जब ऋषि ने भयंकर अकाल में अपने बच्चे को जंगल में अकेला छोड़ दिया -


स्टोरी हाइलाइट्स

एक बार भयंकर अकाल पड़ गया. वर्षा न होने के कारण कंद मूल और जल मिलना दूभर हो गया. अपने तथा अपने परिवार के प्राण बचाने के लिए कौशिक ऋषि किसी दूसरे स्थान की खोज में निकल पड़े जहां अकाल का प्रभाव न हो.

जब ऋषि ने भयंकर अकाल में अपने बच्चे को जंगल में अकेला छोड़ दिया
एक बार भयंकर अकाल पड़ गया.वर्षा न होने के कारण कंद मूल और जल मिलना दूभर हो गया.अपने तथा अपने परिवार के प्राण बचाने के लिए कौशिक ऋषि किसी दूसरे स्थान की खोज में निकल पड़े जहां अकाल का प्रभाव न हो. उन्हें काफी दिनों तक यात्रा करनी पड़ी.परिणामस्वरूप उनका छोटा पुत्र चलने में असमर्थ हो गया.एक रात उस पुत्र को एक निर्जन जंगल में एक पीपल के नीचे सोता हुआ छोड़ कर कौशिक ऋषि आगे बढ़ गये.



प्रातःकाल जब उस अबोध बालक की नींद खुली तो उसने देखा कि उसके माता-पिता नहीं हैं,अपने को निर्जन स्थान में पाकर वह रोने लगा,जब रोते-रोते थक गया तो उसे भूख-प्यास ने आ घेरा.वृक्ष के नीचे पीपल के बहुत सारे फल गिरे थे.लड़का वही चुन चुन कर खाने लगा.फल खाने के बाद कुछ ही दूर स्थित बावड़ी पर जाकर उसने जल पिया.

इस घटना के बाद उस बालक की यही दिनचर्या हो गयी,वह पीपल के गिरे फल को खाता और बावड़ी का पानी पीता.शेष समय वह ईश्वर का ध्यान करता. इस तरह काफी दिन बीत गये. एक दिन देवर्षि नारदजी उधर से गुजर रहे थे.उस निर्जन जंगल में एक बालक को भगवान का ध्यान करते देख उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ.ऋषि को देख कर बालक को भी आश्चर्य हुआ.नारदजी ने उस छोटे-से बालक से पूछा-“वत्स! तुम कौन हो और इस छोटी-सी अवस्था में यहां इस निर्जन जंगल में कैसे और क्यों हो?"

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ऋषि की बात सुन कर बालक के मन में संचित दुःख उमड़ पड़ा.उसने रोते हुए कहा-“अकाल पड़ने के कारण मेरे माता पिता किसी दूसरे स्थान की खोज में जा रहे थे,लेकिन एक रात उन्होंने इसी वृक्ष के नीचे मुझे छोड़ कर चले गये.मैं नहीं जानता कि मेरे माता-पिता कौन हैं और अब वे कहां हैं? मैं इसी पीपल के गिरे फल को खाता हूं तथा सामने की बावड़ी से जल पीता हूँ|

नारदजी ने उस बालक को आश्वासन देते हुए कहा "वत्स! अब चिंता न करो तुम्हें देख कर मुझे ऐसा आभास होता है कि तुम किसी श्रेष्ठ कुल के हो देखो,अब अकाल समाप्त हो चुका है.अब अन्न,कंद,फल-फूल आदि सब कुछ मिल रहे हैं.तुम यहीं रह कर भगवान ध्यान करो.मैं तुम्हें विधिवत एक मंत्र देता हूं और संस्कारों की शिक्षा भी दूंगा.तुम भगवान विष्णु का जप ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र से करो तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु तुम्हें अवश्य दर्शन देंगे.इस पीपल के फल को खाकर तुमने अपना भरण-पोषण तथा 'इसी के नीचे बैठ कर तुमने भगवान का ध्यान किया है,अतः मैं तुम्हारा नाम पिप्पलाद रखता हूं.एक दिन तुम महान ऋषि बनोगे.अभी तो मैं जा रहा हूं,लेकिन एक दिन पुनः आऊंगा.”

मंत्र और नाम देकर नारदजी चले गये.पिप्पलाद उसी वृक्ष के नीचे मंत्र का जप करने लगा.उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान विष्णु वहां प्रकट हुए और बोले- “पिप्पलाद! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं.अब तुम वर मांगो.”

