योंकि मुकदमे के लिए, कोई ठोस कारण और प्रमाण तो उनके पास थे नहीं; फिर भी इंदुमती सिंह को 6 वर्ष की सजा सुना दी गई। सन् 1937 में जब प्रांतीय सरकारें बनी उसी समय दूसरी क्रांतिकारी महिलाओं के साथ ही उनहें भी मुक्ति मिली। 6 वर्ष के जेल जीवन का इंदुमती सिंह ने बहुत ही सही उपयोग किया उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। जेल में लीलाराय ने उन्हें नियमित रूप से पढ़ा कर मैट्रिक की परीक्षा दिलाई। जिसमें वे पास हो गई। जेल जाते समय उन्हें केवल काम चलाने लायक ही हिंदी और बंगला आती थी। लेकिन धुन की इतनी पक्की थीं कि जिस काम को भी हाथ में लेती, उसमें खाना-पीना तक भूलकर जुट जाती। जेल से मुक्त होने के पश्चात् भी वह अन्य क्रांतिकारियों के समान खामोश नहीं बैठी।