ऋषि सुतीक्षण- गुरुदक्षिणा में गुरु को भगवान के दर्शन-दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

ऋषि सुतीक्षण- गुरुदक्षिणा में गुरु को भगवान के दर्शन -दिनेश मालवीय भक्त-ज्ञानी मुनियों में सुतीक्षण का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है. महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्षण एक ऐसे आदर्श मुनि थीं, जिन्हें परम ज्ञान के साथ भक्ति की सभी दशाएँ प्राप्त हैं. ऐसी अवस्था बहुत दुर्लभ होती है. ‘रामचरितमानस’ में इनका संक्षिप्त लेकिन बहुत भावपूर्ण चित्रण किया गया है. महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्षण की शिक्षा पूरी होने पर गुरु ने कहा कि अब तुम सब विद्याओं में पारंगत हो गये और और तुम्हारा अध्ययन पूर्ण हो गया है. सुतीक्षण ने कहा कि आप आदेश दीजिये कि आपको गुरुदक्षिणा के रूप में क्या अर्पित करूँ. ऎसी क्या चीज है, जिसे पाकर आपको अपार प्रसन्नता हो. गुरु ने कहा कि तुमने मेरी बहुत सेवा की है. इससे बढ़कर कि गुरुदक्षिणा नहीं है. अत: जाओ और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो. सुतीक्षण ने हठ पकड़ ली और पीछे ही पड़ गये. गुरु ने कुछ खीझते हुए कहा कि यदि देना ही चाहते हो तो हमें भगवान श्रीराम और माता सीता को लाकर उनके दर्शन करवा दो. सुतीक्षण वन में जाकर घोर तपस्या करने लगे. वह भगवान श्रीराम की छबि का ध्यान करते रहे. बहुत दिनों के बाद उन्होंने सुना कि भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीताजी और भाई लक्ष्मण के साथ पधारे हैं और इसी रास्ते से आ रहे हैं. इनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह सोचने लगे कि क्या भगवान मुझपर कृपा करेंगे? क्या मुझे अपनी शरण में लेंगे? ऐसा सोचते हुए उनकी दशा विचित्र हो गयी. वह प्रेम के महाभावों के प्रकट होने से परम उन्माद की स्थिति में इधर-उधर फिरने लगा. वह बहुत अधीर होकर प्रभु की प्रतीक्षा करने लगे. भगवान् श्रीराम उन्हें छुपकर इस दशा में देखते रहते हैं. वह भक्ति-भाव में विभोर होकर नाच रहे थे. जब भगवान् ने देखा कि ऋषि नाचना-गाना छोड़कर एकदम स्थिर होकर गंभीर हो गये हैं, तब वह उनके पास चले गये. लेकिन ऋषि को तो सुधबुध ही नहीं थी. वह ध्यान में मस्त थे. अपने भीतर भगवान् के दर्शन से अभिभूत हो रहे थे. प्रभु ने उनके शरीर को हिलाया-डुलाया, लेकिन उन्हें तो होश ही नहीं था. तब भगवान ने उनके ह्रदय में अपना चतुर्भुज रूप दिखाया. वह उन्हने इष्ट नहीं था. लिहाजा, उन्होंने आँखें खोल दीं. देखा कि जिनका वह ध्यान कर रहे थे, वही सीताजी और लक्ष्मण के साथ सामने खड़े हैं. वह लकुट की तरह प्रभु के चरणों में गिर पड़े. भगवान् ने उन्हें छाती से लगा लिया. भगवान ने उनसे वरदान मांगने को कहा. मुनि ने कहा कि मैं क्या माँगूं? क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका मुझे ज्ञान ही नहीं है. आपका जो मन करे वही दे दीजिये. भगवान प्रसन्न हुए और उन्हें सब सिद्धियाँ प्रदान कीं. साथ ही उन्हें अविरल भक्ति का वरदान और सदा उनके ह्रदय मंदिर में विराजने का आश्वासन दिया. सुतीक्षण के पूछने पर भगवान ने बताया कि उन्हें महर्षि अगस्त्य के दर्शन करने जाना है. सुतीक्षणजी ने कहा कि उन्हें भी साथ चलना है. वह मेरे गुरु हैं. भगवान हँसे और उन्हें साथ ले लिया. अगस्त्य मुनि के आश्रम जाकर भगवान तो महर्षि की आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़े रहे, लेकिन सुतीक्षण को तो आज्ञा लेनी नहीं थे. वह झट से जाकर अपने गुरदेव से बोले कि जिनकी आप प्रतीक्षा कर रहे थे. वह भगवान आपके द्वार पर खड़े हैं. सुनते ही अगस्त्यजी दौड़ पड़े और प्रभु को भीतर लिवा लाये. इस प्रकार सुतीक्षण ऐसे महान मुनि हुए हैं, जिन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में अपने गुरु को भगवान के साक्षात दर्शन करा दिए.