अपने सामने चतुर्भुज भगवान विष्णु को देख कर वह अत्यंत भाव-विह्वल हो गया और उनके पैरों से लिपट गया. भगवान विष्णु ने पिप्पलाद को बड़े ही प्रेम से उठा कर वर मांगने के लिए कहा,

तब पिप्पलाद ने कहा- “प्रभो! आपके दर्शन से बढ़ कर कोई वरदान नहीं है.आपमें मेरी दृढ़ भक्ति बनी रहे,यही वरदान दीजिये. "

भगवान विष्णु ने वरदान देते हुए कहा- “पिप्पलाद! भक्ति तो तुम्हें पहले ही प्राप्त हो चुकी हैं.अब तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा.इतना ही नहीं बल्कि अथर्वण पद प्राप्त कर तुम पैप्पलाद संहिता के स्रष्टा भी होगे.”वरदान देने के बाद भगवान विष्णु अंतर्धान हो गये.

विष्णुजी के अंतर्धान होने के बाद पिप्पलाद पुनःउनकी भक्ति एवं तप में लीन हो गया,

एक दिन नारदजी पुनः यहाँ पधारे, उन्हें यह जान कर असीम हर्ष एवं आनंद हुआ कि भगवान विष्णु ने पिप्पलाद को दर्शन देकर ज्ञान और भक्ति का वरदान दिया है.

नारदजी को देख कर पिप्पलाद का दुःख पुनः उमड़ पड़ा. उसने नारदजी से पूछा- "महर्षे आपतो अंतर्यामी हैं.मुझे किस कर्म के कारण अबोधावस्था में ही इतना कष्ट उठाना पड़ा? यहां तक कि मेरे माता-पिता तथा कुल एवं गोत्र का भी पता नहीं है.आपने मुझे दीक्षा एवं संस्कार देकर मुझे ब्राह्मणत्व प्रदान किया.आपकी कृपा से ही मुझे भगवान विष्णु के दर्शन हुए."

नारदजी ने पिप्पलाद को आश्वासन देते हुए कहा “पिप्पलाद तुम दुःख और शोक मत करो तुम्हें अभी तक जो कुछ भी सहना पड़ा, वह शनिग्रह के प्रकोप के कारण, अभी भी वह आकाश में अपने मार्ग पर प्रज्वलित होकर गमन कर रहा है|

यह सुनते ही पिप्पलाद की क्रोधागि भड़क उठी. उसने अत्यंत क्रोधपूर्वक शनिग्रह पर अपनी दृष्टि डाली. उसके महान तप के प्रभाव से शनि अपने मार्ग से पथभ्रष्ट हो गये और एक पहाड़ पर गिर पड़े.आकाश से गिरने के कारण शनि का एक पैर टूट गया.

शनि को इस अवस्था में देख कर नारदजी बड़े ही प्रसन्न हुए.उन्होंने तत्काल ब्रह्मा आदि देवताओं को बुलाया तथा उन्हें नि की दुर्दशा दिखायी.

शनि की यह दशा देख कर ब्रह्माजी को बड़ा ही दुःख हुआ.उन्होंने पिप्पलाद को समझाते हुए कहा- “पिप्पलाद! तुम एक महान ऋषि होकर क्रोधित हो गये? क्या तुम यह नहीं जानते हो कि मानव को जो सुख या दुःख मिलता है वह उसके पूर्व कर्मों के आधार पर मिलता है? तुम्हारी दुर्गति में शनि का कोई दोष नहीं है. वे तो अपना कर्म प्रकृति के नियम के अनुसार करते रहते हैं.उनके गिर जाने के कारण प्रकृति के नियम में बाधा पड़ेगी तथा भयानक उपद्रव का आरंभ हो जायेगा, अतः, अपने तपोबल से उन्हें पुनः उनके मार्ग पर प्रक्षेपित कर दो ताकि प्रकृति के नियम में कोई बाधा न पहुंचे."

ब्रह्मदेव की बात सुन कर पिप्पलाद को अपनी गलती का भान हुआ. उसने अपने तपोबल से पुनः शनिदेव को उनके मार्ग पर स्थापित कर दिया.उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि इस सृष्टि में जो कुछ भी होता है वह एक नियम के अंतर्गत ही होता है.

-अजय कुमार