उर्मिला देवी :क्रांतिकारी महिला उर्मिला देवी शास्त्री


स्टोरी हाइलाइट्स

उर्मिला देवी:मेरठ की प्रसिद्ध नेत्र के रूप में स्मरण की जाने वाली उर्मिलादेवी का जन्म २० अगस्त १९०९ को श्रीनगर में हुआ। इनका परिवार.....उर्मिला देवी

उर्मिला देवी :क्रांतिकारी महिला उर्मिला देवी शास्त्री

मेरठ की प्रसिद्ध नेत्र के रूप में स्मरण की जाने वाली उर्मिलादेवी का जन्म २० अगस्त १९०९ को श्रीनगर में हुआ। इनका परिवार खाता-पीता शिक्षित विचारवान् परिवार था। पिता लाला चिरंजीत लाल स्वामी दयानन्द के परम भक्त थे अतः समाज सुधार के साथ रूढ़ियों और परम्पराओं के प्रति विद्रोह का भाव होना स्वाभाविक था। ये तीन बहनें थीं बड़ी बहन सत्यवती ने मलिक परिवार में विवाह किया। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी और लेखिका के रूप में अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। छोटी बहन का नाम पुरुषार्थ तो था। वह भी कवयित्री थी किन्तु अल्पवय में ही काल का ग्रास बन गई। उर्मिला देवी की विधिवत् सकूली शिक्षा मिडिल तक हो गई: किन्तु उर्मिला देवी ने स्व-अध्ययन द्वारा कठोर परिश्रम करते हुए घर पर ही अंग्रेजी तथा संस्कृत भाषा का ज्ञान ही प्राप्त नहीं किया अपितु इन भाषाओं के प्रमुख ग्रन्थों का गहन अध्ययन कर, कई शास्त्रीय परीक्षाएं उत्तीर्ण की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने आर्यकन्या गुरुकुल देहरादून में अवैतनिक अध्यापन कार्य किया।



समाज-सुधार के साथ देश-सेवा की भावना और प्रेरणा उन्हें सेठ जमनालाल बजाज से मिली। बीस वर्ष की आयु १९२९ में आपने सुधारवादी आर्यसमाजी संस्कारों के अनुरूप जाति-बंधन तोड़ कर धर्मेन्द्र शास्त्री से कोर्ट में जाकर विवाह कर लिया। धर्मेन्द्र शास्त्री उस समय मेरठ में प्रोफेसर थे। इस प्रकार उर्मिला देवी शास्त्री ने महिला उत्थान के मार्ग पर पैर रखा ही था कि गांधी जी के प्रभाव में आकर, उनके आह्वान पर १९३० के स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ी।

 इस आंदोलन में विदेशी वस्त्र बहिष्कार जोरों पर था जगह-जगह विदेशी कपड़ों की होली जलाई जा रही थी मेरठ के प्रसिद्ध नौचन्दी मेले में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार-आंदोलन को चलाने वाली महिला संगठन का नेतृत्व उर्मिलादेवी के हाथ में ही था। उनकी इस महिला टोली में ३० सदस्याएँ थीं जिन्होंने सत्याग्रह का शंखनाद होते ही अपनी नेता उर्मिला देवी के प्रभावशाली व्यक्तित्व, दृढ़ता और साहस से प्रेरित होकर विदेशी कपड़ों की ८० प्रतशत दुकानें बंद करा दी। इस प्रकार वे अंग्रेज शासन की आँखों में चढ़ ही नहीं गई बल्कि खटकने लगीं कुछ समय पश्चात् अवसर पाते ही पुलिस ने उन्हें बन्दी बना लिया और तथाकथित न्यायालय ने उन्हें छह महीने की सजा सुना दी। इस समय वे दो बच्चों की माँ बन चुकी थीं और थे दोनों अभी बहुत छोटे थे। लेकिन स्वतंत्रता-प्रेम तथा देशभक्ति के मार्ग में माँ ने बच्चों के मोह को नहीं आने दिया। उन्होंने अपना अभियान जारी रखा।

उर्मिला देवी शास्त्री में संगठन तथा नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी इसका प्रमाण तू मिला, जब गांधी जी बंदी बना लिए गए और आंदोलन के शिथिल होने की संभावना दिखाई देने लगी। उर्मिला देवी के बिना विलंब किए तुरंत तीन हजार महिलाओं को संगतित किया और उन्हें सात टोलियों में बाँटकर, अलग क्षेत्रों में कार्य पर लगा दिया। गांधी जी की गिरफ्तारी तथा आंदोलन की क उन्होंने नगर में कई सभाएँ की और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा भाषण के आधार पर ६ घंटे की अल्पावधि में बताइए सौ व्यक्तियों ने प्रतिज्ञा-पत्र भरकर उनै दिए। इसी प्रकार मेरठ के प्रसिद्ध नेता पंडित प्यारेलाल शर्मा के बन्दी बना लिए जाने पर, १७ जुलाई को संध्या को १० हजार लोगों की जनसभा में ब्रिटिश शासन द्वारा किए जानेवाले अत्याचारों तथा स्वतंत्रता के महत्त्व पर बहुत ही ओजस्था भाषण दिया। जिसके परिणामस्वरूप उन्हें दिन निकलते निकलते ही बंदी बना लिया गया। मुकदमा चला और सजा सुना दी गई।

जेल के वातावरण तथा व्यवहार से अधिकांश महिला-सत्याग्रहियों का स्वास्थ्य गिर जाता था। ये भी जब जेल से मुक्त हुई तो दो महीने उन्हें अपने स्वास्थ्य सुधारने में लग गए। इस समय आंदोलन आदि का जोर नहीं था किन्तु क्रियाशील व्यक्ति निष्क्रिय होकर बैठ ही नहीं सकता है। अतः श्रीमती शास्त्री ने लाहौर से जन्म-भूमि' दैनिक पत्र शुरू कर दिया। इस पत्र के सम्पादकीय भी भाषण के समान ही तर्कपूर्ण, जोशीले और प्रेरक होते थे। अतः उन्हें १९४१ में दूसरी बार बंदी बनाया गया और एक वर्ष की सजा भोगकर जब आई तो फिर ४ जनवरी, १९४२ को बंदी बना कर छह महीने के लिए जेल भेज दी गई। जेल में भी उन दूसरे कैदियों से अलग अकेला रखा, गया उनकी बीमारी की आरे कोई ध्यान नहीं दिया गया। अतः तनहाई, उपचार के अभाव तथा खराब भोजन आदि के कारण गंभीर रूप से बीमार हो गई। उन्हें गर्भाशय का कैंसर हो गया वे असहनीय पीड़ा सहती रहीं। जब वे मरणासन्न अवस्था में पहुँच गई तब उन्हें रिहा कया गया। इस प्रकार उर्मिलादेवी शास्त्री ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए६ जुलाई, १९४१ को शरीर त्याग दिया। लेकिन इतनी भयानक असहनीय शारीरिक और मानसिक पीड़ा सहते हुए भी उन्होंने माफी नहीं माँगी। उन्होंने अपने कुछ संस्मरण 'कारागर के अनुभव' शीर्षक से १९३० में जेल में रहते हुए लिखे थे लेखन की क्षमता ो। उनमें पारिवारिक ही थी इसके बाद के अनुभव लिखने का क्रूर-काल ने उन्हें अवसर ही नहीं दिया।
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